ऩफरत की खेती

पहले उत्तर प्रदेश के शहर अयोध्या में बाबरी मस्जिद एवं अब वाराणसी (लखनऊ) में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर देश भर में जो साम्प्रदायिक माहौल उत्पन्न किया जा रहा है, उसकी सचेत वर्गों की ओर से तीव्र आलोचना की जा रही है। बाबरी मस्जिद का मामला भी 100 वर्ष से अधिक समय तक चला था। चाहे इस संबंध में कुछ कट्टरपंथी संगठन तो अपने लक्ष्य में सफल हो गये थे परन्तु इस घटनाक्रम ने एक बार तो देश को तार-तार करके रख दिया था। चाहे उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी परन्तु भारतीय जनता पार्टी की ओर से उत्साह दिये जाने के कारण विश्व हिन्दू परिषद तथा ऐसे ही अन्य संगठनों ने भीड़ जुटा कर दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था जिससे पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गये थे। विश्व भर में भारतीय लोकतंत्र को लज्जित होना पड़ा था। 
स्वतंत्रता के बाद बड़ी मेहनत के साथ प्रत्येक वर्ग के नेताओं ने एक ऐसा संविधान बनाया था जिसमें सभी लोगों के लिए समानता, धर्म-निरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक भावनाओं का विस्तृत उल्लेख किया गया था जिस पर प्राय: आज भी गर्व किया जाता है, परन्तु जब कुछ संकीर्ण विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों एवं साम्प्रदायिक संगठनों की ओर से स्थापित धार्मिक स्थानों को लेकर भावनाओं को भड़काया जाये तथा ऐसे मामलों पर दंगे-फसाद शुरू हो जाने की आशंका हो तो सचेत नागरिकों को चिन्ता होना स्वभाविक है। सोचने वाली बात यह है कि यदि इसी प्रकार सदियों पुराने मामले उभार दिये जाते रहे तो समूचा देश ही अग्नि के दहाने पर आ जाएगा। मौजूदा आधुनिक पथों पर अग्रसर देश के लोगों को यदि सदियों पुराने किस्से सुना कर उनके घावों को  कुरेदा जाएगा तो भारी नुकसान होना तय है। इससे धर्म-निरपेक्ष लिखित संविधान की भावनाएं ही तिनके के समान निर्बल हो जाएंगी। ऐसी आशंकाओं को देखते हुये ही देश की संसद ने 1991 में पूजा-अर्चना संबंधी एक कानून पारित किया था जिसमें स्पष्ट तौर पर यह कहा गया है कि देश की आज़ादी के समय से स्थापित धार्मिक स्थानों में अब किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता। चाहे बाबरी मस्जिद के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला इसके बाद आया था परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले में भी बाबरी मस्जिद को गिराये जाने की कटु आलोचना की गई थी तथा इस फैसले में यह भी कहा गया है कि ऐसा कोई अन्य विवाद न शुरू किया जाये। कुछ संगठनों के अनुसार 12वीं शताब्दी में कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर इलतुतमश तथा सिकन्दर लोधी के समय से लेकर मुगलों के 400 वर्ष के शासन के समय में हज़ारों मंदिरों को तोड़ कर मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया था। वे तो विदेशी आक्रमणकारी थे तथा विदेशी धरती से आये शासक थे, परन्तु आज बहुत-से संगठन अपने बहुमत के बल पर विगत शताब्दियों के सभी बदले लेने के लिए उतारू हैं। ऐसे तत्वों को देश के मौजूदा अधिकतर शासक भी प्रोत्साहित कर रहे हैं। ऐसी सोच पर क्रियान्वयन करते हुये देश में धर्म-निरपेक्षता एवं लोकतंत्र का पूरी तरह से हृस हो जाएगा। इसके हालात आज भी 12वीं शताब्दी में जी रहे अधिकतर अ़फगानों जैसे हो जाएंगे। विगत शताब्दियों में भी अ़फगानों का ऐसा ही हाल होते देखा गया है। ऐसे बदले लेने की सोच कबीलों जैसी तो कही जा सकती है, अग्रगामी सभ्य समाज की नहीं परन्तु आज भारत के शासकों के सिर पर ऐसा साम्प्रदायिक भूत सवार हुआ प्रतीत होता है।
हम यह विश्वास के साथ कह सकते हैं कि बोई जा रही ऐसी ऩफरत की खेती को ऩफरत के ही फल लगेंगे, जो पूरे देश को बीमार करने के समर्थ हो सकते हैं। बाबरी मस्जिद के बाद अब जिस तरह वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद के मामले को हवा दी जा रही है, यह हवा देश के लिए ज़हरीली साबित हो सकती है। यदि आज कुर्सियों पर बैठे राजनीतिज्ञों द्वारा देश के हर पक्ष से विकास करने के अपने दावों के बावजूद ऐसा साम्प्रदायिक विष फैलाया जाता है तो यह कैंसर बन कर देश को पूरी तरह खोखला करके रख देगा। उनका अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव भी बौना होकर रह जाएगा। बात सिर्फ साम्प्रदायिक दंगों की नहीं है, इससे भी बड़ी बात उन राजनीतिक पार्टियों तथा राजनीतिज्ञों की है, जो ऐसे माहौल को उत्साहित करने में सहायक हो रहे हैं। ऐसी सरकारें लोकतंत्र के तराज़ू पर भी बेहद न्यून हो गई प्रतीत होती हैं।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द