पंजाब नगर निकाय चुनाव नतीजों के संकेत क्या मोदी का तिलिस्म समाप्त हो रहा है ?

भारत गांवों का देश तो है ही, यह चुनावों का भी देश है। हमेशा कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। भारत में ़ित्रस्तरीय सरकारें निर्वाचित होती हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों के गठन के लिए चुनाव तो होते ही हैं, स्थानीय निकायों के चुनाव भी होते रहते हैं। स्थानीय निकायों के चुनाव गांवों के लिए भी होते हैं और शहरों के लिए भी होते हैं। अभी अभी पंजाब के नगर निकायों के चुनाव हुए। 8 महानगरों के निगमों के चुनाव हुए और उनके साथ ही 109 नगरपालिकाओं और नगरपंचायतों के भी चुनाव हुए। ये चुनाव किसानों के आन्दोलन के बीच हुए और यह किसी से छिपा हुआ रहस्य नहीं है कि ये किसान आन्दोलन हरित क्त्रांति की भूमि में सबसे ज्यादा तेज हैं। इसे पंजाब के किसानों ने शुरू किया और यह अभी पंजाब के साथ साथ हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा तीव्र हैं, हालांकि कमोबेश यह पूरे देश में चल रहा है।
पंजाब में चुनाव हो रहे थे और किसान आन्दोलन वहां अपने प्रबल दौर में है। जाहिर है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए ये चुनाव परीक्षा की घड़ी जैसे थे। वैसे यह भी सच है कि किसान गांवों में होते हैं। शहरों से भी उनका व्यापारिक और सामाजिक रिश्ता होता है, लेकिन शहरों के मतदाता आमतौर पर किसान नहीं होते। इसलिए यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए पहले से ही हारा हुआ चुनाव नहीं था। 
पंजाब के शहरों में भारतीय जनता पार्टी अपने जनसंघ के दिनों से ही मजबूत रही है। सच कहा जाये तो आज़ादी के पहले पंजाब में ही हिन्दू महासभा का प्रदेश स्तरीय संगठन बना था और बाद में उसी ने अखिल भारतीय रूप लेकर अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का नाम पाया। यानी जिस हिन्दुत्व की राजनीति भारतीय जनता पार्टी करती आ रही है, उसकी उर्वरक जमीन पंजाब में करीब 125 सालों से है और यह शहरों में ही है।
यही कारण है कि कांग्रेस के खिलाफ  यदि कोई अन्य पार्टी वहां चुनाव जीतना चाहती, तो उसकी पसंद भाजपा से गठबंधन करना हुआ करती थी, क्योंकि भाजपा शहरों में मजबूत उपस्थिति रखती है। अकाली दल से भाजपा का जो गठबंधन होता था, उसमें भी यही फार्मूला होता था कि अकाली दल ज्यादातर गांव के क्षेत्रों से चुनाव लड़ेगा और भारतीय जनता पार्टी शहरों से ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इस बार अकाली दल भाजपा के साथ नहीं था। किसान कानूनों के मसलों पर ही यह गठबंधन टूटा था। इसलिए भाजपा इस बार अकेले ही चुनाव लड़ रही थी। इसके कारण इसकी जीत की संभावना कम ही थी, लेकिन यह देखा जा रहा था कि यह कैसा प्रदर्शन करेगी।
कह सकते हैं कि पंजाब के शहरों से भाजपा का सूपड़ा पूरी तरह साफ  हो गया है। एक भी नगर निकाय के प्रमुख पद पर उसका कब्जा नहीं हो सका। यानी उसका प्रदर्शन शून्य रहा। वैसे कुछ नगरों के वार्डों में उसके उम्मीदवार जीते भी हैं, लेकिन वे नाम मात्र के ही हैं। उसकी हार बहुत ही बड़ी है और हार का विश्लेषण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि किसानों ने भाजपा को हरा दिया, क्योंकि शहरों में किसान होते ही नहीं। हां, हम कह सकते हैं कि किसान आन्दोलन के कारण उपजे माहौल ने भाजपा को हरा दिया। 
शहरी मध्य वर्ग, सफेदपोश लोग और व्यापारी वर्ग पंजाब में ही नहीं, बल्कि देश के अधिकांश हिस्सों में भाजपा के कोर जनाधार रहे हैं। उसी के इर्द-गिर्द भाजपा ने अपना आधार और बढ़ाया। वह मध्यवर्गीय मुखर आधार भाजपा का सिर्फ  मतदाता आधार नहीं रहा है, बल्कि वह मत निर्माण में भी काम करता रहा है। लेकिन पंजाब नगर निकायों के नतीजे बताते हैं कि लोग भाजपा से दूर जा चुके हैं और जा रहे हैं।
भाजपा की यह हार कोई साधारण हार नहीं है। उसके लिए यह चुनाव भी कोई साधारण चुनाव नहीं था। सबसे पहले तो उसके चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त उम्मीदवार ही नहीं मिले। कुल 2303 पदों के लिए चुनाव हो रहे थे, लेकिन वह मात्र 670 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार दे पाई। वैसे कुछ विश्लेषक 1000 का आंकड़ा भी दे रहे हैं, लेकिन सच यही है कि कुल 670 उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर लड़ने के लिए तैयार हुए। 670 उम्मीदवार खड़े तो हो गए, लेकिन उनमें से अनेक चुनाव प्रचार भी नहीं कर पाए, क्योंकि लोग उनके साथ मारपीट कर रहे थे। उन्हें अपमानित किया जा रहा था। लोकतंत्र में ऐसा होना नहीं चाहिए, लेकिन यह हो रहा था। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पर भी हमले किए गए। पुलिस का उन्हें संरक्षण भी मिला, फिर भी हमले होते रहे। यह नहीं कह सकते कि यह सब किसान कर रहे थे, क्योंकि किसान शहरों में नहीं होते। शहर के स्थानीय लोग ही भाजपा का विरोध कर रहे थे। अनेक ने तो अपने दरवाजों पर लिखकर पर्ची लगा रखी थी कि भाजपा के उम्मीदवार कृपया दरवाजा नहीं खटखटाएं। 
जाहिर है, किसान आन्दोलन ने अन्य वर्गों के लोगों को भी सरकार के प्रति सशंकित कर दिया है। उन्हें भी अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा है, क्योंकि वे सरकार की अन्य नीतियों को भी अब अपने नजरिए से देखने लगे हैं, गोदी मीडिया के नजरिए से नहीं। और यही कारण है कि पंजाब में भाजपा को जबर्दस्त हार का सामना करना पड़ा है और इसे पंजाब तक सीमित करके देखना उचित नहीं होगा। मीडिया द्वारा जनमत को अपने पक्ष में करने की मोदी सरकार और भाजपा की रणनीति अब लोगों की समझ में आ गई है, जिसके कारण मोदी का तिलिस्म अब टूट रहा है। जाहिर है, राजनीति का एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। (संवाद)