आत्मघात जैसी रणनीति है फसल बर्बाद करना

होशियारपुर (पंजाब) के गांव मुहद्दीपुर में 70-वर्षीय किसान जगतार सिंह के पास सिर्फ  एक एकड़ की खेती थी, जो जाहिर है, उनके परिवार को अच्छा जीवन तो क्या, उसका पेट भरने के लिए भी पर्याप्त नहीं थी। इसलिए उन पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था और नये तीन कृषि कानूनों के आने के बाद से उन्हें यह डर सताने लगा था कि जमीन का इतना छोटा टुकड़ा भी अब उनके पास शेष नहीं रहेगा। इसी आर्थिक तंगी व डर के कारण उन्होंने व उनके 42-वर्षीय पुत्र कृपाल सिंह ने 20 फरवरी 2021 की सुबह अपने गांव में ही, पुलिस के अनुसार, कोई ज़हरीला पदार्थ खाकर खुदकुशी कर ली। पिता-पुत्र के घर से जो आत्महत्या नोट पुलिस को मिला है, उसमें यह जानलेवा कदम उठाने के दो कारण बताये गये हैं। एक, उन्होंने पंजाब की कांग्रेस सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने कृषि ऋण माफ  करने का अपना वायदा पूरा नहीं किया है, जिससे उनके ऊपर कर्ज की रकम निरंतर बढ़ती रही। दूसरा यह कि वे इस बात को लेकर बहुत चिंतित व तनाव में हैं कि केंद्र की मोदी सरकार किसानों के धरनों व प्रदर्शनों के बावजूद तीनों नये कृषि कानूनों को रद्द नहीं कर रही है।
बिजनौर (उत्तर प्रदेश) में 20 फरवरी 2021 को ही एक 27-वर्षीय किसान ने केंद्र के तीनों कृषि कानूनों के विरोध में सार्वजनिक तौरपर अपनी छह बीघा जमीन पर तैयार गेहूं की फसल को नष्ट कर दिया। सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल होने वाली एक वीडियो क्लिप में देखा जा सकता है कि बिजनौर के चांदपुर तहसील के गांव कुल्चना में किसान सोहित अहलावत अपनी गेहूं की खड़ी फसल पर ट्रैक्टर चलाते हुए उसे नष्ट कर रहे हैं। वीडियो में अहलावत को यह कहते हुए सुना जा सकता है, ‘आप मेरी गेहूं की खड़ी फसल को देख सकते हो। मैं किसान आन्दोलन के समर्थन में इसे सबके सामने नष्ट कर रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि ये तीनों काले कानून हम पर थोपे जाएं। एक बार अगर ये अनावश्यक कानून लागू हो गये तो किसानों का शोषण होगा, क्योंकि न एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) है और न पेमेंट की सुरक्षा। उस फसल को क्यों उगाया जाये जिससे आने वाले दिनों में हमारा शोषण होगा। इस तरह मेरे परिवार ने बिजनौर से सरकार को एक संदेश दिया है।’  
गौरतलब है कि इस घटना के एक दिन पहले एक महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने किसानों से आग्रह किया था कि वे आन्दोलन को महत्व दें और अगर आवश्यकता पड़े तो अपनी एक साल की फसल को कुर्बान कर दें। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि तीनों नये कृषि कानूनों को रद्द कराने के लिए खुदकुशी करना या खड़ी फसलों को नष्ट करना कोई समझदारी नहीं है और न ही कोई अच्छी रणनीति है बल्कि ऐसा करना तो अपराध के दायरे में आता है। दरअसल कोई विचार, कोई व्यक्ति या कोई आन्दोलन इतना महत्वपूर्ण नहीं होता है कि उसके लिए जान दी जाये (या ली जाये) या पैसे व मेहनत से तैयार की गई फसल को बर्बाद किया जाये। ऐसा करना तो बेवकूफी में शुमार होता है। इसलिए राकेश टिकैत ने अहलावत की वीडियो देखने के बाद कहा कि उन्हें यह देखकर बहुत दु:ख हुआ है। 
