टूटा हुआ चश्मा

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
‘यही रहती हैं आप’ हालांकि शेखर को इस बात का पता था
‘जी’ ‘क्या कर रखा है इस लाइन में’
‘मैने ए.एन.एम. का कोर्स कर रखा है’
‘काफी व्यस्त रहती है आप’
‘जी काम तो करना ही पड़ता है’ रेखा हल्के से मुस्कराई।
‘कॉफी लेंगी’
’जी नहीं- मुझे पेशेन्टस को अटैड करना है’
इतना कह कर रेखा चली गई। शाम 4 बजे जब रेखा रिपार्ट लेने आई तो झट से शेखर ने कॉफी आर्डर कर दी।
रेखा शेखर की चाहत समझ चुकी थी। फिर तो चाय काफी के बहाने हस्पताल से बाहर भी मुलाकातें होने लगीं। शेखर ने अपने प्यार का इजहार कर दिया था जिस पर रेखा ने अपनी मौन स्वीकृति दे दी। सात जन्म तक साथ निभाने की कस्में भी खाई गई।
अगली बार जब दीनू काका और लक्ष्मी बेटे को मिलने आए तो शेखर ने मां को रेखा के बारे में बताया। मां कुछ चिन्तित-सी हो गई।
‘बेटा तूने उसके स्वभाव के बारे अच्छी तरह जान लिया है’ -मां ने पूछा
‘हां मां- मेरे साथ ही काम करती है’
‘बेटा ये शहर की लड़कियां बहुत तेज होती है’ मां ने कहा
‘नहीं मां ऐसी कोई बात नहीं है’
‘फिर भी अच्छी तरह सोच विचार ले उम्र भर का साथ है’
‘मां मैंने कहा ना- ऐसी कोई बात नहीं है’
‘मां ने चुपचाप स्वीकृति दे दी’
थोड़े समय के बाद शहर में ही एक अच्छा मैरिज पैलेस बुक कर के शादी की रस्म पूरी कर दी गई। शेखर और रेखा जीवन साथी बन गए। शादी में आए सभी रिश्तेदारों व अन्य जान पहचान वालो ने शेखर को खूब बधाइयां दी। दीनू काका ने आज भी साधारण पोशाक पहनी हुई थी। उन को बधाईर् देने वाले बहुत कम थे।
शादी के बाद तीन दिन तक गाँव में रह कर बहू-बेटा वापिस शहर आ गए। मां-बाप के सभी अरमान दिल में ही रहे जो उन्होंने बेटे की शादी के लिए देखे थे। शहर आ कर शेखर ने दो कमरों का मकान, जिस में रसोई स्नानघर, लॉबी आदि की व्यवस्था थी किराए पर ले लिया था। जान पहचान बढ़ चुकी थी। पहले वाले एक कमरे में गुज़ारा नहीं हो सकता था।
गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ी थी। छुट्टी वाले दिन दोनो प्राय: रेखा के मायके घर या कही अच्छे होटल में खाना खाने चले जाते थें। कभी-कभी घर पर दोस्तों के साथ पीने पिलाने का दौर भी चलने लगा था। आमदन अच्छी हाने के कारण मस्ती भरी ज़िन्दगी जी जा रही थी। शेखर को मां बाप जैसे भूल ही  गए  थे।
शादी के लगभग छ: माह बाद रेखा उम्मीद से हो गई। शेखर ने फोन कर के मां को बुलवा लिया ताकि रेखा के काम मे मां हाथ बँटा सके। लक्ष्मी आ तो गई किन्तु स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण उस से ज्यादा काम नहीं हो पाता था। बहू बात -बात पर टोका-टाकी करती रहती। बेचारी सरल स्वभाव की लक्ष्मी चुपचाप सब सुनती रहती दीनू काका बेटे-बहू को मिलने के लिए आए तो लक्ष्मी ने मौका देख कर बहू के स्वभाव के बारे उन को बता दिया। उन के मन में पहले से ही इस बात को लेकर संशय था। दीनू काका सुनकर बहुत खिन्न हुए।
अगले दिन सुबह जब शेखर के साथ बैठकर चाय पी रहे थे तो दीनू काका बोले.... ’ शेखर बेटा मुझे अपनी रोटी बनाना मुश्किल पड़ता है तुम कोई नौकरानी रख लो मैं तुम्हारी मां को साथ ले जाता हूं’
‘पिता जी शहर में खर्चे पहले ही बहुत हैं, ऊपर से नौकरानी का खर्च कैसे उठाया जाएगा।
‘बेटा मेरे पास कुछ जमा पूँजी है। मै तुम्हें दे देता हूं। तुम अपना मुश्किल वक्त निकाल लो’
पूँजी का नाम सुनकर शेखर ढीला पड़ गया। ‘जैसी आप की इच्छा पिता जी’
‘और हां-थोड़े दिन पहले साइकिल मरम्मत करते हुए हथौड़ी अचानक मेरे चश्मे से टकरा गई- जिस से उस का एक शीशा बीच में से क्रैक हो गया है। वो आज मुझे ठीक करवा के ला देना। कल हम चले जाएंगे।
