जागते रहो की भटकी आवाज़

हमारी न्यायपीठ के मुखिया को इस देश में एक  साथ दो दुनिया बसती नज़र आयी हैं। एक वह दुनिया जिसमें सात बीस का सौ होता है, और  दूसरी वह दुनिया जिससे आठ बीस का पचास भी नहीं होता।  गलत नतीजा बता क्या हम ऐसी दुनिया की बात कर रह हैं, जिससे गणित पढ़ना गुनाह है, या किसी उस दुनिया की बात जिसमें इतिहास के नाम पर भूगोल पढ़ा दिया जाता है। उसके बाद किसी फर्जी विश्वविद्यालय की उच्च डिग्री का दुमछल्ला लगा लो। भाषण करने लगो तो अपनी वक्तृता में दस बार अपने नाम का प्रयोग करने के बाद कहो, कि ‘मैं तो बेचारा एक कार्यकर्त्ता हूं, आपकी ज़िन्दगी सफल करने के लिए इस धरती पर आया हूं।’ जी हां, जो ऊंचे प्रासादों से अवतरित होते हैं, उनके लिए कानूनों की आचार संहिता कुछ और, और इधर बेचारे फुटपाथियों के लिए कानून की सख्ती का कोई अन्त नहीं।  न्यायपीठ ने तो कहा इस देश में हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग कानून नहीं हो सकता। साब, हम आह भी भरें तो हो जाते है बदनाम, वह कत्ल भी करें तो शिकवा नहीं होता। 
लगता है ये कानून सदा से दो रुख वाले ही चलते आये हैं। आज उनका संज्ञान ले लिया गया तो कहने लगे, ‘आह कितनी बेबाक टिप्पणी है। इस साहस के लिए ज़िन्दाबाद।’ लेकिन क्या ज़िन्दाबाद का नारा लगाने के बाद दो अलग वर्गों के लिए एक ही कानून हो जाएगा। यह कानून बड़े-छोटे का, ऊंचे-नीचे का फर्क नहीं करेगा। सबकी धान पसेटी एक ही भाव बिकेगी। 
लेकिन ऐसा कभी होना नहीं। ऐसी समता की मात्र उम्मीद की जा सकती है, ऐसी उम्मीद जो करने वाले भी अपने ऊंचे मंच पर खड़े होकर जनता जनार्दन को समझा सकें।  लेकिन मंच से बोलता हुआ आदमी ऊंचे स्वर में बोलता रहता है, और धरती पर छिटके हुए लोग गिड़गिड़ाते तक एक अंदाज़ से हैं। मंच से उतरे आदमी के पांव पखारते हैं वह भी एक अंदाज़ से।  उन्होंने कहा कि बड़े और छोटे का फर्क तो सदा से रहा है। महामारी आयी तो लाखों लोग अस्पताल में बैड न मिलने से चल बसे, और चन्द लोग अपनी ऊंची मंज़िलों से गुरु गम्भीर वाणी में हमदर्दी प्रकट करते हुए जनसेवक कहलाये। 
भुखमरी सूचकांक आ गया, लेकिन विज्ञ पुरुषों ने बताया, ‘देखो-देखो अपने यहां भुखमरी से इतने नहीं मरे, जितनी उम्मीद थी।’ आंकड़ों का खेल है, इसकी कल मरोड़ दो, तो लगता है जब इतने लोग मरे ही नहीं, तो कैसे कह सकते हो देश बदहाल है, असमाजवादी है?
अब इन टिप्पणियों का क्या करें? टिप्पणी करने वाले टिप्पणी करते रहते हैं, और फुटपाथ पर बरसों से पड़े आदमी ज़िन्दाबाद का जयघोष करते हुए देश की तरक्की के ज़ामिन हो जाते हैं। 
अब ऐसी भी क्या विसंगति कि मरीज़ों की परिचर्चा करने वाले, उन्हें मौत के मुंह से बाहर निकाल लेने वाले सम्पदा व्यवसायी कहलायें? भला ये लोग कमाई नहीं करेंगे तो ये अस्पताल दो मंजिलों से चार मंज़िल कैसे बनेंगे? मंज़िलें उठेंगी, तो रोगियों के लिए नये कमरे बनेंगे। जानते हो, देश में अत्यधिक जनसंख्या की समस्या है। अस्पतालों के भवन तरक्की नहीं करेंगे, तो लोगों की जान कैसे बचेगी? मानवता के इन पुजारियों को सम्पदा व्यवसायी न कहो। इन्होंने मेहनत का अधिक मूल्य ले लिया, प्राण बचाऊ औषधियों को काला बाज़ार में बेच दिया, तो उनकी मानवता की पूजा में कोई अन्तर कैसे आ गया? देख लो यहां भी दो दुनिया हो गयी। एक दुनिया में मानवता की पूजा के ताज बंटते हैं, और दूसरी में काले बाज़ार के शहजादे दनदनाते हैं। महामारी जब टल जाती है तो दोनों दुनिया एक जैसी नहीं हो जातीं क्या? रोग से बच निकलने के आंकड़े तो सब को एक जैसे खुशी दे जाते हैं।  आओ, यह गरीब, अमीर का फर्क करना बंद कर दें। सदियों से गरीब, गरीब न रहे होते, तो शब्द कोष में सेवाभाव को इतना ऊंचा दर्जा कैसे मिलता?
आज की दुनिया में तो जो जितने ऊंचे स्वर में चिल्लाता है, वही नैतिकता का बहुत बड़ा अलम्बरदार बन जाता है। कुर्सियों पर जो बैठे हैं, वहीं तो पीढ़ी दर पीढ़ी नैतिकता, बलिदान और सच्चाई के पहरुए कहलाते हैं, अभिनंदित होते हैं, महिमामंडित होते हैं। जो रात भर जागते रहो चिल्लाते रहे, वे तो केवल चौकीदार हैं। आज हैं कल निकाल कर बाहर कर दिये जाएंगे। असल दुनिया तो कुर्सी पर बैठे, महामनों की है, जिनके नाम से सदा कुर्सियां गिरवी पड़ी रहती हैं। ये कभी किसी और के लिए जगह नहीं छोड़तीं। और तुम कहते हो दो दुनिया नहीं चाहिए, हम तो सदा एक ही दुनिया के लिए हांक लगाते रहेंगे।