फसली विभिन्नता के लिए बासमती किस्मों का बड़ा योगदान

भूजल का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। राज्य के बहुत से ब्लाक सबमर्सीबल ट्यूबवैलों को ज़रूरत से अधिक पानी के लिए चलाने के कारण ‘स्याह ज़ोन’ में चले गए हैं। यह बड़ा चिंताजनक है। इसके बावजूद कुछ किसान आलुओं और मटरों की फसल को लेकर बहार ऋतु की मक्की की बिजाई को प्राथमिकता देते हैं। बहार ऋतु की मक्की के अप्रैल-मई-जून में होने के कारण अधिक पानी की आवश्यकता होती है। किसान अधिक उत्पादकता के लिए हाईब्रिड बीज लगाते हैं, जिन्हें बहुत ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है। आईसीएआर-भारतीय कृषि खोज संस्थान एवं पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी से सम्मानित इनोवेटिव प्रगतिशील किसान बलबीर  सिंह जड़िया, धर्मगढ़ (अमलोह) में अपनी तथा ठेके पर ज़मीन लेकर 45 एकड़ पर कृषि करता है, परन्तु मक्की सिर्फ पशुओं का चारा-अचार बनाने के लिए लगाता है। जड़िया कहते हैं कि मक्की को कम से कम 20 पानी लगाने पड़ते हैं और इसकी काश्त पर खर्चा भी बड़ा आता है। मक्की की काश्त से भूजल का स्तर और भी नीचे चला जाता है। जड़िया कहते हैं कि मक्की के  मंडीकरण का भी कोई प्रबंध नहीं। किसानों ने 800 रुपये प्रति क्विंटल तक मक्की मंडी में बेच कर घाटा सहन किया है।  मक्की की काश्त पानी की बचत करने के लिए फसली-विभिन्ता लाने का समाधान नहीं। बहुत-से किसान फिर बहार ऋतु की मक्की की फसल काटने के बाद धान लगाते हैं, जिसकी पानी की ज़रूरत और भी अधिक है। पानी का स्तर नीचे जाने के अतिरिक्त बिजली की भारी खपत और इस पर किये जा रहे खर्चे को भी ध्यान में रखना पड़ेगा। जड़िया मक्की की काश्त करने की अपेक्षा गर्म ऋतु की मूंगी की फसल लेने की सिफारिश करते हैं। मूंगी की फसल 60-65 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है, जबकि बहार ऋतु की मक्की 120 दिन लेती है। मूंगी की फसल के लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता है। 
खरीफ के मौसम में पानी की बचत के लिए किसानों के बासमती की काश्त करनी चाहिए। बासमती की फसल जुलाई में लगाई जाती है, जिसे पानी का आवश्यकता बहुत कम है। बारिशें शुरू होने के कारण यह बरसात के पानी से ही पक कर तैयार हो जाती है। आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली ने पानी की बचत के लिए और किसानों के अधिक लाभ लेने के पक्ष से थोड़े समय में पकने वाली बासमती की किस्म पूसा बासमती-1692 विकसित की है। बासमती के विश्व प्रसिद्ध इस किस्म के ब्रीडर डा. अशोक कुमार सिंह (डायरैक्टर आईसीएआरआई एआरआई नई दिल्ली) कहते हैं कि यह किस्म पकने को 115 दिन लेती है। जबकि पूसा बासमती-1509 किस्म 120 दिन में पकती है। इसका औसत उत्पादन 5.26 टन प्रति हैक्टेयर है, जबकि इसमें 7.35 टन प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन देने की शक्ति है। इस तरह इस किस्म का उत्पादन पूसा बासमती-1509 से 5 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर अधिक है। पूसा बासमती 1121 से इस का उत्पादन 18.18 प्रतिशत तक अधिक आया है। हरियाणा बासमती 2 पर  सीएसआर 30 किस्मों के मुकाबले अधिक उत्पादन में 20.77 प्रतिशत तक ऊपर है। डा. अशोक कुमार सिंह कहते हैं कि यह किस्म पूसा बासमती-1121 से अधिक उत्पादन देती है और इसके चावल पूसा बासमती-1509 के मुकाबले अच्छे हैं। चावलों की 70 प्रतिशत तक प्राप्ति होती है। इसके चावल बड़े लम्बे (8.44 एम.एम.) जो उबालने पर 17 एम.एम. लम्बे हो जाते हैं।  आईसीएआर भारती कृषि अनुसंधान संस्थान की ओर से पूसा कैम्पस नई दिल्ली में 25 फरवरी से 27 फरवरी तीन दिवसीय कृषि विज्ञान मेला आयोजित किया जा रहा है। इस मेले में किसानों को पूसा की भिन्न-भिन्न किस्मों के बारे में जानकारी दी जाएगी तथा दिखावे के प्लांटों और किस्मों की कारगुज़ारी का विश्लेषण करवाया जाएगा। किसान वैज्ञानिकों के साथ विचार-विमर्श कर सकें गे। डा. गोपाल कृष्ण पूसा बासमती-1692 किस्म बारे किसानों को जानकारी देंगे।