‘कोई बात नहीं’ कहकर शेखर चला गया।
शाम को बेटे को चश्मा कहाँ याद रहना था।
अपने दिन सुबह दीनू काका और लक्ष्मी ने बहू बेटे को आशीर्वाद दिया और अलविदा कह कर गाँव की बस पकड़ ली। अब लक्ष्मी की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी। पत्नी की चिन्ता और उम्र का तकाजा-अब दीनू काका भी कमज़ोर होने लगे थे।(क्रमश:)
रेखा का प्रसव का समय नजदीक आ गया था। लक्ष्मी कुछ रोज़ पहले ही बहू की सेवा सुरक्षा करने बेटे के घर आ गई। निश्चित समय पर शेखर और रेखा के घर लड़के का जन्म हुआ। लक्ष्मी फूली नहीं समा रही थी। आस-पड़ोस बधाइयां देने आ रहे थे। दीनू काका को भी फोन पर बता दिया था। वह भी आ चुके थे। घर में चहल-पहल हो गई थी।
जन्म के छठे दिन बच्चे का नामकरण करने के लिए घर में समारोह रखा गया। सभी रिश्तेदार और जान-पहचान वाले आमंत्रित थे। हस्पताल का स्टाफ भी आया हुआ था। मन्त्रोच्चारण के साथ पंडित जी ने बच्चे का नामकरण किया। वैभव नाम रखा गया। रात के 11 बजे तक खान-पान व नाच गाना चलता रहा। उसके पश्चात् सभी मेहमान विदा हो गए। अब केवल शेखर के माता-पिता और रेखा के परिवार के सदस्य रह गए थे। सभी इकट्ठे बैठे हुए थे।
अचानक शेखर दीनू काका की ओर मुखातिब हुआ और गुस्से से बोला ’ ये क्या है पिता जी....... कम से कम आज आप ढंग के कपड़े नहीं पहन सकते थे...... और यह चश्मा..... एक नया चश्मा नहीं खरीदा गया आप से...... सब के अन्दर मेरी किरकिरी करवा दी आप ने’
दीनू काका को काटो तो खून नहीं। लक्ष्मी के चेहरे पर एक रंग आ रहा था, एक जा रहा था। दोनो उठ कर दूसरे कमरे में चले गए। देर रात तक दोनों को शेखर और उस के ससुराल वालों के हँसी ठहाके सुनाई देते रहे। लगभग सारी रात दोनो ने जाग कर बिताई।
अगली सुबह बड़ी मुश्किल से दीनू काका और लक्ष्मी ने चाय का कप गले से नीचे उतारा और उदास मन से बहू-बेटे पौत्र को आशीर्वाद देकर घर की राह पकड़ी।
घर आ कर लक्ष्मी ने चारपाई पकड़ ली। दीनू काका भी दो तीन बुखार से तपते रहे। बीच -बीच में सुनयना उन की सुध ले जाती थी। समय चक्र अभी थोड़े ही दिन चला था कि लक्ष्मी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। दीनू काका का विलाप करते-करते बुरा हाल था। बहू-बेटा गाँव आ गए थे। शाम को अन्तिम सस्कार कर दिया गया। दीनू काका अब बिल्कुल अकेले रह गए थे। सारा दिन खामोश पड़े रहते। कोई अफसोस प्रकट करने आता तो केवल हाथ जोड़ देते थे।
तेरहवें दिन लक्ष्मी की रस्म क्रिया का कार्यक्रम था। सभी रिश्तेदार गांव वाले शरीक हुए। सब ने दीनू काका को सांत्वना दी। अगली सुबह बहू-बेटा शहर लौट गए।
अब कभी-कभार दीनू काका के पास बेटे का फोन आ जाता था। औपचारिकता भर बातचीत होती थी।
एक दिन शेखर का फोन आया। कुशल क्षेम पूछने के बाद शेखर बोला-
‘पिता जी अब गाँव वाला मकान बेचना पड़ेगा।’
‘क्यो- क्यो हुआ दीनू काका ने विस्मय से पूछा।
’आप को तो पता है शहर में किराए पर रहना कितना मुश्किल काम है- मिनटों में महीना खत्म हो जाता है- अब खर्चे वैसे भी बढ़ चुके है- मै शहर में अपना मकान बनाना चाहता हूं- उस के लिए पैसों की ज़रूरत है।
‘यही गांव में अपना पुराना मकान गिरा कर दोबारा अच्छा बना लो- कम से कम जगह के पैसे तो बच जाएंगे’ दीनू काका ने समझाया।
‘नहीं पिता जी- अब मै गाँव मे नहीं रह सकता- मै आप को जैसा कह रहा हू वैसा करिए’ रूखा स्वर था शेखर का।
‘अच्छा बेटा- जैसी तुम्हारी मर्जी’ दीनू काका ने भारी मन से कहा और शून्य में ताकने लगे जैसे मन ही मन कह रहे हों-
‘बेटा मैंने अपने टूटे हुए चश्मे में से अपना भविष्य पहले ही देख लिया था। (समाप्त)