संसद में चले बेरोज़गारी और महंगाई पर विशेष सत्र

महंगाई और बेरोजगारी को पूरी तरह से कोई भी खत्म नहीं कर सकता। बढ़ती जनसंख्या और राजनीतिक और वैश्विक उथल-पुथल और संशय के बीच महंगाई और बेरोज़ागारी से निजात पाना असंभव है। इसके बावजूद कोरोना काल की मार का शिकार हुई बेरोज़गारी और महंगाई वर्तमान समय में चरम पर हैं। इनकी रोकथाम और भयावह स्थिति पर नियंत्रण के लिए केन्द्र सरकार को विपक्ष के साथ लगभग 15 दिन का विशेष सत्र अवश्य चलाना चाहिए। संसद का बजट सत्र भले ही तय समय से एक दिन पहले समाप्त हो गया हो, लेकिन कुल मिलाकर वह सुचारू रूप से चला। इसे विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए कि शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में हंगामे के चलते सत्र की समाप्ति पर सभापति वेंकैया नायडू को अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह कहना पड़ा था कि उच्च सदन ने इस बार अपनी क्षमता से बहुत कम काम किया। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मानसून सत्र इस कारण बर्बाद हो गया था, क्योंकि विपक्ष अपने उन सांसदों को लेकर संसद के भीतर-बाहर हंगामा करता रहा, जिन्हें उनके अशोभनीय आचरण के लिए निलंबित किया गया था। इस हंगामे के जरिये विपक्ष एक तरह से अमर्यादित व्यवहार को सही साबित करने की कोशिश ही कर रहा था। ऐसे रवैये को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
वैसे तो दो चरणों वाले संसद के बजट सत्र में जहां लोकसभा में 13 विधेयक पारित हुए और उसकी उत्पादकता सौ प्रतिशत से अधिक रही, वहीं राज्यसभा ने 11 विधेयकों को हरी झंडी दिखाई और उसकी उत्पादकता करीब 99 प्रतिशत दर्ज की गई। यह सिलसिला कायम रहे, इसके लिए सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों को प्रतिबद्धता दिखानी होगी। इस अवधारणा का एक सीमित महत्व ही है कि सदन चलाना सत्तापक्ष का उत्तरदायित्व है। नि:संदेह ऐसा ही है, लेकिन यदि विपक्ष हंगामा करने की ठान ले तो फिर सरकार सदन कैसे चला सकती है? सदन तो दोनों पक्षों के सहयोग और समझबूझ से ही चल सकता है। इस पर भी विचार करना चाहिए था कि विपक्ष  महंगाई और बेरोज़गारी पर चर्चा कराना चाह रहा था। आम तौर पर ऐसा इसीलिए होता है, क्योंकि उन्हें अपने पार्टी प्रमुख से यही सब करने को कहा गया होता है। जब देश कई गंभीर समस्याओं का सामना कर रहा है, तब संसद में उन पर गहन विचार-विमर्श होना चाहिए। यह तब होगा, जब सत्तापक्ष सकारात्मक तो विपक्ष रचनात्मक रवैये का परिचय देगा और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर आम सहमति की राजनीति पर बल दिया जाएगा।
आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) भारत की अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाली संस्था है। उसके अनुसार दिसम्बर 2021 में बेरोज़गारी दर बढ़कर 7.9 फीसदी हो गई। नवम्बर में यह 7 फीसदी थी। एक साल पहले दिसम्बर 2020 में बेरोज़गारी दर 9.1 फीसदी से ज्यादा थी। हाल के दिनों में अनुभव किए गए स्तरों की तुलना में भारत में बेरोज़गारी दर में वृद्धि हुई है। 2018-19 में बेरोज़गारी दर 6.3 फीसदी और 2017-18 में 4.7 फीसदी थी।
लोगों को याद आए तो सरकार ने हाल ही में राज्यसभा को बताया कि 2018-2020 के बीच देशभर में लगभग 25 हजार लोगों ने बेरोज़गारी और कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या की है। व्यापार में नुकसान और नौकरी न मिलने की वजह से देश में परिवार की ज़िम्मेदारी का बोझ लादी हुई जनता मानसिक रूप से परेशान है। उत्तर प्रदेश के हज़ारों युवा ऐसे है जो दो साल से बेरोज़गार हैं। लोगों को ठेके पर रख हटा दिया गया। नगर निगम लखनऊ में ही एक झटके में साढ़े तीन हजार ठेका सफाई कार्मिकों को हटा दिया गया। लगभग इसी तरह की स्थिति और कई जगह देखी गई। ऐसे में इस तरह के बेरोज़गार युवकों का भविष्य अधर में लटका है। रेलवे भर्ती में 1 लाख 40 हज़ार पदों से सापेक्ष अढ़ाई करोड़ लोगों ने आवेदन किया था। यह देश में बढ़ती बेरोज़गारी का बड़ा उदाहरण है। बेरोज़गारी की परिभाषा समझना चाहें तो जब देश में कार्य करने वाली जनशक्ति अधिक होती है और काम करने पर राज़ी भी होती है परंतु उन्हें प्रचलित मजदूरी दर पर कार्य नहीं मिल पाता है। इसी अवस्था को बेरोज़गारी कहते हैं। 
विशेषज्ञों की मानें तो उनके अनुसार जिस तरह की नीतियां हम अपना रहे हैं, उससे अर्थव्यवस्था में रोज़गार नहीं पैदा होता है। सन् 1991 के बाद हमने नई आर्थिक नीतियों को अपनाया और किये बाज़ारीकरण के आधार पर हैं। बाज़ार आगे है और समाज पीछे है। देश में इस समय पैट्रोल, डीज़ल, एलपीजी सिलेंडर, आईजीएल, दूध, राशन और सब्जी समेत रोजमर्रा की सभी चीजों के दाम में भारी उछाल देखने को मिल रहा है। उसके बावजूद महंगाई को लेकर अब तक देश में विरोध के स्वर प्रखर नहीं हुए हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’,  पाकिस्तान की सियासत और  रूस-यूक्रेन युद्ध ही ज्यादा चर्चा में हैं। महंगाई को लेकर कोई चिंतन नज़र नहीं आ रहा है। जिस तरह संप्रग की सरकार में महंगाई को लेकर सड़क से संसद तक हंगामे की तस्वीर नज़र आती थी, वह तस्वीर मोदी सरकार में नज़र नहीं आ रही है जबकि इस दौर में सोशल मीडिया जैसा मजबूत हथियार महंगाई को कुछ मिनटों में ही बड़ा मुद्दा बना सकता है। ऐसी स्थिति में हमें अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल की स्थिति का अवलोकन अवश्य कर लेना चाहिए। इन तीनों देशों में महंगाई और बेरोज़गारी की अनदेखी गई। परिणाम यह कि श्रीलंका में हाहाकार मची है। पाकिस्तान में इमरान को सत्ता के बाहर का रास्ता देखना पड़ा है। नेपाल आर्थिक संकट की चपेट में आ रहा है। भारत को भविष्य की चिन्ता करते हुए महंगाई और बढ़ती बेरोज़गारी को लेकर जल्द ही कोई दूरगामी रणनीति पर विचार करना चाहिए।