पक्षियों की मौत के और भी कारण हो सकते हैं 

दिल्ली में संजय झील में जिन साढ़े तीन सौ से अधिक बत्तखों और जल मुर्गियों की चहलकदमी देखने लोग आते थे, शक हुआ कि उन पर वायरस का हमला है और पलक झपकते ही उनकी गर्दन मरोड़ कर मार डाला गया। बीते दस दिनों से देश में कहीं भी किसी पक्षी के संक्रमित होने का शक होता है, तो आसपास के सभी पक्षी निर्ममता से मार दिए जाते हैं। इस बार पक्षियों के मरने की शुरुआत कौओं से हुई। कौआ एक ऐसा पक्षी है जिसकी प्रतिरोध क्षमता सबसे सशक्त कहलाती है। कौए भी मध्य प्रदेश के मालवा के मंदसौर-नीमच व उससे सटे राजस्थान के झालावाड़ जिले में मरे मिले। जान लें कि इन इलाकों में प्रवासी पक्षी कम ही आते हैं। इसके बाद हिमाचल प्रदेश की पोंग झील में प्रवासी पक्षी मारे गए और फिर केरल में पालतू मुर्गी व बत्तख मरे। एक बात जानना जरूरी है कि हमारे यहां बीते कई सालों से इस मौसम में बर्ड-फ्लू का शोर होता है परन्तु अभी तक किसी इन्सान के इससे मारे जाने की खबर मिली नहीं। हां, यह मुर्गी पालन में लगे लोगों के लिए भारी नुकसानदायक सिद्ध होता है। यह तो स्पष्ट है कि इसी मौसम में पक्षियों  के मरने की वजह हजारों किलोमीटर दूर से जीवन की उम्मीद के साथ आने वाले वे पक्षी होते हैं जिनकी पिछली कई पुश्तें, सदियों से इस मौसम में यहां आती रही हैं। चूंकि ये तो सदियों से आते रहे हैं व उनके साथ नभचरों की मौत का सिलसिला कुछ ही दशकों का है, तो ज़ाहिर है कि असली वजह उनके प्राकृतिक पर्यावास में लगातार हो रही छेड़छाड़ व बहुत कुछ जलवायु परिवर्तन का असर भी है। यह सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान शून्य से चालीस डिग्री तक नीचे जाने लगता है, तो वहां के पक्षी भारत की ओर आ जाते हैं। ऐसा हज़ारों साल से हो रहा है। ये पक्षी किस तरह रास्ता  पहचानते हैं, किस तरह हज़ारों किलोमीटर उड़ कर आते हैं, किस तरह ठीक उसी जगह आते हैं, जहां उनके दादा-परदादा आते थे, विज्ञान के लिए भी अनसुलझी पहेली की तरह है। इन पक्षियों के यहां आने का मुख्य उद्देश्य भोजन की तलाश, तथा गर्मी और सर्दी से बचना होता है। यह संभव है कि उनके इस लंबे सफर में पंखों के साथ कुछ जीवाणु आते हों, लेकिन कोरोना संकट ने बता दिया है कि किस तरह घने जंगलों के जीवों के इन्सानी बस्ती के लगातार करीब आने के चलते  जानवरों में मिलने वाले  वायरस इन्सान के शरीर को प्रभावित करने के मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं। अभी तो इन पक्षियों के वायरस दूसरे पक्षियों के डीएनए पर हमला करने लायक ताकतवर बने हैं और इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इनकी ताकत इन्सान को नुकसान पहुंचाने लायक भी हो जाए। ऐसे में इस बारे में सतर्कता तो रखनी ही होगी। विदित हो कि मरने वाले पक्ष्यिं की पहले गर्दन लटकने लगी, उनके पंख बेदम हो गए। वे न तो चल पा रहे थे और न ही उड़ पा रहे थे। शरीर शिथिल हुआ और प्राण निकल गए। फिलहाल तो इसे ‘बर्ड-फ्लू’ कहा जा रहा है लेकिन संभावना है कि जब वहां के पानी व मिट्टी के नमूने की गहन जांच होगी तब असली बीमारी पता चलेगी क्योंकि इस तरह के लक्षण ‘एवियन बॉटुलिज़्म’ नामक बीमारी के होते हैं। यह बीमारी क्लोस्ट्रिडियम बॉट्यूलिज़्म नाम के बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। एवियन बॉटुलिज़्म को 1900 के दशक के बाद से जंगली पक्षियों में मृत्यु दर का एक प्रमुख कारण माना गया है। यह बीमारी आमतौर पर मांसाहारी पक्षियों को ही होती है। इसके बैक्टीरिया से ग्रस्त मछली खाने या इस बीमारी का शिकार हो कर मारे गए पक्षियों का मांस खाने से इसका विस्तार होता है। संभावना यह भी है कि पानी व हवा में क्षारीयता बढ़ने से तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करने वाली बीमारी ‘हाईपर न्यूट्रिनिया’ से कुछ पक्षी, खासकर प्रवासी पक्षी मारे गए हों। इस बीमारी में पक्षी को भूख नहीं लगती है और इसकी कमज़ोरी से उनके प्राण निकल जाते हैं। पक्षी के मरते ही जैसे ही उसकी प्रतिरोध क्षमता शून्य हुई, उसके पंख व अन्य स्थानों पर छुपे बैठे कई किस्म के वायरस सक्रिय हो जाते हैं व दूसरे पक्षी इसकी चपेट में आते हैं। इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि दूषित पानी से मरी मछलियों को दूर देश से थके-भूखे आए पक्षियों ने खा लिया हो व उससे एवियन बॉटुलिज़्म के बीज पड़ गए हों। एवियन बॉटुलिज़्म का प्रकोप तभी होता है जब विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक कारक समवर्ती रूप से होते हैं। इसमें आम तौर पर गर्म पानी के तापमान, एनोक्सिक (ऑक्सीजन से वंचित) की स्थिति और पौधों, शैवाल या अन्य जलचरों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण आदि प्रमुख हैं।  यह सर्वविदित है कि धरती का तापमान बढ़ना और जलवायु चक्र में बदलाव से भारत बुरी तरह जूझा रहा है। ‘भारत में पक्षियों की स्थिति-2020’ रिपोर्ट के नतीजे बता चुके हैं कि पक्षियों की लगातार घटती संख्या, नभचरों के लिए ही नहीं, धरती पर रहने वाले इंसानों के लिए भी खतरे की घंटी है। बीते 25 सालों के दौरान हमारी पक्षी विविधता पर बड़ा हमला हुआ है। कई प्रजातियां लुप्त हो गईं तो बहुत की संख्या नगण्य पर आ गई। पक्षियों पर मंडरा रहा यह खतरा शिकार से कहीं ज्यादा विकास की नई अवधारणा के कारण उपजा है। अधिक फसल के लालच में खेतों में डाले गए कीटनाशक, विकास के नाम पर उजाड़े गए उनके पारम्परिक पर्यावास, नैसर्गिक परिवेश  की कमी से उनकी प्रजनन क्षमता पर असर; ऐसे ही कई कारण हैं जिनके चलते हमारे गली-आंगन में पक्षियों की चहचहाहट कम होती जा रही है। ऐसे में पक्षियों में व्यापक संक्रामक हमले बेहद चिंताजनक हैं। इनका इस तरह से मारा जाना असल में अनिष्टकारी है।