लेकिन साथ ही वह यह कहना नहीं भूले, ‘अगर सरकार हम किसानों की बात नहीं सुनेगी तो और भी किसान यह कदम उठा सकते हैं... सरकार ने हमें ऐसी स्थिति में धकेल दिया है कि किसान अपनी फसलें नष्ट कर रहे हैं, जोकि अच्छा नजारा नहीं है।’ वीडियो देखकर राकेश टिकैत को व्यक्तिगत दु:ख हुआ है। शायद इसी वजह से उन्होंने अपने बयान पर सफाई देते हुए कहा है, ‘जब मैंने किसानों से कहा था कि वे अपनी एक सत्र की फसल को कुर्बान करने के लिए तैयार रहें, तब मेरा मतलब यह (नष्ट) नहीं था। इस तरह नुकसान का मतलब नहीं बनता है।’ बहरहाल, अहलावत के इस प्रतीकात्मक विरोध को उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने बहुत गंभीरता से लिया है। स्थानीय प्रशासन से कहा गया है कि वह सतर्क रहे और हर किसी से बात करे कि वे ऐसी हरकत न करें। 
संभवत: अन्य किसानों को हतोत्साहित करने के लिए पुलिस ने अहलावत को ‘तंग’ करना शुरू कर दिया है। यह आरोप लगाते हुए भारतीय किसान यूनियन की युवा शाखा के राज्य अध्यक्ष दिगंबर सिंह का कहना है, ‘किसान सरकार और पुलिस के सामने झुकने वाले नहीं हैं।’ अपनी मांगें मनवाने के लिए आन्दोलनों के दौरान नापसंदीदा कदम भी उठा लिए जाते हैं। वीपी सिंह सरकार ने जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था तो दिल्ली की सड़कों व अन्य जगहों पर आरक्षण का विरोध करने के लिए बहुत से युवाओं ने आत्मदाह करना शुरू कर दिया था। सबसे पहले राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह करने का ‘नाटक’ किया था, जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था, लेकिन ‘नाटक’ दुर्घटना में बदल गया, जिससे वह इस हद तक जल गया कि काफी इलाज के बाद भी उसे बचाया न जा सका। 
मगर उसकी हरकत से ऐसी आग लगी कि बहुत से युवाओं ने वास्तव में आत्मदाह कर लिया था। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलने लगा था। इसलिए अहलावत के प्रतीकात्मक विरोध की चिंगारी भी आग में परिवर्तित हो सकती है, खासकर इसलिए कि सरकार कृषि कानूनों को वापस न लेने के निरंतर संकेत दे रही है, जिसकी नवीनतम कड़ी यह है कि पंजाब व हरियाणा को आदेश दिया गया है कि अगले सत्र से जो फसलें एमएसपी पर खरीदी जायें, उनका पेमेंट सीधा ऑनलाइन किसानों के खाते में डाला जाये। यह आढ़तियों के विरुद्ध ‘स्ट्राइक’ है, जिन्हें सरकार किसान आन्दोलन का कारण मानती है। सरकार को लगता है कि अगर आढ़तियों की कमर तोड़ दी जाये तो किसान आन्दोलन स्वत: समाप्त हो जायेगा।
बहरहाल, सरकार की इस रणनीति (जिसके तहत पहले पंजाब के आढ़तियों पर छापे भी डलवाए गये थे)में कोई खास दम नज़र नहीं आता नहीं है, क्योंकि जहां मंडी व्यवस्था खत्म हो चुकी है (मसलन बिहार में 2006 में मंडी व्यवस्था खत्म हुई थी) वहां भी किसान शोषित व तंगी में हैं; क्योंकि किसान चाहे छोटे हों या बड़े, उनकी समस्या मंडी नहीं बल्कि अपनी फसल का उचित दाम न मिल पाना है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि किसान आत्महत्या करने या फसल नष्ट करने जैसे आत्मघाती व आपराधिक तरीकों को बिलकुल न अपनाएं, केवल लोकतांत्रिक व शांतिपूर्ण तरीकों (जैसा कि वे अब तक करते आये हैं) से अपनी मांगों को मनवाने का प्रयास करें। सरकार को भी चाहिए कि वह तीनों कृषि कानूनों को रद्द कर दे, किसान प्रतिनिधियों व अन्य पक्षों से विचार-विमर्श करके नये सिरे से कृषि सुधार कानून लाये जिनमें एमएसपी की भी कानूनी गारंटी हो। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर