केन्द्र सरकार के प्रभाव को क्षरित कर रहा है किसान आन्दोलन

मकर संक्रांति गुज़र चुकी है। इसका सीधा मतलब यह है कि सर्दी का मौसम अब हफ्ते-दस दिन में ढलान पर चला जाएगा। फरवरी आएगी, और मौसम उत्तरोत्तर खुशनुमा होने लगेगा। जाड़ों की यह सुहानी धूप अगर किसी के लिए आनंददायक नहीं होगी, तो वह है सरकार, सरकारी पार्टी और उसके पैरोकार। कारण यह कि हाड़ कंपा देने वाली सर्दी और लगातार हुई बरसात के बावजूद दिल्ली की सीमाओं पर टिके हुए किसानों के लिए अब उनका जुझारू आन्दोलन खुले आसमान के नीचे मनाई जाने वाली पिकनिक में बदल जाएगा। वे आराम से पूरी फरवरी और मार्च के पहले पंद्रह दिन तक तो दिल्ली का अपना ऐतिहासिक घेरा जारी रख ही सकते हैं। आन्दोलन का हर गुज़रता हुआ और नया आता हुआ दिन सरकार का संकट बढ़ा रहा है। यह एक ऐसा संकट है जिसकी जकड़ बिना किसी आवाज़, हंगामे और बड़ी उथल-पुथल के सरकार और उसके नेतृत्व की साख में क्रमश: छोटी-छोटी कटौती किये जा रही है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार और नेतृत्व की प्रतिष्ठा में आई गिरावट का पहला आंकड़ागत सबूत सामने आ गया है। एक न्यूज़ चैनल द्वारा कराया गया सी-वोटर का ‘देश का मूड’ सर्वेक्षण भारतीय जनता पार्टी को बेचैन करने के लिए काफी है। जब से यह आन्दोलन शुरू हुआ है, यानी पिछले डेढ़ महीने के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की रेटिंग में कम से कम दस फीसदी की गिरावट तो हुई ही है। इसी तरह उनकी सरकार की लोकप्रियता की रेटिंग में पंद्रह फीसदी से ज़्यादा की गिरावट दर्ज की गई है। कहना न होगा कि अभी भी दोनों की रेटिंग काफी अच्छी है, लेकिन ऐसी गिरावट पहली बार देखी गई है, और उसका एकमात्र कारण किसानों की घेराबंदी ही है। और तो और, अपने प्रधानमंत्रित्व के सात सालों में पहली बार किसी प्रदेश में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता नकारात्मक या शून्य से काफी नीचे चली गई है। ऐसा पंजाब में हुआ है। हरियाणा में स्थिति यह है कि उसके भाजपाई मुख्यमंत्री देश के सबसे ़खराब मुख्यमंत्रियों की सूची में दूसरे नम्बर पर हैं। वहां भी प्रधानमंत्री की साख का आंकड़ा अच्छा नहीं है। ध्यान रहे कि पंजाब और हरियाणा के किसान इस आन्दोलन के हरावल में जमे हुए हैं। ज़ाहिर है कि दोनों प्रदेशों की राजनीति पर इसका असर लाज़िमी तौर पर पड़ेगा ही। यह पूछा जा सकता है कि यह सर्वेक्षण किस हद तक भरोसेमंद है? दरअसल, यह सर्वेक्षण उतना ही विश्वसनीय है जितना कोई भी सर्वे होता है। हर सर्वे एक संकेतक की भूमिका निभाता है। वह हांडी का एक चावल है जिसे टटोल कर कुछ-कुछ पता लगाया जा सकता है कि पकने में कितनी देर है। इसी तरह यह सर्वे भी बताता है कि किसान आन्दोलन से निबटने में विफलता मिलने के कारण सरकार अपने लिए एक धीरे-धीरे पनपते हुए ़खतरे का सामना कर रही है। 
सर्वेक्षण ने एक और विचारणीय आंकड़ा पेश किया है जिस पर अभी तक चर्चा नहीं हो पाई है। इसका भी कुछ न कुछ संबंध किसान आन्दोलन से हो सकता है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता केवल 35 ़फीसदी के आसपास, और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता तो उनसे भी कम यानी पच्चीस फीसदी के आसपास है। ध्यान रहे कि इस प्रदेश में 2017 में भाजपा ने सवा तीन सौ सीटें जीत कर कमाल कर दिखाया था। इससे पहले 2014 और उसके बाद 2019 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में एकतरफा नतीजे निकाल कर मोदी को बहुमत दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। चुनाव-नतीजे बताते हैं कि पिछले सात साल से यह प्रदेश पूरी तरह से भाजपामय रहा है। ऐसे प्रदेश में अगर मुख्यमंत्री और उन्हें चुनने वाले प्रधानमंत्री (जो इसी प्रदेश से दूसरी