कोरोना कन्फ्यूज़, बंदा महफूज़

लो जी वैक्सीन आ गई। कोरोना ने भी साथ साथ पल्टी मार ली। अभी वैज्ञानिक सोच ही रहे थे कि कोविड के कितने कज़न ब्रदर हैं, 6 हैं या ज्यादा हैं। तभी इसके साढू मिस्टर स्ट्रेन बिन बुलाए टपक पड़े। कोरोना कन्फ्यूज़ है कि चीन में ही रहूं या ब्रिटेन का चक्कर लगा आऊं? बाइडन के देश जाऊं या ब्राज़ील हो आऊं। भारत में जनता बड़ी र्स्टंग है। कड़ाके की ठंड में भी लाखों की तादाद में सड़कों पर लेटी रहती हैए जुकाम तक नहीं होता, वहां दाल गलनी मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। जहां बिना मॉस्क, बिना दूरी बनाए लोग एक दूसरे पर चढ़े रहते  हों वहां कोरोना क्या, कोरोना का बाप भी क्या कर लेगा? अब कई तो ऐसे महानु भाव हैं जो न भगवान को मानते हैं न कोरोना को। उनका कहना है, ‘कोरोना साडा की कर लऊ? कोरोना हुंदा ही नहीं। आह सारा सरकारी प्रोपेगंडा है।’ वैज्ञानिक भी असमंजस में हैं कि कोरोना, कोविड-19 वाला है या एल है या जी है।टीके का इंतजार 11 मुल्कों के लोग ऐसे कर रहे हैं मानो वैक्सीन नहीं, किसी गरीब की जोरू आ रही हो। जिसे देखो वही लपकने को तैयार बैठा है। ‘पहले मैं, पहले मैं’ की होड़ लगी है।टीका अभी ठीक से आया नहीं, पूरी तरह आज़माया नहीं लेकिन कम्पनियां चिल्ला चिल्ला कर एक दूसरे से पूछ रही हैं, तेरी वैक्सीन मेरी वैक्सीन से अच्छी कैसे? तेरा टीका, मेरे टीके से ज्यादा चकाचक कैसे? वैक्सीन बेचारी आने से पहले ही बदनाम हो गई। कम्पनियां अभी इसका ब्रांड नाम सोच ही रही थीं कि हमारे नेताओं ने इसके जन्म से पहले ही नामकरण संस्कार कर दिया। सबने अपनी अपनी पार्टियों के अनुसार नाम रख दिए। कई महानुभावों ने इसका डी.एन.ए. तक बता दिया कि सुअर इसके दादा हैं या भेड़ इसकी माता है! टीके पर ही टीका टिप्पणी से कहीं टीका फूफे की तरह नाराज़ होकर यह न कह दे, जाओ मैं नहीं लगता। जैसे एक नेता जी ने कह दिया, ‘जाओ, मैं नहीं लगवाता।’लेकिन हम भारतीय हैं। हर हालत को भुनाने की प्राचीन कलाएं हमारी रग-रग में हैं। एक नेता जी इस चक्कर में हैं कि हम अपनी पार्टी के लिए अपना टीका अलग मेन्युफैक्चर करवाएंगे। सरकार का एहसान नहीं लेंगे। यह हमारी पार्टी का एक्सक्लूसिव होगा। यह टीका ऐसा होगा कि जिसे लगेगा वह इलैक्शन में उन्हीं के चुनाव चिन्ह पर उंगली मारेगा। किसी न किसी कम्पनी को हायर नहीं बल्कि हाईजैक कर ही लेंगे। इसे कहते हैं कस्टमजाइड दवाई।
  कुछ खुराफाती किसी कम्पनी से नपुंसक बनाने वाली वैक्सीन भी बनवा सकते हैं  क्याेंकि प्यार, वार और पालिटिक्स में सब नाजायज़ भी जायज़ माना जाता है।अभी तो वितरण का झमेला भी है। हर कोई कह रहा है, पहले हमें, पहले हमें। कोई कह रहा है, मैं तो बिल्कुल नहीं लगवाउंगा। एक बाबा तो जनता से ही उल्टा पूछ रहें हैं, भईया मैं क्यों लगवाऊं? मैं तो बाबा हूं। सरकार परेशान है कि 135 करोड़ की जनता का टीकाकरण कैसे किया जाए। जन-जन तक दवा केसे पहुंचाई जाए। एक कम्प्यूटर एकस्पर्ट ने बहुत अच्छी सलाह दी है। उसका कहना है कि वैक्सीन सभी के  व्हॉट्स ऐप पर या ई मेल पर भेज दो। एक ही किल्क में सबके पास पहुंच जाएगी जैसे किसानों के खाते में पैसा।

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