किसान आन्दोलन नाज़ुक दौर में

दिल्ली में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर घटित घटनाक्रम ने किसान संघर्ष के उभार को निश्चय ही आघात पहुंचाया है। इससे जो संदेश गया है, वह निराशाजनक  है। किसी भी आन्दोलन को आगे बढ़ाने एवं सक्रिय रखने के लिए उस पर नेतृत्व की पकड़ मज़बूत होना आवश्यक होता है। इसकी कमी बिखराव का कारण बन जाती है। इस आन्दोलन के लम्बे समय तक चलने का एक बड़ा कारण यह रहा है कि चाहे इसमें लगभग 40 संगठन शामिल थे, परन्तु इसके बावजूद उनकी ओर से अधिकतर फैसले सामूहिक रूप से लिए जाते रहे थे।
इतने संगठनों का एक पथ पर चलना अत्याधिक कठिन सफर कहा जा सकता है परन्तु समय-समय पर सामूहिक रूप से लिए गए फैसलों ने इस सफर में तेज़ी एवं दृढ़ता को बनाए रखा परन्तु इसके साथ-साथ इन संगठनों में कुछ संगठन अपने-अपने फैसले भी लेते रहे हैं। संयुक्त संघर्ष मोर्चे से बाहर एक ऐसे किसान संगठन ने भी अपना अस्तित्व बनाए रखा जो अधिकतर फैसले अपने आप लेता रहा तथा वह अपना मार्ग भी भिन्न ही चुनता रहा है। दूसरी ओर सरकार की ओर से भी इन संगठनों के साथ हुई लम्बी बैठकों में कृषि कानूनों से संबंध में जहां स्पष्ट रूप में अपने विचार प्रस्तुत किये जाते रहे, वहीं आन्दोलन के बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए उसने इन कानूनों में आवश्यक संशोधन करने के सुझाव भी रखे। समय-समय पर वह प्रस्तावित संशोधनों को सभी के समक्ष भी रखती रही। इस काल के दौरान कुछ ऐसे पड़ाव भी आए जिनमें यह महसूस किया जाने लगा था कि यदि सरकार की ओर से प्रस्तावित इन संशोधनों को मान लिया जाता है तथा पहले जारी फसलों की खरीद व्यवस्था को कायम रखा जाता है तो इन्हें स्वीकार कर लेने में कोई संकोच नहीं होगा। समूचे रूप में हो रहे भारी नुक्सान को देखते हुए   सूझवान लोगों की ओर से भी इस मामले को सुलझाने में ही बेहतरी समझी जाती रही थी, परन्तु अधिक संगठनों के होने का कारण तथा उनमें अधिकतर के अपने-अपने विचार होने के कारण किसान संगठन समझौते की दिशा में आगे नहीं बढ़ सके तथा न ही इस संबंध में किसी परिणाम पर पहुंच सके। इनमें जो संगठन सरकार के साथ कोई समझौता करने के पक्ष में नहीं थे, संगठनों की बैठकों में उनका पलड़ा भारी रहा। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट तक का हस्तक्षेप भी बहुत प्रभावशाली नहीं हो सका क्योंकि संगठन कानूनों को रद्द करवाने की अपनी मांग पर अड़े रहे थे। जब सरकार की ओर से डेढ़ वर्ष के लिए इन कानूनों पर क्रियान्वयन रोकने एवं इनके संबंध में कोई प्रतिनिधि समिति बनाने का सुझाव दिया गया तो उस समय भी व्यापक स्तर पर यह महसूस किया जाने लगा था कि संगठनों को अपना हठ छोड़ कर सरकार के इस फैसले को मान लेना  चाहिए तथा विचार-विमर्श के माध्यम से इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ताकि पंजाब में हो रहे प्रत्येक पक्ष से नुक्सान को रोका जा सके, परन्तु संगठनों ने सरकार की ओर से कानून रद्द करने के अतिरिक्त अन्य कोई मांग न मानने तथा अपने आन्दोलन को और तेज़ करके टकराव का मार्ग अपनाया। जन भावनाओं की भावुकता एवं भारी उभार को देखते हुए किसान संगठन कोई अन्य मार्ग अपनाने के असमर्थ रहे। जिस प्रकार उनकी ओर से इस उभार को देखते हुए कड़ा रवैया अपनाया गया, उस सीमा तक बड़ा अनुशासन बनाए रखने में वे समर्थ नहीं हो सके जिसका परिणाम गणतंत्र दिवस के मौके पर दिल्ली में उत्पन्न हुए बिखराव के रूप में सामने आ चुका है।  इसने वर्तमान में तो भारी निराशा पैदा की है। आगामी समय में पंजाब में टोल प्लाज़ाओं पर धरने, बड़ी कम्पनियों की तालाबंदी एवं भाजपा नेताओं के घरों के बाहर धरने एवं उनके बहिष्कार की धमकी को ये आन्दोलन कर रहे संगठन कितनी देर तक बनाए रखेंगे तथा इसके साथ ही बड़ा राजनीतिक दलों से अपनी दूरी किस सीमा तक बनाए रख सकेंगे, यह देखने वाली बात होगी क्योंकि ऐसी स्थिति को अनिश्चित समय के लिए जारी रखना अत्याधिक कठिन होगा तथा निरन्तर इस प्रकार के आन्दोलन के कारण होने वाले नुक्सान की भरपाई करना भी संभव नहीं होगा। इसके नकारात्मक परिणाम भी स्पष्ट रूप में सामने आने शुरू हो जाएंगे। 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड के दौरान विशेष तौर पर एक संगठन के तीव्र तेवरों तथा उसके साथ जुड़े कुछ अन्य कारणों के दृष्टिगत जो कुछ घटित हुआ है, तथा उससे संघर्ष को जो आघात पहुंचा है, उससे कैसे उभरना है, तथा इसे आगे कौन-सी दिशा देना है, यह बड़ी चुनौती इस समय किसान संगठनों के समक्ष है। 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द