एक से चेहरे वाले लोग

छक्कन हमें ज़िन्दगी के शुरू में मिले थे। तब अपने अन्दर उत्साह और वलवलों का तूफान उमड़ता था। छक्कन का हर बात में छक्का मारने का अंदाज़ हमें पसंद आया था। वह कहते, अपना देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र नहीं, दुनिया का सबसे आदर्श लोकतंत्र है। हम अपनी उम्र की गदहापच्चीसी में थे, श्रद्धा से विनत हो उनका यह उवाच स्वीकार कर लेते। अब ‘आया राम गया राम’ किस्म के नेताओं का वंशवादी शासन देख चाहे हमें उनका यह छक्का किताबी लगने लगा है, दलबदल नेताओं की जमात ने कुर्सी की छीन-झपट के इन सब बरसों के तांडव में राष्ट्रीयता और जनसेवा को ताक पर रख दिया है। कट्टरता और कटघरावाद को गले से लगा लिया है। आरक्षण की सुरक्षा पांत को अपना कवच कुण्डल बना लिया है। ‘होता है तमाशा दिन रात मेरे आगे’ के अंदाज़ में हर चुनाव के बाद यही सब घटता देखते हैं, तो पाते हैं हमने तो यूं आज़ादी की उपलब्धियों का अमृत महोत्सव मना लिया, लेकिन छक्कन के वे सब छक्के हवा-हवाई हो गये। अब नेताओं को हत्या से लेकर तस्करी के अपराध तक में जेल में बैठा देखते हैं। सोचते हैं, इनके जीवन को अपना ज्योति स्तम्भ मान इनकी पूजा अर्चना कैसे करें? 
नई पीढ़ी को क्या अब यही लोग प्रेरणा देंगे, नहीं कि हे भगवन, तुम इन नौजवानों को इन महामानव नेताओं जैसा न बनाना, जो अपने आत्म केन्द्रित सपनों की मण्डी में इनकी हर इच्छा नीलाम कर देते हैं। रोटी, कपड़ा और रोज़गार पाने की उसकी मामूली आकांक्षाओं को भी आकाश कुसुम बना देते हैं।   वक्त यूं ही बीतता गया। छक्कन की हर सपने पर ‘जय हो’ का छक्का मारने की आदत तो न गई, लेकिन कितनी देर तक वह अपनी बाऊंडरी पार न कर सकने वाली गेंदों को छक्का घोषित करता रहते। यहां तो यह आलम रहा है कि लोग अपनी किताब छपवाते ही उसके प्रकाशक को साहित्य संस्था बनाने की प्रेरणा दे उससे पुस्तकों का विमोचन और अभिनंदन समारोह एक साथ करवा लेते हैं। अपनी गैलरी बुक करवा अपनी चित्रकला की प्रदर्शनी बाद में करते हैं। उनकी चित्रकला के मूल्यांकन के बंधे-बंधाए समीक्षा पत्र और टिप्पणियां पहले प्रसारित कर देते हैं। नेता का बेटा नेता, अधिकारी का बेटा अधिकारी तो होता ही रहा है। अब ये कलाकारों के बेटे भी जन्मजात कलाकार होने लगे। इन लोगों की बीवियां रसोई में आटा सानती-सानती महादेवी से पीछे मुड़ मीरा तक बन गईं। 
अभिनंदनों के इस कारवां का सर्वाधिकार सुरक्षित करवा के ललित कलाओं में यह अनन्य उपासक कब राजनीति के चोरों में भी मोर बन गये, कुछ पता नहीं चला? वैसे आजकल कुछ भी पता नहीं चलता, कब छक्के मारता हुआ छक्कन अपने अन्दाज़ के घिसपिट जाने के कारण लद्दड़ बन गया, हमें खबर ही न हुई। 
बस हमें तो कभी-कभी यही लगता है, ‘तू ही राधा तू ही मीरा’ के अन्दाज़ में अपने छक्कन ही कभी लद्दड़ हो जाते हैं और इन नारों के पीछे उच्छिष्ट की तरह घिसटते चले जाते हैं। रुत बदले तो यही लद्दड़ फिर छक्कन हो मंचासीन हो फरमाते हैं , देखिये इस बोसीदा युग को तो बदलना ही है। हम क्रांति दूत हैं, राह में खड़े किसी भी लद्दड़ की परवाह न करने वाले।  मंच पर नज़र आयें तो छक्कन, और राशन डिपो के फ्री आवंटन की कतार में लगे हैं तो बने लद्दड़।  भाई जान, इन दोनों के सूक्ष्म अंतर को पहचानना है, तो आज के बुद्धिजीवियों को देख लीजिये। इनमें भी छद्म और सही का फर्क नहीं हो पाता। 
कॉफी हाऊस से लेकर पब तक ये कुर्सी की टेक लगा कर जब अपनी बात करते हैं तो लगता है जैसे वे अपने हमसायों का ज़िक्र कर रहे हैं और फिर जब अपने मालिक के दरबार में पेश होते हैं तो उन्हें ही नीत्शे और कीर्केगार्ड का अवतार मान उनकी चरणवन्दना कर आते हैं। अब बताइए उनका छद्म रूप कहां था और सही रूप कहां?
खैर इस रूप की तलाश तो बाद में कर लेंगे, अभी सच और झूठ का निपटारा कर सकने वाले एक कर्णधार ने हमें जो बताया है, उसे सुन लीजिये—महंगाई, गरीबी-अमीरी और भाई-भतीजावाद की समस्या से परेशान हो क्यों हीनभावना  से मरे जा रहे हो? यह दुर्भाग्य केवल तुम्हारे देश का ही नहीं, सब देशों का है। अरे यह तो अब एक ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय सच्चाई बना दी गयी कि इसे तुम बड़े-बड़े और महाशक्ति देशों में भी पाओगे। वैसे यह मामूली बात है कि तुम इस देश में वंचितों, प्रवंचितों, अभागों और प्रताड़ितों में से एक हो। वहां जाओ तो उन देशों में भी नम्बर दो के नागरिक रहोगे। खैर सन्तुष्ट हो जाओ कि तुम सर्वहारा की एक लम्बी शृंखला का हिस्सा हो? तुम ही छक्कन हो और तुम ही लद्दड़। चाहो तो सार्वजनीन हो जाओ।