छक्कन अभी ज़िन्दा है

जवानी के दिनों में उन्हें किसी तुरत-फुरत खिलाड़ी की तरह अपने-आप को चुस्त-दुरुस्त और हर दम तैयार रहना अच्छा लगता था। तब वह महसूस करते थे कि चाहे कभी क्रिकेट के मैदान में जाकर वह एक गिल्ली भी उखाड़ नहीं पाये, लेकिन वह छक्कन हैं अर्थात् हर कठिन बाल पर छक्का मार सकने वाला खिलाड़ी, छक्कन। अभी पिछले दिनों सुना कि क्रिकेट के लीग खेलों में एक सेवा-निवृत्त खिलाड़ी ने खेलने का अवसर मिलने पर सीमित ओवरों वाले इस मैच के आखिरी ओवर में वह कहर का खेल दिखाया कि दर्शकों ने दांतों तले उंगली दबा कर कहा, तोबा भली। हारा हुआ मैच जीत लिया गया। उसके छक्कों की सहायता से। 
खैर जैसा छक्कन की ज़िन्दगी में भी रहा, इसका श्रेय उसे नहीं मिला। मैच की रिपोर्ट छपती है, बाद में अभिनंदन समारोह भी हुआ। मान-प्रतिष्ठा के तगमे बंटे। सुना कुछ नकद पुरस्कार भी मिले। चैनलों पर चर्चा चली, लेकिन उन खिलाड़ियों की, जिनका सरकारे दरबारे रसूख था। जिनकी अखबार में खबर देने वाले, या चैनलों पर चेहरा दिखाने वालों से दांत काटी रोटी वाली दोस्ती थी। इनाम वे ले गये, उसे कौमों में जगह मिली, लेकिन इससे वह निराश नहीं हुआ, जैसे इस देश का आम आदमी निराश नहीं होता। क्या इसी बात से वह आखिरी गेंद तक खेलना बन्द कर दें, कि वे कभी कौमों से शीर्षक नहीं बन सके?
जिन लोगों ने इस खेल के बाद पर्दे के पीछे अपना खेल खेला। इनाम समारोह आयोजित प्रायोजित करवाये। खबर की रपट लगाने या चलाने वालों के साथ दोस्ती की। दोस्ती का मतलब उनके आगे पीछे घूमना होता है। जीवनीकारों को पटाना होता है कि वे उनके लिए किताब या समीक्षा के नाम पर एक ऐसा प्रशस्ति वाचन लिख दें कि जिसके हर पृष्ठ पर लिखा रहे, हर बाल पर छक्का, या हर पंक्ति में उनका ज़िक्र बाकमाल।  छक्कन ऐसा नहीं कर पाये। न भाग्य विधाताओं का पोर्ट-फोलियो उठा सके। न जो उनके लिए कुछ कर सकते थे, उनका चंवर झुला सके। लेकिन इसी कारण वह ज़िन्दगी की दौड़ में फिसड्डी रह गये। अब क्या वह हार कर एक किनारे हो जायें? ‘बाज़ार में बैठे हैं, लेकिन खरीददार नहीं हैं’ की मुद्रा अपना लें। पिछले कुछ दिनों में हर वस्तु की कीमतें इस प्रकार आसमान छूने लगी हैं, कि देखो, न हर वस्तु जैसे उन्हें कहती है, मुझे हाथ न लगा लेकिन इसी बात से क्या वह पराजय बोध से त्रस्त हो जायें? एक किनारे बैठ कर जग का मुजरा देखने लगें?  
या कुछ अन्य पराजित और उदास लोगों की तरह ज़िन्दगी की दौड़ से बाहर हो जायें? देवदास बनने का युग लद गया बन्धु! लेकिन अब भी उनका इलाका उड़ता इलाका क्यों है? बहुत से हारे हुए लोग महंगी से जाली सिन्थैटिक गोलियों के पंखों पर सवार होकर बनावटी उड़ान भरने के अंदाज़ में जीते हैं यहां। जो उड़ नहीं सकते, वे भाग लिये। जमा जत्था बेच-बाच कर कानूनी गैर-कानूनी पार-पत्र की सहायता से विदेशियों की धरती की ओर भाग लिये। यह धरती चमकते सोने की धरती है, जिसका डालर जब उनके देश में आता है तो उसका मोल दून सवाया हो जाता है। चंद डालर कमा कर इस धरती पर ले आये। विदेशी धरती पर क्रीत दास का रुतबा रखने वाले अपने देश में आ कर राजा से रंक हो गये। वहां उनके देश में कठपुतली की तरह नाचने वाले अपनी  धरती पर लौट अपना भाग्य बदल जाने की कहानियां सुनाने लगे। ऐसी कहानियां सुनाने वाले उन्हें आजकल बहुत मिलने लगे हैं। उन्होंने इस डालर की मामूली कमाई से अपने यहां आकर पीछे रह गई अपनी अंधेरी खोलियों को जहां सांस भरते हुए भी कभी दम निकलता था, भव्य प्रासादों में बदल दिया है। अब उसके साथ चित्र खिंचवा फूले नहीं समाते। उनके नाते रिश्तेदार जो यहां लोगों की लम्बी कतार के आखिरी व्यक्ति भी न बन सके, अपने इन पलायन कर गये अंतरंगी की सहायता से विदेश घूम आये। अब छक्कन को लौट यूं बताते हैं कि देखो, तू तो इन्हीं पिछड़ी गलियों का वासी रह गया। अब तो हमारे परिचय में भी विदेश घूमे या विदेश रहे का टैग लग गया। 
चलिये इन टैग पहने लोगों से प्रभावित हो जाइए। चाहो तो उनके प्रति प्रशंसा बोध से भर जाओ, लेकिन इस सब से परे छिटका हुआ छक्कन आज भी महसूस करता है कि वह ज़िन्दा है। इस भीड़ से न जुड़ पाने के बावजूद है तो वह इसी भीड़ का वह मामूली सा हिस्सा, जो सही बात उठाने की ताब रखता है, कोई सुने न सुने। तभी तो देखो वह ईमानदारी से कतार में खड़ा हो इस चुनाव में भी वोट डाल आया। एक बड़बोलेपन से छीन कर कुर्सी दूसरे बड़बोलेपन के दूसरे चेहरे के हवाले कर दी। जी हां, यूं ज़िन्दा है इस देश का छक्कन।