क्या हम ़गुलाम हो रहे हैं सोशल मीडिया के ?

पुराने समय से आजकल के आधुनिक डिजीटल समय में एक बहुत बड़ा अंतर है जो सिर्फ कहने और सुनने में ही बड़ा नहीं लेकिन सच में बहुत गहरा है। पुरानी खुशियां अलग ढंग की थीं। आजकल भी खुशियां तो बहुत हैं, बस खुशियों का रंग-ढंग और दायरा बदल गया है। 
पहले समय में सुबह की आंख खुलती थी तो भगवान का नाम लेकर सूर्य की किरणों और चिड़ियों की चहचहाट से मन और आत्मा ताज़ा हो जाती थी लेकिन आजकल उठते ही फोन के दर्शन किए बिना सुबह की आंख नहीं खुलती। पहले जब शादी पर या घूमने के लिए परिवार सहित जाना होता था तो एक खुशी होती थी, इकट्ठा समय व्यतीत करने की, नये स्थान ढूंढने की, नई स्थान से यादें एकत्रित करने की इन छोटे-छोटे चाव से ही आत्मा खुश हो जाती थी। 
आजकल कहीं परिवार या दोस्तों के साथ घूमने जाएं तो नई जगह, उसकी खूबसूरती, प्रकृति के करिश्मों का महत्व सिर्फ फोटो एवं सैल्फियां लेने के दौरान बैकग्राउंड में उपयोग करने के लिए काम आता है। तभी उस स्थान का मूल्य पड़ता है, यदि फोटोज़ अच्छी आएं। सोशल मीडिया का नशा बच्चों से लेकर बड़ों तक को भी पूरी तरह से चढ़ा हुआ है।
सोशल मीडिया अनजाने में हमारी भावनाओं के साथ खेलता है, जिसका पता जल्द कहीं नहीं लगता। किसी अन्य के कपड़े, आभूषण, उसने कितनी बार वहीं कपड़े दोबारा पहनने, उसको कोई अन्य नेता कैसे जानता है, इस परिवार से उसकी जान-पहचान कैसे हुई? और पता नहीं कितने सवाल, कितने विचार हमारे मन में घर करते हैं और हमारी आंतरिक शांति को चुप-चाप भंग कर देते हैं, जिससे हमारी मानसिकता, हमारे स्वाभिमान को आघात पहुंचता है। हर घर के अपने नियम अपने कार्यक्रम, अपनी संस्कृति होती है लेकिन दूसरे का पहरावा, घूमने-फिरने की तस्वीरें देख कर यह ध्यान में घर करना कि हम में बहुत चीज़ों की कमी है, मन को अशांत कर देता है। इसलिए घर में कहीं न कहीं झगड़ा अवश्य होता है और तनाव वाला माहौल  पैदा हो जाता है।
आजकल एक ओर नज़ारा जो अक्सर काफी स्थानों पर देखने को मिलता है। परिवार बहुत समय बाद बाहर जाता है और सभी इकट्ठे बैठे होते हैं, लेकिन माता-पिता, बच्चे सभी के हाथ में अपना-अपना फोन होता है और सभी उसी में व्यस्त होते हैं। किसी से कोई बातचीत नहीं, सभी अपने ही फोन की दुनिया में गुम हो जाते हैं। आजकल ऐसे होती है एक परिवार की सांझी सैर। प्रतियोगितावाद में कोई किसी से पीछे नहीं, किसी की तस्वीर पर कितने लाइक हुए, कितने समय में कितने और क्या-क्या कमैंट आए और यदि यह लाइक का आंकड़ा बाकी जान-पहचान वालों की पोस्टों से आगे हो और मान लें जैसे कि कोई बहुत बड़ी परीक्षा पास कर ली हो और खुशी इतनी होती है कि इस जीत का ज़िक्र हर जगह सभी के साथ किया जाता है।
सोशल मीडिया पर प्रसिद्ध होने के चक्कर में हम यह भी भूल जाते हैं कि कौन-सा पहरावा हमें अच्छा लगता है। बस एक चाहत होती है, चाहे चीज़ अच्छी लगे या न लगे। अन्यों से अधिक आकर्षण का केन्द्र बनने के चक्कर में कई बार हम मज़ाक का पात्र बन जाते हैं।
सोशल मीडिया नकारात्मक तुजुर्बों को भी बढ़ावा देता है। जैसे अपनी ज़िन्दगी में अधूरापन या अपने दिखावे के बारे मन में सन्देह पैदा करके अनजाने में ही इन्सान सोशल मीडिया का गुलाम बन गया है। विशेषज्ञों के अनुसार सोशल मीडिया निराशा, चिन्ता, अकेलेपन को बढ़ाने का एक बड़ा कारण बन रहा है।
सोशल मीडिया की खोज इन्सान ने अपने तेज़ दिमाग और नई टैक्नोलॉजी के प्रभाव तले ज़िन्दगी की आसान बनाने के लिए और काम को तेज़ी से करने के लिए निकाली थी, लेकिन कई बार ऐसे लगता है कि इन्सान जोकि इतनी तरक्कियों के कारण चांद तक तो पहुंच गया है, परन्तु वहीं सोशल मीडिया का गुलाम बन कर रह गया है। हमें अपनी आने वाली पीढ़ी में चेतना जगानी चाहिए कि सोशल मीडिया को अच्छे काम के लिए उपयोग करें, इसका लाभ उठाएं और इसे अपने भविष्य पर हावी न होने दें। इसलिए बड़ों को भी सोशल मीडिया के दायरे को समझना होगा ताकि सोशल मीडिया हमारी ज़िन्दगी को कंट्रोल न करे अपितु यह हमारे कंट्रोल में हो।