शहीदी दिवस पर विशेष भगत सिंह ने लगाया था ‘इऩकलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा

भारतीय संस्कृति और धर्म यह स्वीकार करता है कि जब-जब भारत मां संकट में होती है, तब तब भगवान ऐसे महामानवों को भेजते हैं जो भारत की स्वतंत्रता, संस्कृति की रक्षा के लिए और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए बलिदान देते हैं। भगत सिंह और सुखदेव दोनों ही 1907 में भारत मां की आज़ादी के लिए भारत में पैदा हुए और राजगुरु महाराष्ट्र में 1909 में। बंगाल के यतींद्र नाथ दास 1904 में जन्म लेकर क्रांति का दीपक जलाने के लिए पंजाब में पहुंच गये। 
30 अक्तूबर, 1928 को संवैधानिक सुधारों की समीक्षा एवं रिपोर्ट तैयार करने के लिए सात सदस्यीय साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा। पूरे भारत में साइमन गो बैक के गगनभेदी नारे गूंज रहे थे। कमीशन के सारे ही सदस्य गोरे थे, एक भी भारतीय नहीं। लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन का नेतृत्व शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय ने किया। नौजवान भारत सभा के क्रांतिकारियों ने साइमन विरोधी सभा एवं प्रदर्शन का प्रबंध संभाला। लाहौर के एसपी स्कॉट ने लाठीचार्ज का हुक्म सुनाया और उपअधीक्षक सांडर्स जनता पर टूट पड़ा। भगत सिंह और उनके साथियों ने यह अत्याचार देखा, किंतु लाला जी ने शांत रहने को कहा।  इतने में स्कॉट स्वयं लाठी से लाला लाजपत राय को निर्दयता से पीटने लगा और वह गंभीर रूप से घायल हो गये। अंत में उन्होंने जनसभा में सिंह गर्जना की, मेरे शरीर पर जो लाठियां बरसाई गई हैं, वे भारत में ब्रिटिश शासन के कफन की अंतिम कील साबित होंगी। 18 दिन बाद 17 नवम्बर, 1928 को यही लाठियां लाला लाजपत राय की शहादत का कारण बनीं। भगत सिंह और उनके मित्र क्रांतिकारियों की दृष्टि में यह राष्ट्र का अपमान था, जिसका प्रतिशोध केवल खून के बदले खून के सिद्धांत से लिया जा सकता था।
भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव, जय गोपाल, दुर्गा भाभी आदि एकत्रि हुए। भगत सिंह ने कहा कि उसे मेरे हाथों से मरना चाहिए। आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और जयगोपाल सहित भगत सिंह को यह काम सौंपा गया। 17 दिसम्बर, 1928 को डीएसपी सांडर्स दफ्तर से बाहर निकला। उसे ही स्कॉट समझकर राजगुरु ने उस पर गोली चलाई। भगत सिंह ने भी उसके सिर पर गोलियां मारीं। अंग्रेज़ सरकार कांप उठी। अगले दिन एक इश्तिहार भी लाहौर की दीवारों पर चिपका दिया गया। लिखा था कि हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपिब्लकन एसोसिएशन ने लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध ले लिया है। साहिब बने भगत सिंह गोद में बच्चा उठाए वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ कोलकाता मेल में जा बैठे। राजगुरु नौकरों के डिब्बे में तथा साधु बने आज़ाद किसी अन्य डिब्बे में जा बैठे।  
केंद्रीय असैम्बली में दो बिल पेश होने वाले थे। जन सुरक्षा बिल और औद्योगिक विवाद बिल जिनका उद्देश्य देश में युवक आन्दोलन को कुचलना और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से वंचित रखना था। भगत सिंह और आज़ाद के नेतव में क्रांतिकारियों की मीटिंग में यह फैसला किया गया कि 8 अपै्रल, 1929 को जिस समय वायसराय असैम्बली में इन दोनों प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करें, तभी बम धमाका किया जाए। भगत सिंह ने यह कार्य भी बटुकेश्वर दत्त के साथ स्वयं करने का निर्णय लिया। पहला बम भगत सिंह ने और दूसरा दत्त ने फेंका और इनकलाब ज़िन्दाबाद का नारा लगाया। दत्त और भगत सिंह आसानी से भाग सकते थे, लेकिन वे स्वेछा से बंदी बने।  लाहौर में सांडर्स की हत्या, असेंबली में बम धमाका आदि केस चले और 7 अक्तूबर 1930 को ट्रियूनल का फैसला जेल में पहुंचाया गया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी, कमलनाथ तिवारी, विजय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, गया प्रसाद, किशोरी लाल और महावीर सिंह को आजीवन कारवास, कुंदनलाल को सात साल तथा प्रेमदत्त को तीन साल का कठोर कारावास मिला। दत्त और भगत सिंह को असेंबली बम कांड के लिए उम्रकैद का दंड सुनाया गया। 
23 मार्च, 1931 को भारत मां के ये तीनों बेटे बलिदान हो गए। इन्हें संध्या के समय फांसी दी गई, क्योंकि निश्चित तिथि 24 मार्च की प्रात: काल तक जनाक्रोश सहने की हिम्मत अंग्रेज़ शासकों में नहीं थी। जब ये तीनों शेर फांसी के लिए चले तो उनके होंठों पर ये पंक्तियां थीं-
दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल़्फत
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।