भारतीय संस्कृति एवं आस्था का पर्वत मंदार 

बांका (बिहार) के बौंसी में स्थित मंदार पर्वत आज भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की जीवंत परम्परा के साक्षी के रूप में अविचल खड़ा है। यह न केवल धार्मिक विशिष्टता अपितु ऐतिहासिक महत्ता के लिए भी प्रसिद्ध है। प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के व्यापक चिन्ह मंदार में बिखरे पड़े हैं। अतीत से अद्यतन इस धरा पर आस्था और विश्वास की भगीरथ धारा निरंतर प्रवाहमान है। इस मनोरम स्थल पर अवस्थित देवी-देवताओं के मंदिर, सीता कुंड, पुष्करणी (पापहरणी) तालाब, नरसिंह गुफा, राम झरोखा, मधुसूदन विश्रामास्थली, महाराणा बांध, भरतमुनी गुफा, त्रिशिरा मंदिर भग्नावशेष, आकाशगंगा, सर्पचिन्ह, छिन्नमस्तिका प्रतिमा आदि की धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर के रूप में विशिष्ट पहचान है। ऐतिहासिक-पौराणिक आख्यानों में मंदार पर्वत का वर्णन विविध रूपों में है। इतिहासकारों ने मंदार पर्वत के आस-पास के क्षेत्र को आर्यों एवं अनार्यों की कर्मस्थली माना है। मंदार क्षेत्र में आर्य एवं अनार्य समान रूप से शिवलिंग की आराधना करते थे। मुख्य रूप से शिवलिंग की पूजा के कारण ही मंदार के विश्वनाथ, देवघर के वैद्यनाथ और बासुकीनाथ के नागनाथ से घिरे क्षेत्र को ‘त्रिलिंग देश’ कहा जाता था। आज भी इस क्षेत्र के जनजाति समुदाय के लोग स्वयं को असुर मधु का वंशज मानते हैं तथा मकर संक्रांति के दिन उसकी पूजा करते हैं। दरअसल मधु और कैटभ दो असुर भाई थे। इनसे परेशान होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से उनका अंत करने की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने कैटभ का अंत सरलता से कर दिया लेकिन मधु के साथ कई वर्षों तक युद्ध करने के पश्चात उसका अंत करने में सफल हुए। मधु का सिर काटकर भगवान विष्णु ने मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया ताकि फिर कभी वह किसी को परेशान न कर सके। पर्वत पर उकेरी गई मधु के सिर की आकृति उसकी वीरता की कहानी कहती है जो एक महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है। कहा जाता है कि मधु का अंत करने के कारण भगवान विष्णु मधुसूदन कहलाए। मंदार पर्वत की उत्पत्ति के बारे में कोई वास्तविक घटना ज्ञात नहीं हो सकी है। लगभग दो किलोमीटर व्यास क्षेत्र में फैले हुए नीले रंग के एक ही ग्रेनाइट पत्थर से बने इस पर्वत की ऊंचाई 700 फीट है। मंदार पर्वत का स्कन्द पुराण के काशीखण्ड में माहात्म्य अध्याय के अंतर्गत वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त विष्णु, वराह, कुर्म वामन और शिवपुराण में भी इसका वर्णन है। महाभारत के अनुशासन, वाण एवं शांति पर्वों में भी मंदार पर्वत का उल्लेख है। चिर और चांदन नदी के मध्य स्थित मंदार पर्वत का विष्णु पुराण में इस प्रकार वर्णन मिलता है।विष्णु पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के समय मंदार पर्वत का प्रयोग मथनी के रूप में हुआ था। समुद्र मंथन के पश्चात् चौदह रत्नों के रूप में कामधेनु, ऐरावत हाथी, कौस्तुभमणि, उच्चौ:श्रवा घोड़ा, वारुणी कन्या, रंभा अप्सरा, लक्ष्मी, पारिजात वृक्ष, मदिरा, कल्पद्रुम, चन्द्रमा, अमृत, विष और शंख प्राप्त हुए थे। ऐसा कहा जाता है कि मंदार पर्वत के ऊपर जो विशाल शंख स्थित है, वह समुद्र मंथन से प्राप्त शंख है तथा महादेव ने इसी शंख से विषपान किया था। पुराणों के अनुसार देव एवं असुर मंदार को उठाकर समुद्र ले गये थे तथा वासुकीनाग को लपेटकर समुद्र मंथन किया था। पर्वत के चारों ओर स्थित चिन्हों को वासुकी नाग का चिन्ह माना जाता है। मंदार का शाब्दिक अर्थ स्वर्ग होता है किन्तु मंदार पर्वत का नामकरण मंदार ऋषि के नाम पर हुआ है। ऐसी मान्यता है कि यहां भगवान विष्णु स्थायी रूप से विराजमान रहते हैं। पौराणिक ग्रंथों में मंदार पर्वत के व्यास गुफा में वेदों को लिपिबद्ध करने का प्रमाण मिलता है। प्रकृति के इस अद्भुत उपहार का दर्शन करने के उद्देश्य से चैतन्य महाप्रभु यहां आये थे तथा स्वामी विवेकानंद भागलपुर जाने के क्र म में यहां रुके थे। मंदार पर्वत पर स्थित भगवान भास्कर, वराह, नरसिंह, कमला, दुर्गा, सरस्वती, भैरव आदि की खंडित प्रतिमाएं कालाचन्द यानी ‘काला पहाड़’ का स्मरण दिलाती हैं।धार्मिक तौर पर ऐसा विश्वास है कि मकर संक्रांति के दिन मंदार पर्वत की तलहटी में स्थित पापहरणी तालाब में स्नान एवं तिलदान करने से पापों का नाश होता है तथा पुण्य की प्राप्ति होती है। अंग्रेज इतिहासकार बुकानन ने इस तालाब से मुग्ध होकर इसे ‘मनोहर कुंड’ नाम दिया। इस पापहरणी या पुष्करणी तालाब के निर्माण के संबंध में इतिहासकारों का मत है कि इसे सातवीं शताब्दी में राजा आदित्यसेन की पत्नी रानी महादेवी कोण देवी ने बनवाया था। किंवदंती है कि चोल राजा छत्रसेन कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। वह एक बार तीर्थाटन के लिए मंदार आये तथा पुष्करणी तालाब में स्नान किया। स्नान करने के पश्चात उन्हें कुष्ट रोग से मुक्ति मिल गयी तथा उनका कायाकल्प हो गया । कहा जाता है कि उसी दिन से इसका नाम पापहरणी तालाब पड़ गया। इस पर्वत पर स्थित मंदिर एवं शिलालेख प्राचीन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना हैं। वैसे तो मंदार पर्वत पर प्रतिदिन भक्तों की भीड़ जुटी रहती है लेकिन विशेषकर मकर संक्रांति के अवसर पर लगने वाले मेले में भक्तों एवं पर्यटकों  का जमघट बना रहता है। विदेशी पर्यटक भी काफी संख्या में आते हैं। एक माह तक चलने वाला यह मेला आधुनिकता और उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से अछूता नहीं है । इसके बावजूद मेले में आज भी भारत की प्राचीन आत्मा स्पष्ट  दृष्टिगोचर होती है । आध्यात्मिकता और भौतिकता का अद्भुत  समन्वय इस मेले में देखा जा सकता है। वस्तुत: विविधता के  विभिन्न आयामों को समेटे हुए मंदार पर्वत की ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान आज भी अविचल अविच्छिन्न है। (उर्वशी)