सरकार चाहे तो अभी भी सुलह संभव है

किसान आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और इस पर आए फैसले से सरकार और किसानों के बीच का गतिरोध समाप्त नहीं हो सका।
सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो किसान आंदोलन के समाधान नहीं निकालने को लेकर सरकार को डांट लगाई, फिर नये कृषि कानूनों को तात्कालिक रूप से स्थगित किया और इन तीनों कानूनों पर नये सिरे से विचार के लिए चार सदस्यीय कमेटी बनाई। लेकिन किसानों के मुताबिक ये चारों सदस्य नये कृषि विपणन कानूनों को रद्द करने की मांग को सिरे नहीं चढ़ा सकते क्योंकि ये सभी नियुक्त सदस्य नये कृषि कानूनों के कहीं न कहीं समर्थक हैं या उन कानूनों को निर्मित करने वाले रहे हैं यानी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से एक तरह से कृषि कानून पर सरकार के ही करतब का पार्ट-2 शुरू हुआ है। इस पर किसान संगठनों और सरकार के बीच उसी तरह से गतिरोध कायम है, जैसे पहले था। देखा जाए तो किसान आंदोलन के इस समूचे परिदृश्य में चीज़ें उस तरफ  मुड़ गयी हैं, जहां भारत के खेती को लाभकारी बनाने का सबसे जरूरी मुद्दा प्राथमिकता से बाहर चला गया है। पहले जहां सरकार ने नये कृषि कानूनों में खेती को लाभकारी बनाने के वास्तविक मैकेनिज्म को शामिल करने में जानबूझ कर कोताही दिखाईं, वहीं किसानों ने अपनी आंदोलन की शुरूआत में इन तीनों कानूनों में न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली यानी एमएसपी को कानूनी आधार प्रदान करने का क्लॉज डालने की मांग की थी, लेकिन सरकार ने जब सबसे महत्वपूर्ण इस एमएसपी कारक की अनसुनी कर दी तो बाद में जब मजबूत और संगठित तरीके से किसान आंदोलन उभरा तो उसकी रणनीति में एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की मांग को दूसरे नंबर पर और नये खेती कानूनों को रद्द करने की मांग को पहले नंबर पर रख दिया गया। इस तरह आंदोलन का मुख्य कथानक अब देश के पंद्रह करोड़ किसान परिवारों के लिए दशकों से घाटे व बदहाली का पर्याय बनी खेती को लाभकारी बनाने के बजाय तीन नये खेती कानूनों को रद्द करने पर प्राथमिक रूप से केन्द्रित हो गया है। दरअसल किसान आंदोलन के इस रुख में जो बदलाव आया, उसके लिए सरकार ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि किसानों के साथ हुई वार्ताओं के क्रम में सरकार की एमएसपी पर जो जवाबी प्रतिक्रियाएं आयीं, वे बेहद निराशाजनक थीं। सरकार ने कहा कि यह एमएसपी पहले भी लागू थी, वर्तमान में लागू है और आगे भी रहेगी। दूसरा यह जवाब कि यह एमएसपी प्रशासनिक आदेश के तहत जो पचपन साल पहले लाया गया था, उसी से काम चल जाएगा, उसे कानूनी दर्जा दिये जाने की जरूरत नहीं है। इस जवाब से तीन बातें मुखरित हुईं। पहले सरकार या तो भारत की खेती की असल वास्तविकता से अनभिज्ञ है या फिर वह एमएसपी को लेकर किसानों को भ्रमित और गुमराह करना चाहती है। वास्तव में सरकार कृषि उत्पादों की सीजन के दौरान जो कीमतें मिलती हैं, और जो गैर सीजन के दौरान कृषि उत्पाद की कीमतें होती हैं, उनके फर्क की अनदेखी करना चाहती है। दरअसल देश में आम किसान को कृषि उत्पादों को बेचते समय जो कीमतें मिलती हैं, और ऑफ सीजन में जो कीमतें व्यापारियों को मिलती हैं, उनके बीच के फर्क की सरकार अनदेखी कर रही है, जो कि करीब सौ से पांच सौ प्रतिशत तक है। यह कोई हाल फिलहाल की बात नहीं है। बरसों से यही रवैया कायम है। शायद अब सरकार इस फासले और मुनाफे को कारपोरेट समूहों के लिए कानूनन सुनिश्चित करना चाहती है।कुल मिला कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस किसान आंदोलन का जो समूचा परिदृश्य बना है, उसमें नये कृषि कानूनों को रद्द किया जाना अब एक राजनीतिक विषय बन चुका है, जबकिएमएसपी को कानूनी दर्जा अभी भी किसानों के विशुद्ध आर्थिक मसले के रूप में कायम है। सरकार इस पूरे परिदृश्य में कारपोरेट के प्राथमिक संरक्षक की अपनी भूमिका अदा कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इन सारे मामलों की असल गुत्थी पकड़ने के बजाय केवल डांट-फटकार कर सरकार को पुन: अपने एजेंडे परही चलने की नयी राह सुझा दी है। इस सारे मामले में पिस रहा है किसान। इस समूचे मसले को अगर किसानों की मांग के परिप्रेक्ष्य में देखें तो क्याउनके द्वारा तीनों नये कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग से किसानों का कोई भला होगा? अगर ऐसा हुआ भी, तो भी खेती का असल संकट ज्यों का त्योंबना रहेगा। खेती की बदहाली का जो यथास्थितिवाद है, वही कायम रहेगा। किसानों के उत्पाद के मूल्य जो सीजन में गिरते हैं, वे इन कानूनों के रद्द किये जाने के बाद भी गिरेंगे। हमारे कथित कृषि मंत्री और सरकार के सारेप्रवक्ता अपने को किसानों के मौखिक हितैषी बता रहे हैं, लेकिन बरसों से चले आ रहे किसानों के नीतिगत शोषण को ही आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरफ  किसानों को भी अपने इस राष्ट्र-व्यापी आंदोलन से यह अवसर मिला था कि वे अपने सभी उत्पादों को एमएसपी प्रणाली में शामिलकरवाने, उत्पादों की लागत-युक्त कीमतें निर्धारित करवाने और सभी उत्पादों के मूल्य भुगतान को नियत समय पर प्रदान किये जाने को व्यापक कानूनी दर्जा देने की मांग पर दबाव डालते तो बात ज्यादा बेहतर होती। जब किसान यह कह रहे हैं कि हमारे उत्पाद सरकार खरीदे या कोई कारपोरेट, हमें बस वाजिब दाम मिलना चाहिए तो फिर बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए। सरकार को इससे यह साफ साफ  संकेत है कि वह बस एमएसपी को कानूनी दर्जादेने की बात अपने सिरे से घोषित कर दे और वार्ताओं की आंखमिचौली की गेंद किसानों के पाले में डाले। सरकार को यह समझना चाहिए कि किसानों की पूरी तैयारी के साथ किये गए इस आंदोलन के मुद्दे कोई कर्ज माफी और बिजली बिल माफी को लेकर नहींहैं जो सरकार के खजाने पर चपत लगाएं और अर्थव्यवस्था पर स्फीतिकारी असर डालें। एमएसपी को कानूनी दर्जा देना ही सरकार के नये कानूनों कोसंपूर्ण बनाएगा और यह तीनों पक्षों के लिए सुखध स्थिति लाएगा। 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर