मौत का उत्सव 

इस देश के लोग उत्वसधर्मी हो गए हैं। सही है हमारी लोक संस्कृति का रुझान हमेशा पर्वों, त्योहारों और उत्सवों की ओर रहा है। दीवाली में दीये जला कर हर घर में रौशनी की बारात सजती है, होली पर हास्य और अट्टहास की दूधगंगा के साथ रंग, अबीर और गुलाल की फाग उड़ती है। और फिर बल्ले-बल्ले बैसाखी। जाट के भंगड़ा डालते कदम कहने लगे, ‘फसलां दी मुक गई राखी, वे जट्टा आई बैसाखी।’
लेकिन न जाने क्यों हुआ, पिछले बहुत से दिनों से उत्सवों को चेहरे धुंआखे गये। हर नये उत्सव, नये पर्व पर लोग गले मिलते, सामाजिक अन्तर की दुहाई देते दिखाई देते हैं। नंग-मनंग होकर एक दूसरे के प्रति स्नेह और सौहार्द की गंगा बहा देने के स्थान पर नकाबपोश अंधेरे में गुम हो जाना चाहते हैं।  बहुत सी कतारें रहती हैं यहां जनाव। राजधानी में आन्दोलन जीवी दनदनाते हैं। जो कल तक अपने कोने के फुटपाथ का किराया भी धाकड़ों को चुका नहीं पाते थे, आज अपने आन्दोलनजीवी होने के कारण ही इन धाकड़ों के अपने पीछे लगा ज़िन्दाबाद का जयघोष करवाते हैं और फुटपाथ की जगह अपने प्रासाद की बुर्जी से क्रांति घोष का स्वर निकाल हमें उककृत करते हैं। 
आन्दोलन करके जो अब कुर्सी तक पहुंच गया, वह अब कुर्सीजीवी हो जाएगा। रूसी राष्ट्रपति पुतिन की तरह दो-तीन कुर्सी सत्र अपने नाम अग्रिम पारित करवा लेना चाहेगा। अपना गुज़रता वक्त अंतिम पहर तक पहुंचता देखेगा, तो अपनी वंशावली के लिए देश का भविष्य सुरक्षित करने का पैगाम दे देगा। अजी, शासन सत्र आरक्षित करने की क्या बात है, यहां तो आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बर्थ आरक्षित होने लगी है। आज़ादी के इस अमृत महोत्सव आते-आते एक जमात पैदा हो गई। पीढ़ी दर पीढ़ी कुर्सियों को सज्जित करते हैं। इन्हें कुर्सीजीवी कह लो या कुर्सी धर्मी, लेकिन बन्धु यहां तो क्रांति भी एक उत्सव धर्मी हो गयी, जोशीले नारों के पंखों पर तैरता हुआ क्रांति उत्सव, जो जब थमता है तो हम पाते हैं कि हम तो वहां ही खड़े रह गये, जहां से चले थे। अच्छे दिन ला देने का वायदा हमें उस कालपर्वत पर ले आया, जहां आम लोगों के लिए भुखमरी, बेकारी और महंगाई  एक रवायात है और विश्व के खुशहाली सूचकांक में और भी नीचे हो जाने की गिरावट दर्ज हो जाना एक विकट और जाना-पहचाना सत्य, जो ऐसा कम्बल है, जिसे हम छोड़ते हैं, लेकिन वह ही हमें अपने बाहुपाश से निकलने नहीं देता। 
आओ, अपनी भूख से निजात पाने के लिए ज़िन्दगी के खैराती हो जाने का उत्सव मनायें, क्योंकि यहां कार्य संस्कृति नहीं भीख संस्कृति चलती है। देश को रोज़गार पाना है दो मनरेगा के जाली कार्डों का अपने घर के दरवाज़े तक पहुंचने का सहारा लो, भूख निटानी है तो सस्ते राशन की दुकानों के बंद कपाटों के ताले खुलने की इंतज़ार करो। 
 यहां ज़िन्दगी के सनसनीखेज होने की सबसे बड़ी खबर यह होती है कि जिस महामारी को वर्ष के शुरू में तुम पूरे उत्साह के साथ अलविदा कह रहे थे, वह उसी शहंशाही अंदाज़ के साथ लौट आयी है। इस बार उसके तेवर बदले-बदले से हैं और मौत की खबरें यूं आ रही हैं कि जैसे किसी टी-ट्वैंटी क्रिकेट मुकाबले में वायरस की तूफानी गेंदबाज़ी के सामने ज़िन्दगी की गिल्लियां उड़ती हों, और मौत आपकी अंक-शायनी हो रही है। ज़िन्दगी, फूलों और समुद्र में दूर तक कोलम्बस नुमा यात्राओं पर निकल जाने के स्थान पर यह लीजिये महामारी लौट आयी, एक और मारक लहर बन कर। जानकार फुसफुसाते हैं, मौत दर मौत, लहर दर लहर बन कर लौटेगी, और केवल टीका अभियान की नौका के सहारे इस मौत के लौटते ज्वार का सामना कर सकोगे क्या? 
यह तो मौत का उत्सव है प्यारे, जिसे मनाने की दुंदुभि चौकस सायरन बजाने लगे, कि लो फिर सड़कों पर दफा एक सौ चतालीस लग गयी। कर्फ्यू की घोषणा ने सड़कों पर उतरती भीड़ को घर जाने के लिए कह दिया। 
सीख लो वापस लौटे इस मृत्यु उत्सव के नये आदाब। देखो बाजू में एक नहीं दो खुराक लगवाओ टीके की तो भी बार-बार हाथ धोते चलो, चेहरे को नकाब से ढंक लो, और एक दूसरे से छ: फीट का अन्तर रख कर जीना सीख लो।  ऐसा नहीं किया था न, तभी तो यह मौत के हरकारे वायरस का नया रूप धारण कर तुम्हारी गलियों और बाज़ारों में लौट आये। अब ऐसी गलती न हो बन्धु। समूहगान के दिन बीत गये, अब तो एकल गायन से ही इनका स्वागत होगा। जीने का नया अंदाज़ सीख लो। अपनी आत्मा तो इस मुखौटाधारी समाज ने पहले ही आवरण से ढक रखी थी, अब अपने चेहरे भी नकाब से ढक लो, क्योंकि यह मृत्यु उत्सव है। धूम मचाने का उत्सव नहीं, सहम कर एक-दूसरे से अलग रहने का उत्सव।