हमारे गणतंत्र के अगले दस साल 

यह गणतंत्र दिवस एक नये दशक की शुरुआत भी है। इसलिए इस म़ौके पर किया जाने वाला सोच-विचार ज़ाहिरा तौर पर अगले दस साल की राजनीति के बारे में अनुमानों से भी जुड़ा होना चाहिए। पाठकों को याद होगा कि 2011 के गणतंत्र दिवस के म़ौके पर हमारे सामने किस किस्म का राजनीतिक नज़ारा था। उस समय तत्कालीन कांग्रेस सरकार को भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के ज़रिये चुनौती देने के हालात बन रहे थे। अप्रैल में अन्ना हज़ारे के अनशन के बाद ही मनमोहन सिंह सरकार की साख गिरना शुरू हो गई थी, और तीन साल बाद इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हो गया था। तब मनमोहन सरकार सात साल पूरे कर चुकी थी। आज मोदी सरकार के भी सात साल पूरे हो चुके हैं। क्या मोदी सरकार उस समय की कांग्रेस सरकार की तरह किसी तरह की चुनौती और उसके कारण पैदा हुए संकट का सामना कर रही है? इस सवाल का जवाब एकदम स़ाफ है। निस्संदेह किसान आन्दोलन के रूप में मोदी सरकार भी अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर ही है। लेकिन, अंतर यह है कि यह चुनौती अभी तक उसके लिए किसी तरह के संकट का कारण नहीं बन पाई है। इस आंदोलन के कारण मोदी और उनकी सरकार की साख में गिरावट तो  हुई है, पर इतनी नहीं कि उसका तम्बू-डेरा उखड़ने की नौबत आ जाए। हाल ही में हुए एबीपी-सीवोटर के ‘देश का मूड’ सर्वेक्षण के आंकड़ों को अगर एक संकेतक माना जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि मोदी सरकार कई तरह की दिक्कतों की शिकार है। मसलन, भाजपा की राज्य सरकारों का प्रदर्शन थोड़ा-बहुत नहीं, बल्कि क़ाफी खराब है, लेकिन कुल मिला कर ये मुश्किलें कोई बड़ा संकट पैदा करते हुए नहीं दिख रही हैं। केंद्र सरकार की असाधारण मज़बूती राज्य सरकारों की कमज़ोरियों की भरपाई कर रही है। समझने की बात यह है कि इस सरकार ने बड़ी-बड़ी गलतियाँ की हैं। नोटबंदी जैसा बेतुका कदम उठाया है, चीन के साथ सीमा-विवाद के मामले में यह पूरी तरह से नाकाम रही है, नेपाल (जो हिंदू बहुसंख्यक देश है) के साथ भारत के संबंध अच्छे नहीं हैं, अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा हुआ है, बेरोज़गारी आसमान छू रही है, पैट्रोल और डीज़ल के दाम पहले कभी इतने ज़्यादा नहीं हुए थे, महँगाई का कोई ठिकाना नहीं है, लेकिन विफलताओं की यह संगीन सूची भी नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय छवि को खराब नहीं कर पाई है। इसका कारण क्या है? जब बड़ी-बड़ी गलतियां करने पर भी सरकार की साख न गिरे, तो उसकी कमियों के बजाय उसे बचाने वाले प्रमुख कारकों की तरफ ध्यान देना चाहिए। मेरा विचार है कि अगले दस साल में पांच प्रमुख पहलुओं के कारण इस सरकार की प्रतिष्ठा कई झटके खाने के बावजूद टिकी रह सकती है। पहला, हिंदू बहुसंख्यकवाद का एजेंडा लगातार मज़बूत होता चला जाएगा। भाजपा के विरोधी भी अपनाने के लिए मजबूर होंगे। न केवल लोकप्रिय विमर्श के स्तर पर उसकी व्यापकता बढ़ेगी, बल्कि पार्टीगत लोकतंत्र के दायरों में उसका विस्तार उन क्षेत्रों में भी होगा जिनमें अभी तक उसके कदम पूरी तरह नहीं पड़े हैं। दूसरा, लोकतांत्रिक विपक्ष भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की कार्यक्रमगत एकता बनाने में मोटे तौर पर नकारा रह सकता है। पिछले सात वर्षों का अनुभव अगर कोई संदेश देता है तो वह यही है कि राज्यों की राजनीति में भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी करने के अलावा विपक्ष के पास किसी सक्षम राष्ट्रीय योजना का अभाव है। गैर-भाजपावाद की राजनीति दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है। तीसरा, ़गरीबों और कमज़ोर जातियों (मुसलमानों समेत) की राजनीति करने वाली सामाजिक न्याय और वामपंथ की राजनीति नये दशक में पूरी तरह से वैचारिक और व्यावहारिक दिवालियेपन के साथ प्रवेश करेगी। चुनावी मैदान में किसी भी तरह की नयी ज़मीन तोड़ पाने में असमर्थ रहने और तेजी से बढ़ते हुए मध्यवर्ग की महत्वाकांक्षाओं को स्पर्श करने में अक्षम इन पार्टियों के लिए नब्बे के दशक की विजेता दावेदारियां एक गुज़री हुई याद बनती चली जाएंगी। अगर विपक्ष के पास राजनीति करने का माद्दा होता, तो इस समय वह किसान आन्दोलन के पक्ष में नागरिक मंच बना कर शहरी मध्यवर्ग का समर्थन जुटाने में लगा होता। चौथा, ऐसे एकतऱफा माहौल में गैर-पार्टी लेकिन गहरे राजनीतिक मंतव्यों से सम्पन्न आन्दोलनों की संख्या और बारम्बारता बढ़ती चली जाएगी। ध्यान रहे कि पिछले साल इन्हीं दिनों नागरिकता के सवाल पर आन्दोलन हो रहे थे (जिनकी असम में एक बार फिर से शुरुआत हो चुकी है, और जो बंगाल के चुनाव में अहम मुद्दे के तौर पर मौजूद रहेंगे)। इस वर्ष तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों ने दिल्ली का ऐतिहासिक घेरा डाला हुआ है। कोई देखना चाहे तो देख सकता है कि बेरोज़गारी के ख़िलाफ़  एक बड़ा राष्ट्रीय आन्दोलन नेपथ्य में अपनी तैयारी कर रहा है। पांचवा, कॉरपोरेट हितों और सत्तारूढ़ राजनीति हितों के बीच सीधा और खुला समीकरण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और संसाधनों के सामाजिक बंटवारे की प्रकृति का फैसला करेगा। इसका एक पहलू है कृषि कानूनों को वापस न लेने की सरकारी ज़िद, और दूसरा पहलू है आर्थिक जीवन के हर क्षेत्र के कॉर्पोरेटीकरण का निरंतर चलता हुआ अभियान।  नया लोकोपकारी मॉडल भाजपा को राजनीतिक झटकों और सदमों को पचा जाने की क्षमता प्रदान करता है। पुराने लोकोपकारी मॉडल का नमूना मनरेगा जैसा कार्यक्रम है, नये मॉडल का नमूना प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना है। पुराना मॉडल कहता है, काम की कुछ न कुछ गारंटी मिलेगी या खाद सस्ती कर दी जाएगी। नया मॉडल कहता है कि आर्थिक सहायता सीधे आपके खाते में पहुँचेगी, या बिजली-पानी म़ुफ्त अथवा बहुत कम दामों में मिलेगा। प्रेक्षकों को ध्यान होगा कि नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के तुरंत बाद पहला कदम जनधन योजना के खाते खोलने के रूप में उठाया था। दरअसल, वे नये लोकोपकारी मॉडल की अधिरचना बना रहे थे। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, ओडीशा में नवीन पटनायक और तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव भी सीधे आर्थिक सबसिडी की एक जैसी युक्तियाँ ही कुछ घुमा फिरा कर अपना रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने दिखाया है कि भले ही पश्चिमी उप्र, हरियाणा और पंजाब के किसानों ने दिल्ली घेर ली हो, वह दस करोड़ किसानों के खाते में अठारह हज़ार करोड़ रुपए एक क्षण में भेज कर उन्हें इन आन्दोलनकारी किसानों से अलग दिखा सकते हैं। यह फंडा एकदम सीधा है। जिन तबकों की आमदनी बहुत कम हो गयी है या तकरीबन शून्य है, उन्हें अगर पाँच सौ से दो हज़ार की रकम अचानक अपने खाते में आती दिखेगी, तो वे सरकार के प्रति कृतज्ञता अनुभव करेंगे ही। इस तरह की युक्तियां अर्थव्यवस्था के सम्पूर्ण कॉर्पोरेटीकरण के लिए सुरक्षित गुंजाइश प्रदान कर रही हैं। इतने बड़े आन्दोलन के बावजूद अगर सरकार राजनीतिक और सार्वजनिक छवि के मोर्चे पर सुरक्षित महसूस कर रही है, तो इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उसने अपने इर्दगिर्द राजनीतिक सहमति का कैसा पुख्ता माहौल बना रखा है।