नई दुनिया के ये निर्माता 

कुर्सी छिन जाने पर भी कुर्सी छीनने वाले के प्रति आप मोह रखें, उसे आशीर्वाद दें, तो इसका भला क्या अर्थ निकलता है? यही न कि ऐसा करने वाला बड़ा महान व्यक्ति है। जीवन के उतार-चढ़ाव देख वह निस्पृह हो चुका है। अब उसे गंदले जन में कूदना पड़े तो भी कमल के फूल की तरह रहेगा। यूं राजनीति, समाज और आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में पीछे छूट गये लगभग हर व्यक्ति को हमने इसी तेवर में या रिमोट के इस मोड पर ऐसा संदेश देते देखा है।  यह कैसा चलन है है, कि जब कोई हार जाता है तो ऐसा संदेश देता है, इस आपाधापी भरी दुनिया को त्याग देने का संदेश देता है। निहित भाव यही रहता है कि मैंने कभी इन छोटी-छोटी ललचाहटों की परवाह नहीं की। जेब में सदा अपना इस्तीफा रखा, या इस सब को ठोकर मार देने की तैयारी। 
ऐसा ही ज्यों-ज्यों चुनाव की घंटी करीब होती है, तो देश के बहुत से राज्यों में नज़र आने लगा है। जमी जमाई कुर्सियां उखड़ रही हैं। जिन राजप्रसादों को अपनी बपौती समझा था, वही आज बेगाने हो गये। इनसे विदा लेते हुए भला और क्या कहते यही न कि मैंने कभी इनकी कामना नहीं की। आपकी सेवा का, जनसेवा का भार था जो इस पर लाद दिया गया था। हम तो आजीवन यही सेवा निभाते रहते, हम जाते तो हमारे बेटे, नाती पोते इस सेवा को निभाते, लेकिन टुच्चे लोगों से हमारी यह महानता बर्दाशत नहीं हुई। लीजिए अब हम क्यों इस ओछी नाखुशी को बढ़ावा दें? आज कल जो कोई नहीं करता वही हमने कर दिखाया। एक लोक गीत की तरह ‘लै माये सांभ कुंजियां, सज्जन तो परदेसी हो गये’,  कर सब कुछ छोड़-छाड़ कर चल दिये। अजी यह केवल एक राज्य, एक बलिदान की कहानी नहीं है न जाने कितने लोग फंसने पर त्याग भाव से अलविदा कहते दिखाई देते हैं, यह केवल एक राज्य की  नम्बरदारी हो या एक सामाजिक प्रतिष्ठान की। 
लेकिन ऐसी हर बलिदान की कहानी का दूसरा रुख बांचने वाले भी आपको दिख जायेंगे। अजी कोई बलिदान बलिदान नहीं था, महोदय के सिर के ऊपर से इतना पानी गुज़र गया था कि अब सिवा डूबने के कोई और चारा नहीं। अब जब डूबना ही है तो क्यों न जलसमाधि का नाम दे दें।  लेकिन इस बलिदान का अर्थ कभी अलविदा नहीं होता। अपने प्रस्थान को महा बलिदान का नाम देकर वे सदा लौटने की फिराक में रहते हैं। इस वापसी को करते हुए भी बड़े-बड़े शीर्षक उनकी सेवा में आ जुटते हैं। ‘मैं योद्धा हूं, अखिरी सांस तक आपके लिए लड़ता रहूंगा’, की घोषणा के साथ वह अपने नये भाई बन्दु लेकर उसी रण समर में कूद जाते हैं, जिसे वह कूड़ा-कचरा बुहार कर आम लोगों के लिए नयी ज़िन्दगी बसा देने का संकल्प बता रहे थे। 
उधर जो उनकी कुर्सी छीन जम कर बैठ गये, वह भी तो यही कह रहे थे कि आम लोगों से बहुत ज़्यादती हो गयी, तुम्हारे साथ। उत्थान के नाम पर भाई-भतीजावाद चला, और सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सफाई के नाम पर कूड़े के डम्प लगा दिये। अब होगा असली उत्थान, बसेगी नई दुनिया। 
यह असली उत्थान, और नई दुनिया बसाने की बात भी खूब है साहिब, जो अलविदा कहने के लिए मजबूर हुए, वह भी अब ऐसी ही दुनिया बसा लेने के वायदे के साथ वापसी चाहते हैं, और जो अब कुर्सी पर आ जमे वह तो खैर आये ही इस नई दुनिया को स्थापित कर देने के ढोल-ढमक्के के साथ अवतरित हुए थे।  यह नई दुनिया खूब है साहब। जो अपनी स्थापना के समर में कूदता है, इसी घोषणा के साथ कूदता है। पक्ष हो या विपक्ष। है कोई ऐसा माई का लाल, जो इस घोषणा के चमकीले आवरण के बिना इस समर में कूद सके? आओ, हम इन समर योद्धाओं में से सबसे ऊंची आवाज़ वाले योद्धा के विजय तिलक लगायें, और अपूर्व धीरज के साथ इस नई दुनिया के बसने का इन्तज़ार करें। बेशक, आफरीन हो यह इंतज़ार। अरे हमने तो इस इन्तज़ार अवधि का अमृत महोत्सव भी मना लिया, लेकिन इस हमारी दुनिया ने चेहरा बदलने से इन्कार कर दिया।  कहां तलाश करें, हम इस नई दुनिया को? क्या इस नये सर्वेक्षण में कि जहां सच में धन और आय की समानता पैदा करने वाले लक्ष्यों ने यह परिणाम दिखाया कि आज देश दस प्रतिशत के पास नब्बे प्रतिशत धन सम्पदा आ गई, और बाकी नब्बे प्रतिशत  के पास देश की दस प्रतिशत धन सम्पदा। इस देश में हर हाथ को काम देने का वायदा किया था, काम दिया तो सही, उन कतारों में खड़े होने का जहां रोटी से लेकर आयातित संस्कृति तक खैरात में बंटती है। लुभावने नारों के पंखों पर इस देश में स्थापित हो रही यह नई दुनिया चल रही है। अभी नये और विस्थापित मसीहाओं ने कहा कि इस देश को आत्मनिर्भर बनाना है। बनाना तो है ही इसीलिए तो हर मूलभूत उद्योग में भी सौ  प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाज़त मिल गयी। बेकार युवकों के लिए गांवों में नया समाज बसाया है। इसीलिए तो उद्योगपतियों को यहां भी नवस्थापन की इजाज़त मिल गयी। खैर चौंकिये नहीं, ऐसी विसंतियों में ही तो यह सदा देश पला बढ़ा है।