नए स्वतंत्रता सेनानियों की तलाश में है केन्द्र सरकार

अगले साल भारत की आज़ादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर भारत सरकार नए स्वतंत्रता सेनानियों की तलाश करने जा रही है। अब तक आधुनिक भारत के इतिहास या आजादी की लड़ाई के इतिहास में जिन स्वत्रंत्रता सेनानियों के बारे में पढ़ाया जाता रहा है या आजादी की लड़ाई से जुड़ी जिन जगहों का इतिहास बताया जाता रहा है, उससे इतर सरकार स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी नई जगहों और नए सेनानियों की तलाश करेगी। भारत के 75 साल का जश्न मनाने की शुरुआत 75 हफ्ते पहले करने का फैसला किया है। इस पूरे आयोजन का सबसे अहम सवाल यह है कि आखिर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नए लोगों और खास कर ऐसे लोगों की तलाश करने का क्या मकसद है, जो कम मशहूर हैं या जिन्हें कम लोग जानते हैं? 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक आरएसएस प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी हुकूमत के साथ जुड़ा हुआ था और इसका विरोध कर रहा था। 
पूर्व सैनिकों के लिए सेना का निर्देश
कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे किसानों को पूर्व सैनिकों के कई संगठनों ने खुले समर्थन का ऐलान किया है, और कई संगठनों ने तो यह भी कहा कि अगर किसानों की मांग नहीं मानी जाती है तो वे राष्ट्रपति से मिल कर अपने मैडल वापस करेंगे। सेना की ओर से कहा गया है कि पूर्व सैनिक वर्दी पहन कर और रिबन व मैडल लगा कर आंदोलन में शामिल नहीं हो सकते हैं। वन रैंक, वन पैंशन के आंदोलन में पूर्व सैनिक हमेशा पूरी वर्दी में शामिल हुए। इसी तरह अन्ना हजारे के आंदोलन में भी पूर्व सैनिकों ने ऐसे ही हिस्सा लिया। तब भाजपा ने ऐसे पूर्व सैनिकों को खूब गले लगाया और उन्हें चुनाव में टिकट भी दिया। पूर्व सेना प्रमुख तो रिटायर होने के साथ ही भाजपा में शामिल हो गए और केंद्र सरकार में मंत्री भी बन गए। लेकिन अब पूर्व सैनिकों के प्रदर्शन पर आपत्ति की जा रही है, जबकि यह भी पूर्व सैनिकों का ही आंदोलन है। आखिर इस देश के किसान का बेटा ही सेना का जवान है।
आंदोलन को लेकर धोखे में रही सरकार
क्या नरेन्द्र मोदी सरकार से किसानों को लेकर वही गलती हुई है, जो मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे को लेकर की थी। ध्यान रहे, अन्ना हजारे कई महीने पहले से प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख रहे थे कि वे आंदोलन करने दिल्ली आएंगे। उसी तरह जून में कृषि कानूनों को अध्यादेश के जरिए लागू किए जाने के समय से किसान इनका विरोध कर रहे थे और सितम्बर के मध्य में कानून पास होने के बाद उन्होंने सरकार को दिल्ली में 26 नवम्बर से आंदोलन करने की चेतावनी दी थी। फिर सरकार क्यों नहीं उनके आंदोलन की गंभीरता को समझ सकी? असल में सरकार इस मामले में धोखे में रही। सितम्बर में कानून पास होने के ठीक पहले तक अकाली दल सरकार के साथ था। केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल कानून को किसान के हित में बता कर समर्थन कर रही थीं। दूसरी ओर सरकार को भरोसा था कि पंजाब के किसान हरियाणा होकर ही दिल्ली में घुसेंगे और हरियाणा में भाजपा की सरकार है, जो किसानों को वहीं रोक लेगी। इसका बड़ा भारी प्रयास भी हुआ। 
वैक्सीन डिप्लोमेसी
कायदे से भारत को अपने यहां वैक्सीनेशन ठीक से करनी चाहिए थी और उसके बाद दुनिया के देशों को वैक्सीन भेजना चाहिए था, पर विश्व गुरु बनने की हड़बड़ी में भारत आधा दर्जन देशों को वैक्सीन भेज रहा है। पड़ोसी देशों को भारत ने अपनी ओर से वैक्सीन की डोज खरीद कर भेजी हैं। भारत दुनिया का पहला देश है, जो दूसरे देशों को वैक्सीन भेज रहा है। सवाल है कि इस वैक्सीन डिप्लोमेसी से क्या कुछ सधेगा? ध्यान रहे, भारत के पड़ोसी देशों में चीन ने अपनी डेट ट्रैप डिप्लोमेसी से शिकंजा कसा है। सबके यहां उसने भारी-भरकम निवेश किया है। दूसरी ओर भारत वैक्सीन की मदद भेज रहा है। यह अच्छी बात है कि भारत ने मदद की तत्परता दिखाई है। ये सारे ऐसे देश हैं, जो वायरस की मार से ज्यादा प्रभावित नहीं हुए। सो, भारत का वैक्सीन भेजना एक औपचारिकता है।
ओवैसी को मुख्य विपक्ष कौन बना रहा है?
ऐसा लग रहा है कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया एमआईएम देश में अगर मुख्य विपक्षी नहीं तो कम से कम भाजपा की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी के तौर पर उभर रही है। यह सही है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी भाजपा पर लगातार हमलावर हैं और वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी निशाना बना रहे हैं  पर एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस का आधार सिमट रहा है। इसके उलट ओवैसी का मोदी विरोध उनको मुस्लिम समाज में हीरो बना रहा है। देश की इकलौती पार्टी एमआईएम है, जिसका विस्तार हुआ है, जिसने नए राज्यों में अपना खाता खोला है। 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अचानक ओवैसी की पार्टी को आक्रामक ध्रुवीकरण का माध्यम बना लिया है। इसका फायदा भाजपा को है तो ओवैसी को भी है।