बार सांसद चुने गए हैं) दोनों की साख पचास फीसदी से काफी कम दिख रही है। ध्यान रहे कि दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे किसान आन्दोलन में हरियाणा और पंजाब के बाद अगर किसी प्रदेश के किसान सबसे ज़्यादा हैं तो वह है पश्चिमी उप्र। वहां के विख्यात किसान नेता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत भी इस आन्दोलन की नेतृत्वकारी शक्ति हैं। पहले जानकारी मिली थी कि भाजपा के रणनीतिकारों ने टिकैत को अपनी ओर खींच लिया है। लेकिन, अभी तक इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिला है। टिकैत और अन्य नेताओं के बीच कोई मतभेद नहीं उभरा है। ध्यान रहे कि पश्चिमी उप्र के जाट किसानों ने पिछले तीनों चुनावों में भाजपा को निष्ठापूर्वक वोट दिया है। अब भाजपा को डर सता रहा है कि नये कृषि कानूनों के विरोध के कारण इन किसानों और पार्टी के बीच संबंधों में दरार आ सकती है। इसी स्तम्भ में मैंने पहले कहा था कि समाज के दूसरे तबकों से किसान आन्दोलन को सक्रिय समर्थन नहीं मिल रहा है। हाँ, यह हो सकता है कि लोगों के मन में इसके प्रति हमदर्दी हो पर इस तरह की सहानुभूति मुख्यत: निष्क्रिय ही होती है। परंतु मेरी इस राय के विपरीत सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि आन्दोलन भले ही शहरी मध्यवर्ग का सक्रिय समर्थन न प्राप्त कर पाया हो, आम लोग सरकार की संबंधित विफलताओं को ध्यान से देख रहे हैं। यह एक चौंका देने वाला तथ्य है। यह आन्दोलन शहरी मध्यवर्ग और अन्य गैर-किसान तबकों को एक राजनीतिक आत्मीयता के साथ अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। यह भी देखने का बात है कि पहले भाजपा की तरफ से आन्दोलनकारियों को खालिस्तानी एजेंट और टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य बताने जैसी घिनौनी अफवाहें उड़ाई जा रही थीं। पीयूष गोयल जैसे वरिष्ठ मंत्रियों ने तो साफ तौर पर सन्देह व्यक्त किया था कि आन्दोलन पर वामपंथी तत्व हावी होते जा रहे हैं। अब स्थिति यह है कि इस तरह का कुप्रचार भी दब गया है। शायद इसलिए कि इस पर किसी ने विश्वास नहीं किया। ज़ाहिर है कि अब सरकार के समर्थक किसी और हथकंडे की खोज में होंगे। दूसरी समझने वाली बात यह है कि इस आन्दोलन के पीछे गैर-पार्टी किसान संगठनों की ताकत तो है ही, इसके पीछे मुख्य तौर पर पंजाब और देश के सिख समाज की ज़बदस्त सांगठनिक शक्ति भी काम कर रही है। भाजपा की हिन्दुत्ववादी विचारधारा के लिए यह पहलू अस्थिरकारी है। हिन्दुत्व की विचारधारा मानती है कि सिख व्यापक हिन्दू एकता के स्वाभाविक अंग हैं, क्योंकि खालसा पंथ इस्लाम और ईसाइयत के विपरीत भारत में ही पैदा हुआ धर्म है। 1984 में हुई सिख विरोधी हिंसा को संघ परिवार इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण मानता है कि उसके कारण हिंदुओं और सिखों के बीच संबंधों में गांठ पड़ गई थी। उसे डर है कि यह आन्दोलन एक बार फिर वैसी ही परिस्थिति पैदा कर सकता है। अगर ऐसा हुआ तो हिन्दुत्व की दूरगामी परियोजना साँसत में पड़ जाएगी। अगर सिख भाजपा और संघ परिवार से फिरंट होते हैं, तो वे दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के ज़्यादा नज़दीक चले जाएंगे। उनका समाज शक्तिशाली, संगठित, संसाधनयुक्त, फौजी अतीत और वर्तमान से सम्पन्न होने के साथ-साथ युरोप, कनाडा और अमरीका में अच्छी-खासी समर्थनकारी उपस्थिति से लैस है। सिखों में अगर अल्पसंख्यक मानसिकता ने ज़ोर पकड़ा, तो वह भाजपा के लिए अच्छी ़खबर नहीं होगी। इन्हीं सब कारणों से भाजपा और उसकी सरकार के लिए यह आन्दोलन जल्दी से जल्दी खत्म करना ज़रूरी है। लेकिन, मुश्किल यह है कि तीनों कानूनों को वापिस लिए बिना यह काम कैसे किया जाए, यह इस सरकार को पता नहीं है।