छोटे और सीमांत किसानों तक क्यों नहीं पहुंचता नया कृषि विज्ञान 


आज़ादी के सात दशक बाद भी कृषि विज्ञान सभी किसानों तक नहीं पहुंचा। गांवों में विशेषकर जो गांव शहरों, जिलों, तहसीलों या ब्लाक मुख्यालयों से दूर हैं, उनमें छोटे और सीमांत किसान नई कृषि तकनीक से वंचित हैं। इन किसानों की उत्पादकता दूसरे किसानों से बहुत कम रहती है, क्योंकि यह नई किस्मों की बीज और नई कृषि तकनीक का उपयोग नहीं करते। एक वर्ष गेहूं की भरपूर फसल होती है परन्तु गांवों के किसानों की उत्पादकता में बड़ा अंतर है। भिन्न-भिन्न ब्लाकों और तहसीलों के किसान की ही उत्पादकता अलग-अलग नहीं अपितु एक ही गांव के किसानों के उत्पादन में भी बड़ा अंतर रहा है। प्रगतिशील किसानों की फसल का उत्पादन 25 से 26 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक चला गया जबकि कुछ ऐसे किसान हैं, जो 16 से 17 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक ही उत्पादन प्राप्त करते हैं। 
नया कृषि विज्ञान किसानों तक कृषि प्रसार सेवा से पहुंचता है या उन्हें मीडिया, टैलीफोन और टैलीविज़न आदि से प्राप्त होता है। सब्ज़ इन्कलाब के समय और इसके बाद कृषि विज्ञान गांवों में किसानों को कृषि प्रसार सेवा के माध्यम से पहुंचता था। कम्युनिटी डिवैल्पमैंट ब्लाकों में तैनात लगभग पूरा स्टाफ कृषि प्रसार सेवा के लिए ज़िम्मेदार होता था। पिछली शताब्दी के 6वें दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. प्रताप सिंह कैरों ने कम्युनिटी डिवैल्पमैंट ब्लाकों को कृषि विकास के यूनिट बना दिया था और इस यूनिट का इन्चार्ज बीडीओ था। उस समय ग्राम सेवक और प्रसार अधिकारी गांवों में जाकर किसानों के साथ खुली बैठकें करते थे तथा उन्हें कृषि विज्ञान उपलब्ध करते थे। वे किसानों के लिए ज़रूरी सामग्री भी प्रबंध करते थे। किसानों की समस्याओं और कामकाज़ वे ब्लाक के कार्यालय तक ले जा कर समाधान करने हेतु भरसक प्रयास करते थे। इसलिए सब्ज़ इन्कलाब के दौरान कीमियाई खादों, आवश्यक कीटनाशकों और अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों के बीजों का उपयोग बढ़ा, जिस कारण उत्पादन बढ़ा और अंत में देश आत्मनिर्भर ही नहीं अपितु अनाज विदेशों को भेजने में सक्षम भी हो गया। 
आज किसी कृषि वैज्ञानिक का दूर के गांवों में रह रहे छोटे किसानों के साथ निजी सम्पर्क नहीं है, जो उनकी तरक्की के लिए अत्यावश्यक है। मोबाइल, टैलीफोनों की संख्या अवश्य बढ़ गई है परन्तु बहुत से किसान इन्हें फसलों का मूल्य जानने के लिए ही उपयोग करते हैं। कृष विज्ञान की जानकारी के लिए या किसी कृषि वैज्ञानिक के साथ सम्पर्क करने के लिए मोबाइल का कम ही उपयोग किया जाता है। कृषि विभाग के पास विशेषज्ञों पर आधारित ऐसा स्टाफ नहीं, जो गांवों में जा सके। गांव स्तर पर कार्य करने वाले श्रमिक हैं, जो तकनीकी विशेषज्ञ नहीं। 
सरकार द्वारा कृषि तकनीक किसानों तक पहुंचाने के लिए कुछ योजनाएं जिनमें सबसिडी देने की योजनाएं भी शामिल हैं, चलाई जा रही हैं। उन योजनाओं का छोटे और सीमांत किसानों को नाममात्र ही लाभ पहुंच रहा है। विगत में भूमि स्वास्थ्य कार्डों के माध्यम से ज़मीन की मिट्टी की जांच के आधार पर कृषि सामग्री का उपयोग करने हेतु किसान की ज़मीन की मिट्टी की जांच की गई और उनके परिणाम एवं सिफारिशें इन कार्डों में दर्ज करके किसानों को दिखाये गये। इस योजना के तहत न तो प्रत्येक किसान को भूमि स्वास्थ्य कार्ड ही मिला और न ही उसकी भूमि की मिट्टी की जांच हुई, जिन्हें कार्ड मिले भी उस में दर्ज की गई सिफारिशें कृषि विशेषज्ञों द्वारा नहीं की गई थीं। बहुत से किसानों के  ये समझ ही नहीं आईं और उन्होंने भूमि स्वास्थ्य कार्डों का उपयोग ही नहीं किया। कार्डों में की गई सिफारिशें रिवाइज़ ही नहीं की गईं। ये सिफारिशें उत्पादन बढ़ाने हेतु थीं जिस मशीनरी पर सबसिडी दी जा रही है, उसका छोटे किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। गत दो वर्ष में 51709 धान के अवशेष एवं पराली का समाधान करने हेतु सबसिडियां दी गईं। वे छोटे और सीमांत किसानों के लिए नहीं थीं। कुछ ट्रैक्टर भी सबसिडी पर दिये गए जिनका छोटे किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। 
गांवों में आवश्यकता से अधिक कृषि योग्य भूमि है। हालांकि देश की जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ 17 प्रतिशत है। आवश्यकता है गांवों में औद्योगिक इकाईयां और कृषि से संबंधित प्रोसैसिंग यूनिट स्थापित करने की।