सब नंगे हैं राजनीतिक भ्रष्टाचार के हमाम में-1

अभी कुछ दिन पहले तक सचिन वाझे का नाम हमने-आपने सुना भी नहीं था। आज स्थिति यह है कि इस व्यक्ति के कारण महाराष्ट्र की गठजोड़ सरकार संकट में पड़ी हुई है। मुम्बई पुलिस में सहायक पुलिस इंस्पेक्टर (एएसआई) के साधारण पद पर काम करने वाला यह व्यक्ति हत्या, साज़िश और ़गैरकानूनी वसूलियों जैसे आरोपों के कारण न्यायिक हिरासत में है। इसके कारनामों के कारण मुम्बई के पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह का पद छीन लिया गया है। परमवीर ने महाराष्ट्र के गृहमंत्री पर आरोप लगाया है कि वह सौ करोड़ रुपये प्रति माह की वसूली करने के लिए दबाव डाल रहे थे। ज़ाहिर है कि वाझे और उन जैसे पुलिसिये इसी काम में लगे हुए थे। 
अगर इस दबाव के चलते वाझे ने देश की सर्वोच्च वित्तीय हस्तियों में एक मुकेश अम्बानी से क्रिप्टो करेंसी में बड़ी रकम ऐंठने की साज़िश न की होती, तो राजनीतिक भ्रष्टाचार के इस प्रकरण का पर्दाफाश न होता। यह पता नहीं चलता कि सचिन वाझे किस किस्म का एनकाउंटर स्पेशलिस्ट था, और यह कि उसकी गोलियों से 67 लोगों की जान गई है। इन ‘मुकाबलों’ को नॉन जुडीशियल किलिंग की संज्ञा भी दी जा सकती है। हम यह भी नहीं जान पाते कि एक निर्दोष मुसलमान युवक की हिरासत में मृत्यु होने पर वाझे को मुअत्तिल किया गया। फिर उसने नौकरी छोड़ दी, टीवी एक्सपर्ट और लेखक बन गया। इसके बाद वाझे को कोविड ड्यूटी के लिए पुलिसवालों की किल्लत पड़ जाने की दलील के आधार पर नौकरी में वापिस लिया गया हालांकि वाझे को कभी कोविड ड्यूटी पर नहीं लगाया गया। बजाय इसके उसे सीधे ‘हाई प्रोफाईल’ केसों पर लगा दिया गया। टीआरपी घोटाले का इंचार्ज भी वही था, और अर्णब गोस्वामी को गिरफ्तार करने गई टीम का नेतृत्व भी वही कर रहा था। ये सभी मामले विचार करने काबिल हैं, क्योंकि इनके आधार पर हमारे लोकतंत्र के दामन पर काले द़ाग लगते हैं। 
मेरा विचार है कि इन सभी के केन्द्र में राजनीतिक भ्रष्टाचार का प्रश्न है। भले ही इस प्रकरण पर मुम्बई के माहौल और राजनीति की छाप है, लेकिन ऐसे सचिन वाझे (केवल पुलिस नहीं, अन्य प्रशासनिक अ़फसर भी) और राजनीतिक म़कसदों से की जाने वाली वसूलियां हर राज्य में की जाती हैं। हर डिपार्टमेंट के लिए वसूलियों के कोटे तय किये जाते हैं। इस तरह जमा किये जाने वाले धन से चुनाव लड़ा जाता है। एक चुनाव खत्म होते ही दूसरे चुनाव की तैयारी शुरू कर दी जाती है, और उस तैयारी का ़खास पहलू इसी तरह का धन जमा करना होता है। मुम्बई पुलिस से प्रति माह लिये गये सौ करोड़ रुपयों से भी चुनावी राजनीति ही होनी थी। और, यह मान लेना नादानी होगी कि इस तरह की वसूली करने वाले सचिन वाझे प्रकरण दोबारा नहीं होंगे। मैं तो मानता हूँ कि इस भेद के खुलने के बावजूद ऐसी वसूलियां जारी रहेंगी। दूसरे राज्यों में भी यही सब चल रहा होगा। ऐसे भेद और भी खुल जाएं, तो भी यह सिलसिला नहीं रुकने वाला है। दरअसल, यह तंत्र इसी तरह से चलता है, और चलता रहेगा। वाझे के पास नोट गिनने की एक मशीन मिली थी। 
दरअसल, इस हमाम में सब नंगे हैं। मलेशियाई समाजशास्त्री सैयद हुसैन अलातास ने राजनीतिक भ्रष्टाचार के कुछ लक्षणों का उल्लेख किया है जिनके आधार पर इस परिघटना की एक परिभाषा दी जा सकती है। अलातास के अनुसार ऐसे भ्रष्टाचार में एक से अधिक व्यक्तियों का सम्मिलित होना अनिवार्य है, क्योंकि अकेले व्यक्ति द्वारा किया हुआ व्यवहार धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है। अलातास मानते हैं कि साधारणत: भ्रष्टाचार गोपनीयता की आड़ में किया जाता है।  यह परिभाषा इस लिहाज़ से उपयोगी है कि इसके ज़रिये व्यक्तिगत रूप से की जाने वाली चालबाज़ियों, मूल्यहीनताओं, अनैतिकताओं, जालसाज़ियों, ़गबन इत्यादि को भ्रष्टाचार की श्रेणी से अलग किया जा सकता है। इसके बाद जो भ्रष्टाचारण बचता है, उसकी जड़ सरकारी तंत्र, नेटवर्किंग और त़ाकतवर लोगों की मिली-जुली साज़िश में चिह्नित करना आसान हो जाता है। 
भ्रष्टाचार की कई ़िकस्में और डिग्रियां हो सकती हैं लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज और व्यवस्था को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। अगर उसे संयमित न किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बन सकता है। मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी को, किसी को कम तो किसी को ज़्यादा, लाभ पहुंचा रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग न हो कर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं। 2004 की ग्लोबल करप्शन रिपोर्ट के मुताब़िक इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो, ़िफलीपींस के राष्ट्रपति मार्कोस, ज़ैरे के राष्ट्रपति मोबुतो सेकू, नाइजीरिया के राष्ट्रपति सानी अबाका, सरबिया के राष्ट्रपति मिलोसेविच, हैती के राष्ट्रपति डुवेलियर और पेरू के राष्ट्रपति फुजीमोरी ने अरबों डॉलर तक की ऱकम का भ्रष्टाचार किया।
 ये भ्रष्ट नेता बिना नौकरशाही की मदद के सरकारी धन की यह लूट नहीं कर सकते थे। ़़़खास बात यह है कि इस भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट पूंजी की भूमिका भी होती है। बाज़ार की प्रक्रियाओं और शीर्ष राजनीतिक-प्रशासनिक मुकामों पर लिए गये निर्णयों के बीच साठगांठ के बिना यह भ्रष्टाचार इतना बड़ा रूप नहीं ले सकता। आज़ादी के बाद भारत में भी राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की यह परिघटना तेज़ी से पनपी है। एक तरफ शक किया जाता है कि बड़े-बड़े राजनेताओं का अवैध धन स्विस बैंकों के ़खुफिया ़खातों में जमा है, और दूसरी तरफ तीसरी श्रेणी के क्लर्कों से लेकर आईएएस अ़़फसरों के घरों पर पड़ने वाले छापों से करोड़ों-अरबों रुपये बरामद होते हैं। 
राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार को ठीक से समझने के लिए अध्येत्ताओं ने उसे दो श्रेणियों में बांटा है। सरकारी पद पर रहते हुए उसका दुरुपयोग करने के ज़रिये किया गया भ्रष्टाचार और राजनीतिक या प्रशासनिक हैसियत को बनाए रखने के लिए किया जाने वाला भ्रष्टाचार। निजी क्षेत्र को दिये गये ठेकों और लाइसेंसों के बदले लिया गया कमीशन, हथियारों की ़़खरीद-बिक्री में लिया गया कमीशन, ़फर्जीवाड़े और अन्य आर्थिक अपराधों द्वारा जमा की गयी रकम, टैक्स-चोरी में मदद और प्रोत्साहन से हासिल की गयी रकम, राजनीतिक रुतबे का इस्तेमाल करके धन की उगाही, सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल करके किसी कम्पनी को लाभ पहुंचाने और उसके बदले रकमें वसूलने और फायदे वाली नियुक्तियों के बदले वरिष्ठ नौकरशाहों और नेताओं द्वारा वसूले जाने वाले अवैध धन जैसी गतिविधियां पहली श्रेणी में आती हैं। 
दूसरी श्रेणी में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी-फण्ड के नाम पर उगाही जाने वाली रकमें, वोटरों को खरीदने की कार्रवाई, बहुमत प्राप्त करने के लिए विधायकों और सांसदों को खरीदने में ़़़़खर्च किया जाने वाला धन, संसद, अदालतों, सरकारी संस्थाओं, नागर समाज की संस्थाओं और मीडिया से अपने पक्ष में फैसले लेने या उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए खर्च किये जाने वाले संसाधन और सरकारी संसाधनों के आबंटन में किया जाने वाला पक्षपात आता है।  राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या पर यह विचार अगले अंक में भी जारी रहेगा। उस समय हम यह भी सोचेंगे कि 2011 से 13 के बीच में चले प्रभावशाली भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के बावजूद इस समस्या का कोई समाधान क्यों नहीं हो पाया?