गुणग्राही शिक्षा के हिमायती थे मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय शिक्षा दिवस पर विशेष


राष्ट्रीय शिक्षा दिवस भारत के पहले शिक्षा मंत्री एवं भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की याद में वर्ष 2008 से हर वर्ष 11 नवम्बर को मनाया जाता है।  मौलाना आज़ाद महात्मा गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित थे। वह कवि, लेखक, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी थे। मौलाना आज़ाद देश की सांस्कृतिक परम्पराओं को शिक्षा प्रणाली में शामिल करने के प्रबल हिमायती थे। इसीलिए 1947 में आज़ादी के बाद भारत के प्रथम शिक्षामंत्री बनने पर उन्होंने पढ़ाई-लिखाई और संस्कृति के मेल और समन्वय पर विशेष ध्यान दिया। मौलाना आज़ाद की अगुवाई में 1950 के शुरुआती दशक में संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी और ललित कला अकादमी का गठन हुआ। इससे पहले वह 1950 में ही भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद बना चुके थे। उन्होंने भारत में धर्म, जाति और लिंग से ऊपर उठ कर 14 साल तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दिए जाने पर बल दिया था। मौलाना आज़ाद महिला शिक्षा के खास हिमायती थे। 
आज़ादी के 75 वर्षों के बाद आज भी देश में प्रारंभिक शिक्षा पर अथाह धनराशि खर्च करने के बावजूद बच्चों में पढ़ने-लिखने के कौशल क्यों नहीं आ पा रहे हैं, इस पर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। देश में बुनियादी शिक्षा को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। अनेक संस्थाओं ने अपनी रिपोर्टों में देश में बुनियादी शिक्षा को लेकर सवाल उठाये हैं और बताया है कि आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भारी शैक्षिक विस्तार के बावजूद गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान करने के कार्य में हम बहुत पिछड़े हुए हैं। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां हमारी आधी से अधिक आबादी गरीबी में जीवन बसर कर रही है। रिपोर्टों में खुलासा किया गया है कि प्रारम्भिक शिक्षा का देहाती क्षेत्रों में हाल बहुत बुरा है जहां आठवीं का छात्र गुणा भाग भी सही तरीके से नहीं कर सकता और पांचवीं का छात्र पुस्तक नहीं पढ़ सकता। आज भी पांचवीं कक्षा के करीब आधे बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ नहीं पढ़ सकते। वहीं आठवीं कक्षा के 56 फीसदी बच्चे गणित के दो अंकों के बीच भाग नहीं दे सकते। 
भारत की प्रारम्भिक शिक्षा की कमजोरियों के कारण ही हम शिक्षा की दौड़ में पिछड़े हैं और गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्राप्त करने के अभाव के कारण शिक्षा की बदहाली का रोना रो रहे हैं। बताया जाता है कि सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों एवं शिक्षा के अधिकार कानून के अमल में लाने के बाद स्कूलों में बच्चों के दाखिले की स्थिति में आशातीत सुधार परिलक्षित हुआ है। मगर गुणवत्तायुक्त शिक्षा में हम पिछड़ गये हैं। सरकारी स्कूलों के मामलों में निजी स्कूलों की स्थिति फिर भी अच्छी बताई जा रही है। सक्षम लोग आज सरकारी विद्यालयों की अपेक्षा निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पठन-पाठन में अधिक रुचि लेते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि सरकारी स्कूल पुरानी परिपाटी का अनुसरण कर रहे हैं। अध्यापकों की पठन-पाठन के काम में उदासीनता और लापरवाही ज्यादा है। ग्रामीण विद्यालयों की हालत अधिक बुरी है। 
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से हमारा तात्पर्य ऐसी शिक्षा से है जो हर बच्चे के काम आये। इसके साथ ही हर बच्चे की क्षमताओं के संपूर्ण विकास में समान रूप से उपयोगी हो। कक्षा में बच्चों को चर्चाओं के माध्यम से अपनी बात कहने और ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी का मौका मिले। 
साथ ही कोई भी बच्चा सीखने के पर्याप्त अवसर से वंचित न रहे। कक्षा में मैत्री पूर्ण माहौल बनाया जाये जिसमें छात्र बिना झिझक के अपनी बात कह सकें और शिक्षक की कही बात समझ सकें। सच तो यह है बालकों को पढ़ना, लिखना और समझना जैसे कौशल नहीं मिल पाए हैं। हर साल सरकार शिक्षा बजट में बढ़ोतरी करती है मगर  प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती जा रही है। इस कमी को सुधारे बगैर बुनियादी शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं दिखता। सबसे पहले हमें अपनी बुनियादी और प्रारम्भिक शिक्षा की मजबूती की ओर ध्यान देना होगा। बच्चों को प्रारम्भ से ही गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान कर उसकी शुरुआती बुनियाद को सुदृढ़ करना होगा। हमारी बुनियादी शिक्षा गुणवत्तायुक्त और मजबूत होगी तो हम शिक्षा को गुणग्राही बनाकर देश और प्रदेश को विकास के राह पर आगे बढ़ा पायेंगे। 
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