सरकार के रुख में नरमी का राज़ क्या है ?

मैं चाहता हूं यहीं
सारे फैसले हो जाएं
कि इसके बाद ये 
दुनिया कहां से लाऊंगा मैं।
इस समय किसान संगठनों के नेताओं की मानसिक हालत बिल्कुल इस शेअर के जैसी है और वे 100 प्रतिशत जीत के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। परन्तु यह भी सच है कि किसान जिस सब्र, हौसले, सूझबूझ से संघर्ष को चला रहे हैं, उसने उनको 90-95 फीसदी जीत तो दिला ही दी है। हमें नहीं पता आज किसान संगठनों की शाम तक चलने वाली बैठकों में अहम फैसला क्या होता है। संगठन सरकार की पेशकश को कुछ बदलावों की मांग करके स्वीकार करती हैं या नहीं। परन्तु हमारी सोची-समझी राय है कि यदि लिखित समझौते में और केन्द्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट को दिए जाने वाले शपथ-पत्र की इबारत में कोई भुलेखा न खा जाएं तो यह स्थिति मामूली बदलावों के साथ लगभग 100 प्रतिशत जीत जैसी ही बन सकती है। सरकार तो सिर्फ मुंह बचाने और इस हार के बाद कुछ और कानूनों के मामले में भी ऐसी स्थिति पैदा होने से बचने की कोशिश कर रही है। ये किसान संगठनों के नेताओं की परीक्षा का समय है कि इस मोड़ पर ठीक फैसला लेते हैं या कोई एतिहासिक गलती कर बैठते हैं।
मुजफ्फर रज़मी के अनुसार
ये जब्र भी देखा है ताऱीख की नज़रों ने,
लमहों ने खता की है, सदियों ने सज़ा पाई।
हम समझते हैं कि आगामी 2-3 दिन किसान मोर्चे, पंजाब और देश के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन दिनों में लिए जाने वाले फैसले इतिहास में नया मोड़ सिद्ध होंगे।
सरकार कैसे झुकी?
हालांकि यह बहुत प्रभाव था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसी तरह भी, किसी भी हालत में किसान संघर्ष के दबाव के आगे झुकने हेतु तैयार नहीं हैं। और जो मर्ज़ी  हो जाए परन्तु तीन कृषि कानून रद्द नहीं किये जा सकते परन्तु जो पेशकश सरकार ने अब की है, वास्तव में वह सिर्फ मुंह रखाई है, नहीं तो ये कानून रद्द करने का एक सम्मानजनक रास्ता ही समझा जा रहा है। सरकार ने वास्तव में 2 वर्ष तक कानूनों पर रोक लगाने का संकेत तो दे ही दिया है। हमारी जानकारी के अनुसार, किसान संगठनों के कई नेता यह सोचते हैं कि यह पाबंदी 4 वर्ष तक लगाए जाने की मांग की जाए और 3 वर्ष तक के समय पर समझौता कर लिया जाए क्योंकि इस तरह लोकसभा चुनाव का वर्ष आ जाएगा। फिर सरकार किसानों को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकेगी। जबकि विरोधी पार्टियां तो इन कानूनों के खिलाफ किसानों साथ खड़ी ही हो चुकी हैं। फिर जो कमेटी किसानों और सरकारी प्रतिनिधियों की बनाई जानी है, उसमें चुनावों में किसानों को खुश करने के लिए कानूनों को स्थाई तौर पर रद्द करने का फैसला भी लिया जा सकता है परन्तु यह भी सच है कि किसान नेताओं में से अधिकतर इस अवसर पर समझते हैं कि सरकार पर थोड़े और दबाव की आवश्यकता है और तीनों कानून पूरी तरह रद्द करवाए जा सकते हैं। हालांकि केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की कोशिश तो यही थी कि कल की अंतिम फैसले की बैठक चाहे देर रात तक चले, की जाए और साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाश पर्व पर ही समझौता कर लिया जाए परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार किसान संगठन किसी अंतिम फैसले से पहले सभी लाभ-हानि पर विचार करना चाहते हैं और यह अच्छी बात भी है। परन्तु इस बैठक के बाद केन्द्रीय मंत्री तोमर की शारीरिक भाषा यह संकेत अवश्य देती है कि उनको इस फैसले के सफल होने का काफी विश्वास है। इस मध्य यह चर्चा भी सुनाई दी है कि वास्तव में कुछ प्रमुख किसान