कोरोना की तीसरी लहर सजगता की चेतावनी

देश में अघोषित आपातकाल सी स्थिति बन गई है, दूसरी लहर खत्म नहीं हुई और तीसरी की खबर सनसनी फैलाने के साथ हमें सतर्क और सजग रहने का संकेत दे रही है। इस बीच एक सवाल अबूझ बन गया है। लोग पूछ रहे हैं कि जिस वायरस की समाप्ति साबुन से हो जाती है, उसको मारने के लिए अब तक कोई दवा क्या नहीं बन पाई? ऐसे कई सवाल आम जनमानस के मानस पटल में उथल-पुथल मचाए हुए हैं। पिछले वर्ष के कोरोना संक्रमण के दौरान सामान्य या काफी कम संख्या में जनहानि होने के बीच सरकारी मदद, सामाजिक संगठनों की मदद के अलावा व्यक्तिगत रूप ज़रूरतमंदों के  मददगारों की फौज हम सब ने देखी थी। इसके ठीक विपरीत 2021 में मार्च से मची उथल-पुथल और भारी जनहानि के बीच सरकारी मदद, सामाजिक संगठनों की मदद के अलावा व्यक्तिगत रूप से ज़रूरतमदों की मदद लगभग गायब सी हो गई है। कहीं-कहीं सरकारी मदद ज़रूर है लेकिन वह ऊंट के मुंह में ज़ीरा साबित हो रही है। इस आपदा के बीच देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया की भूमिका किस स्तर पर काम कर रही है? सांसद, विधायक, राजनीतिक दलों के नेता, कार्यकर्ता और विपक्ष कैसी भूमिका निभा रहा है? चिकित्सक, व्यापारी किस तरह की भूमिका निभा रहे हैं? यह सब इतिहास में दर्ज हो रहा है। जनता की भूमिका क्या है? क्या होनी चाहिए यह भी इतिहास में दर्ज हो रहा है। 
एलोपैथिक के सापेक्ष एक बार फिर आयुर्वेद का डंका  इस कोरोना काल में बजा है। दूसरी लहर के कारण देश गहन संकट में है, लेकिन राजनीतिक लोगों के रवैये से यह बिल्कुल नहीं लगता कि वह इस मुसीबत का मिलकर सामना करने को तैयार हैं। कोरोना के कहर से बचने के लिए उठाए जा रहे कदमों के बीच केंद्र और राज्यों के बीच तकरार और टकराव जारी है। केन्द्र केजरीवाल के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ट्वीट कर सीधे प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ पर हमला कर दिया। इस बीच सांसद और विधायक द्वारा संसाधनों की कमी के पत्रों के वायरल होने से भी स्थिति बिगड़ी है। राहुल गांधी पार्टी के लोगों को राहत केन्द्र या पीड़ितों के सहयोग की अपील न करके केवल यह बताने में लगे हुए हैं कि प्रधानमंत्री नाकाम हैं। राहुल गांधी कभी खुद को लॉकडाउन के खिलाफ  बताते हैं और कभी कहते हैं कि बिना लॉकडाउन लगाए बात नहीं बनेगी। यह देश का दुर्भाग्य है। जब राजनीतिक वर्ग को एकजुट होना भी चाहिए और दिखना भी, तब वह आरोप-प्रत्यारोप में उलझा हुआ है।  लगातार कोरोना मरीज़ों का सामने आना गहन चिंता का विषय है। ऐसे में अपने संसाधनों, जनता की ज़रूरत और संक्त्रमण रोकने के लिए राज्य सरकारों को समीक्षा करने की भी ज़रूरत है।
यह सच है कि कोरोना वायरस के बदले हुए प्रतिरूप कहीं अधिक घातक हैं और वे संक्रमण भी तेज़ी से फैला रहे हैं, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी प्रकृति में बदलाव को अभी भी सही तरह समझा न जा सका हो और इसी कारण वे अपना कहर ढाने में लगे हुए हैं? जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रण कक्षों की स्थापना ही पर्याप्त नहीं है, उनके बीच आवश्यक तालमेल भी होना चाहिए। अभी भी कुछ लोग कोरोना महामारी की गंभीरता को समझने के लिए तैयार नहीं। भले ही 18 से 44 साल के लोगों के लिए टीकाकरण अभियान शुरू कर दिया गया हो, लेकिन देश के अनेक हिस्सों में अभी यह अभियान धरातल पर नहीं उतर सका है। 
अस्पतालों में अव्यवस्था और खासकर ऑक्सीजन की कमी को लेकर कोरोना मरीज़ों की मौतों पर विभिन्न उच्च न्यायालयों की ओर से जो नाराज़गी प्रकट की जा रही है, वह उचित ही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकारें कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर की आशंका से अवगत होते हुए भी समय रहते ज़रूरी तैयारी नहीं कर सकीं, लेकिन आखिर अब किया क्या जाए? इसी प्रश्न का उत्तर खोजने और उसके अनुरूप कदम उठाने की सख्त ज़रूरत है।