एक बातूनी क्रांति

हमें तलाश है रोटी की, रोज़ी की। दो जून पेट भर भोजन के बाद आत्मतोष के साथ अपने दिन बदल जाने की। बहुत दिन इन्तज़ार कर लिया, अब केवल अच्छे दिन का सपना देखने से ही पेट नहीं भरता। उन्होंने कहा था, ‘बहुत जल्दी मैं तुम्हारे लिए ऐसे दिन ले आऊंगा कि तुम्हारे हर खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुयया होगा।’ उन्होंने पवित्र ग्रंथ की कसम खा कर कहा था, ‘मुझे वोटों की पालकी में बिठा कर गद्दी पर सजा दो, मैं एकाध महीने में ही तुम्हारे निकम्मेपन को बीते युग की कहानी बना कर निट्ठल्ले हाथों को काम दे दूंगा, बेघर लोगों के सिर छत दे दूंगा, और तुम्हारे अनपढ़ बच्चों को इक्कीसवीं सदी का वरदान दे दूंगा, पूरे देश को डिजिटल बना दूंगा और सबके हाथ में खैराती स्मार्टफोन रहेगा, कितना सुन्दर सपना था। लेकिन देखते ही देखते दिन पर दिन बीतते चले गए। 
जीवन मरुस्थल हो गया। उसमें रोज़ी, रोटी के इन नखलिस्ताओं की तलाश वह अधूरी कहानी हो गई, कि जिसका अन्त पा लेना लिखने वाले के भाग्य से नहीं बंधा रहता। जीवन एक लम्बी कतार के उस आखिरी आदमी सा हो कर रह गया, जिसके भाग्य में उस कतार का आगे सरकना नहीं लिखा होता। मंज़िल पा लेने की बात तो बहुत दूर की है।  देखते ही देखते इतने बरस हो गये। सूरज और चांद से क्या फरियाद करते, हमारे फुटपाथी जीवन के घुप्प अंधेरे में तो वे कभी झांकने भी नहीं आए। सुना है, उन्हें ऊंचे प्रासादों के गोदाम घर में कैद कर दिया गया है। अब इन गोदामों के लौह द्वारों पर तो इतने बड़े-बड़े ताले जड़े रहते हैं। फुटपाथों पर आंधी आए, तूफान आये, बादल फटे, बिजली गिरे, इन गोदाम घरों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। महामारी भूख, बेकारी और बीमारी बन कर गिरती है तो उन फटेहाल लोगों की लम्बी कतार पर, जिससे उनकी कार्य संस्कृति छीन कर खैरात संस्कृति भेंट कर दी गयी है। लेकिन हर महामारी में, हर आपदा में ऊंचे प्रासादों का माथा और भी ऊंचा होता चला जाता है। करोड़पति अरबपति हो जाते हैं, और अरबपति खरबपति। आर्थिक विकास के आंकड़े इन धनियों के प्रांगण में धमाचौकड़ी मचाते हैं, और फटीचर लोगों का दुखान्त महंगाई, बेकारी और भ्रष्टाचार का दर्जा बढ़ाने के सूचकांकों में दिखाई देता है। 
लेकिन इन्हें कभी-कभी इन आर्तनाद करते हुए लोगों की याद भी आ जाती है। पिछले बरसों में इन लोगों के जीने की भीख के लिए गिड़गड़ाती हुई भीड़ ज़िन्दगी के हर चौरहे पर बढ़ती हुई नज़र आने लगी है। चन्द बातूनी लोग अपने-अपने सपनों का बायोस्कोप लेकर इनके जमावड़े में चले आते हैं। इनमें जो सबसे अधिक वाचाल होता है, उसे ही सबसे बड़ा मीरे कारवां माना जाता है। इस भीड़ ग्रस्त देश की जनसंख्या का बढ़ना तो चूहों की रेल-पेल को भी मात कर गया। और इस शहर के राजकुमार क्योंकि हर पांच बरस के बाद चुने चाते हैं, इसलिए जादू भरे सपनों की धुन बजाने वाले न जाने कितने बांसुरी वाले वहां चले आये। 
नव प्राण की आस लगाये चूहों ने उन्हें घेर लिया। हर बांसुरी बजाने वाला एक नयी टेर के साथ बांसुरी बजाता है और दूसरे वादक को झूठा और बनावटी करार देता है। देखो, इन्होंने पांच बरस पहले जिन वायदों के एजेंडे के साथ कुर्सी हथियाई थी, उनमें से तो एक भी पूरा नहीं हुआ। सवाल तो कुर्सी पर चेहरा बदलने का है। क्योंकि हमें इस बार मौका दे दो। हमारी बांसुरी सुनो, वह अधिक मीठे सुर में सपनों का बागीचा सजाती है। 
चूहे हों या आदमी सपनों से भ्रमित हो जाने का लोभ किसे नहीं होगा। एक दो नहीं अब तो हर मोर्चे पर बांसुरियां बज रही हैं। देखो उसने न तुम्हें रोज़ी दी न रोटी, बस एक और भी अधिक बीहड़ जीवन भेंट कर दिया, जिसमें आकाश छूती कीमतें हैं, निट्ठल्ले लोगों की बढ़ती हुई संख्या है, और हर कोने में तुम्हारी जेब कुतरने वाले दलालों की बढ़ती भीड़ है। हमने कहा वह आदमी हो या चूहे, जो इन प्रासादों के भीतर नहीं जा पाया, उन सबका भाग्य एक जैसा है। समुद्र किनारे बसे चूहों के उस शहर जैसा, जहां बांसुरी वाला अपनी सपनीली धुन से उन्हें मंत्रमुग्ध करके अपने पीछे चलाता दैन्यता के समुद्र में डुबो देता है, और बताता है लो क्रांति हो गई। 
हर नयी क्रांति की उद्घोषणा अपने खोखले एहसास के साथ उन्हें उसी नौटंकी को देखने के लिए विवश करती है, कि जहां नेता लोग एक दूसरे से कुर्सी छीनने की छीन-झपट में लगे रहते हैं। जो कुर्सी छीन ले गया,या उस पर जमकर बैठा रहा, वही युग प्रवर्त्तक है। और युग, वही फटा पुराना युग फिर उस राहत संस्कृति में घिसट-घिसट कर जीने के लिए विवश हो जाता है कि जहां घोषणायें हैं लेकिन उनका साकार होना किसी लेट-लतीफी रजिस्टर के हवाले कर दिया जाता है।