कैसे करें इन अच्छे दिनों का स्वागत

सुबह हो चुकी है। मुझे बता दिया गया है, कि यह वह सुबह है जिसमें बदलाव हो जाता है। अच्छे दिन आएंगे, का इंतज़ार खत्म हो जाता है। इन दिनों का चेहरा पहचान लो जिसकी पहचान आज से शुरू हो गई है। ऐसे दिन जिनमें हर आदमी ऐसे सांस भरता है, जो किसी गैस चैम्बर में बंद हो गई सांस जैसी नहीं लगती। ऐसे फूल बागों में नहीं खिलते, जिनका भाग्य केवल नेता के गले में हार या उसके माथे पर सजने वाले सत्ता के मुकुट का हिस्सा बनना नहीं होता। वह उन बागों में कभी नहीं गया। 
बहुत दिन से ऐसे मुकुटों ने उसमें अपना होने का एहसास देना बंद कर दिया है। ये मुकुट ऊंचे प्रासादों से खुसपुसाते या बगलगीर होते दिखाई देते हैं और सब को खबर मिलती है कि देश की आर्थिक नीति बदल गयी। देश का सरकारी क्षेत्र अपने पैरों पर खड़ा होने के काबिल नहीं रहा था। उसे चलने के नाम पर घिसटने का अभ्यास भी नहीं रहा था। उसे त्वरित गति से चलाना है तो, झुकती इमारत की बैसाखियों की तरह इसे निजी क्षेत्र की धन्ना सेठों के निवेश की बैसाखियां दे दो। केवल स्वचालित, डिजिटल और भारी भरकम क्षेत्र के निवेश में ही नहीं, बल्कि लाल डोरा क्षेत्र में भी जहां अभी तक गरीबों, पिछड़ों और दलितों को काम करने की ही इजाज़त थी। उनके कायाकल्प के लिए ऊंची बहुमंज़िला इमारतों से थैलीवान उतर आए। वे लाल डोरा क्षेत्र को भी देखते ही देखते मैरीन ड्राइव बना देंगे। 
अपने टूटे घरों के दरीचों से अपने पिछड़ेपन से संत्रस्त, भूख और अभाव से मारे हुए लोग इस नई सवेर का स्वागत करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें यह कह दिया जाएगा कि फिलहाल इन स्वचालित मशीनों और डिजिटल हो सकने की निपुणता हासिल कर लो, इसके बाद इन खाली कुर्सियों की आत्मा तुम्हें भी स्वीकार कर लेगी। तुम भी किसी काम के हो जाओगे, लेकिन फिलहाल, तुम्हें इन्तज़ार करना पड़ेगा। एक मूलभूत ढांचे के उभर आने का इन्तज़ार। इसके बाद देखना एक दिन प्रतीक्षारत करोड़ों लोगों की भीड़ की जगह भी बन जाएगी। 
दिल्ली दरबार ही नहीं, उनके अहलकार राज्यों के दरबारों से भी बरस के बजट, आय और व्यय के जितने आंकड़े सामने आते रहे, बताते रहे, होगा भई, करोड़ों रुपये का नया निवेश होगा। टूटी-फूटी सड़कों की मुरम्मत होकर नई और चौड़ी सड़कें बन जाएंगी, जो तुम्हारी अंधेरी बस्तियों के सामने फुर्र से गुज़रती नयी वातानुकूलित गाड़ियों के गुज़रने के साथ तुम्हें अपने अस्तित्व का एहसास देने लगेंगी। 
पर मेरा तुम्हारा अस्तित्व कहां है? कहीं यह न पूछ लेना क्योंकि वह अस्तित्व अभी इन्तज़ार की ड्योढ़ी में ठिठका खड़ा है। आज़ादी की पौन सदी तुमने गुज़ार ली। इसके लिए तुम्हें उत्सव धर्मी होने का संदेश भी मिल गया। यह उत्सव मुखर अभिव्यक्ति की सामर्थ्य का युग स्थापित हो जाने का है, इसलिए तुमने स्थापित कुर्सियों का जयघोष, और अन्धश्रद्धा के साथ अर्चना वन्दन सीख लिया। शोभायात्राओं में भीड़ जुटाना, और सामूहिक नृत्य करते हुए जयघोष करना सीख लिया, लेकिन अपने वंशवादी भाग्य विधाताओं से परेशान करने वाले सवाल करना नहीं सीखा। यही साहस नहीं बटोरा कि सत्ता के मीनारों पर बरसों से बैठे लोगों से पूछ सको कि ‘मोहतरम जनाब, आपने यह गारंटी तो दे दी कि अब देश में किसी को भुखमरी से मरने नहीं दिया जाएगा, लेकिन सबसे युवा इस देश में किसी ने आपसे यह नहीं पूछा कि इस देश में करोड़ों निठल्ले लोगों को उचित काम करने का अधिकार क्यों नहीं मिला?
आपने सत्ता अभिषेक के समय धार्मिक पुस्तकें हाथ में लेकर कसम खाई थी कि काम मांगने वालों में अब एक भी नहीं मिलेगा, जिसके पास उचित रोज़गार न हो। 
आदरणीय श्रीमान, आपकी सत्ता पारी तो खत्न हो गई, लेकिन करोड़ों लोग आज भी निठल्ले परेशान लंगर की कतारों, सस्ते राशन की दुकानों की कतार में खड़े क्यों दिखाई देते हैं? आपकी विकास नीतियों का अभीष्ट आज भी सकल घरेलू उत्पादन और आय की दौड़ का बढ़ना ही क्यों है? इस अन्ध दौड़ ने यह क्यों नहीं देखा कि इस प्रगति कामी देश में दो देश बन गए। एक चन्द शीर्ष पुरुषों का देश जो देश की हर आपदा, महामारी और मौत के सैलाब में अपने लिए अरबपति से खरबपति हो जाने का रुतबा पाते हैं और उधर तेज़ी से बढ़ता हुआ यह करोड़ों गरीबों का देश जो आपके द्वारा पैदा की गई राहत और रियायतों की संस्कृति को माथा नवा इन्हें ही अच्छे दिनों का विकल्प मान रहा है। 
अभावग्रस्तों के पुनरुत्थान के नाम पर इन्हें मुफ्तखोरी का वरदान मिल गया, और यथास्थितिवाद की ज़िन्दगी। इसका चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जब तुम्हारे करोड़ों युवक विदेशों की ओर पलायन करने लगे, तो इस नयी समस्या से जूझने के लिए वीज़ा प्रतिबंध बढ़ा दो, ताकि इससे बच निकलने वाली एक शार्ट संस्कृति पैदा हो जाए।