नेताओं के साथ सहमति के बाद ही यह प्रस्ताव पेश किया गया है। परन्तु यह प्रश्न सबसे अहम है कि सरकार आखिर झुकी कैसे? क्या 26 जनवरी की किसान ट्रैक्टर परेड के कारण ही सरकार डर गई? हम समझते हैं कि निसंदेह ट्रैक्टर परेड को लेकर सरकार किसी तरह के टकराव के डर से चिंतित तो थी परन्तु जब किसानों ने ट्रै्कटर मार्च के रूट को और समय को गणतंत्र दिवस परेड से अलग कर लिया तो इस टकराव के आसार भी काफी कम हो गए थे। हमारी जानकारी के अनुसार सिर्फ ट्रैक्टर परेड ने सरकार को एकाएक इतना बड़ा फैसला लेने पर मजबूर नहीं किया बल्कि इसके पीछे कुछ पंजाबी और सिख बुद्धिजीवियों द्वारा लगातार की जा रहीं कोशिशों और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की भी बड़ी भूमिका है। पता चला है कि आर.एस.एस. का थिंक टैंक किसी भी कीमत पर नहीं चाहता कि भाजपा के मुसलमानों के साथ टकराव के चलते सिखों में बेगानगी की भावना और बढ़े। वास्तव में आर.एस.एस. की सोच है कि सिख तो हिन्दू धर्म का ही एक हिस्सा हैं। चाहे वे समय-समय पर सिखों की अलग कौम होने की बात मान चुके हैं परन्तु वह यह प्रभाव नहीं बनने देना चाहते कि सिख हिन्दुओं से और दूर हो गए हैं। यह आन्दोलन चाहे पंजाबियों और देश भर के किसानों की मदद से ही चलाया जा रहा है परन्तु यह भी सच्चाई है कि यह आन्दोलन मूल रूप में सिख शक्ति, हौसले, सर्वसाझीवालता, सिख आचरण और साहस का ही प्रतीक है। यह भी पता चला है कि कुछ सिख बुद्धिजीवियों ने आपसी सलाह के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख को एक प्रस्ताव भेजा था कि किसानों के साथ न्याय समूचे सिख समाज में बेगानगी की भावना बढ़ा रहा है जिस पर आर.एस.एस. के थिंक टैंक ने विचार करने के बाद बिना सामने आए सरकार को हिदायत की कि सिखों से दूरी बढ़ाने से हर हालत में बचा जाए। 
समर्थन मूल्य का मामला
इस समय किसान आन्दोलन के सामने एक और खतरा भी मंडरा रहा है कि क्या किसान संगठन इस मामले पर भी पहले की तरह एकता दिखा सकेंगे या सरकार उनमें दरार डालने में सफल हो सकेगी? परन्तु यदि किसान संगठन कुछ नये बदलाव करवा कर सरकार की तीनों कानूनों संबंधी पेशकश स्वीकार कर भी लें तो भी, अभी समझौते में एक बड़ी रुकावट सामने है। वह है देश भर में से 23 फसलों को समर्थन मूल्य पर खरीदने की कानूनी गारंटी देने की मांग पर सहमति बनाने की। यदि सरकार यह मांग मानती है तो सरकार को एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक वर्ष करीब 17 लाख करोड़ रुपये की फसल खरीदनी पड़ेगी। यदि सरकार इतने पैसे का प्रबंध कर भी ले तो भी उसके लिए इतनी अधिक फसल की संभाल और ब्रिकी के साधन नहीं हैं। फिर भारतीय फसलों की क्वालिटी विदेशों में बहुत स्वीकार्य नहीं। इस लिए सभी फसलों में से अधिकतर एक्सपोर्ट किये जाने के योग्य भी नहीं होंगी जबकि कई फसलों की कीमत भी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भारत के समर्थन मूल्य से काफी कम है। इस प्रकार यदि सरकार पूरी तरह फसल खरीद कर उसकी बिक्री नहीं कर सकेगी तो अगली फसल कैसे खरीदेगी?
सरकार पहले ही पंजाब एवं हरियाणा से खरीदी जाने वाली 2 लाख करोड़ से भी कम की सरकारी खरीद से भागना चाहती है। अत: हम समझते हैं कि यदि तीन कानूनों के मामले में सरकार और किसान संगठनों के बीच कोई  सहमति बन भी जाती है तो 23 फसलों की देश भर में सरकारी खरीद की कानूनी गारंटी का पेंच बहुत बड़ा है, जो सुलझाना इतना आसान नहीं है। 
कौण डूबेगा किसे पार उतरना है ज़फर,
फैसला वक्त के दरिया में उतर कर होगा। 

-अहमद ज़फर
-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड, खन्ना
मो. 92168-60000