कानूनों एवं अदालतों के माध्यम से आगे बढ़ता हिन्दुत्व-2

(कल से आगे)
यही कारण है कि अम्बेडकर के नव-बौद्ध अनुयायियों ने धर्म-परिवर्तन के बाद कभी हिंदू होने की कानूनसम्मत श्रेणी पर आपत्ति नहीं की। इसके पीछे की राजनीति भी समझने की आवश्यकता है। नव-बौद्धों को अस्सी के दशक तक अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त नहीं था, और न ही उन्हें आरक्षण के लाभ मिलते थे। सिख धर्म स्वीकार करने वालों को पचास के दशक से ही आरक्षण के लाभ मिल रहे थे। यह एक ऐसा उदाहरण था जिससे बौद्ध बने अम्बेडकर के अनुयायियों को उम्मीद बंधी रहती थी कि आखिरकार उन्हें भी अनुसूचित जातियों में शामिल कर लिया जाएगा। देर से सही, पर हुआ ऐसा ही। नब्बे के दशक में संविधान संशोधन करके उन्हें अनुसूचित जाति मान कर आरक्षण देने का फैसला किया गया। ऐसा करते ही कानूनी रूप से उनका शुमार उन हिंदू जातियों में हो गया जिनके बारे में माना जाता है कि उन पर परम्परा ने अस्वच्छ पेशे थोप दिये थे। इस तरह नव-बौद्धों ने ़कानूनी दृष्टि से हिंदू होना स्वीकार करके धर्मांतरण के बावजूद हिंदू दायरे में अपना विनियोग होने दिया। 
यह जानना भी दिलचस्प है कि स्वयं अम्बेडकर ने इस्लाम और ईसाइयत अपनाने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए बौद्ध धर्म चुनने के बाद क्या कहा था? उनके जीवनीकार धनंजय कीर उनका यह कथन उद्धृत करते हैं, ‘मैं देश के लिए सबसे कम हानिकारक रास्ते का चुनाव करूंगा। बुद्ध धर्म अपना कर मैं देश का सबसे ज़्यादा भला कर रहा हूँ, क्योंकि बुद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही हिस्सा है। मैंने ध्यान रखा है कि मेरे धर्मांतरण से इस धरती की संस्कृति और इतिहास को कोई नुकसान न पहुंचे।’ निश्चित रूप से अम्बेडकर के इस वक्तव्य का कम से कम एक मतलब तो यह निकाला ही जा सकता है कि इस्लाम और ईसाइयत के भारतीय धर्म न होने के सावरकर के सूत्रीकरण पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। कानूनी रूप से हिंदू दायरे में जैसे ही हिंदू परम्परा से विद्रोह करने वाले धार्मिक समुदाय आते हैं, वैसे ही हिंदू बहुमत की रचना-प्रक्रिया और पुष्ट हो जाती है। आज़ाद भारत में धर्म और कानून की अन्योन्यक्रिया का अध्ययन करने वाले दो विद्वानों के अनुसार संविधान की भाषा और बाद में बने कानूनों की भाषा पर अगर ़गौर किया जाए तो भारत की सरकार ने हिंदू होने की परिभाषा वही स्वीकार की है जो सावरकर ने दी है—हिंदू वह है जो भारत में जन्मे धर्मों का अनुयायी है। 
इस तरह हिंदू होने की दो परिभाषाएं सामने आती हैं—एक वे जो धर्म से हिंदू हैं, और एक वे जो कानूनन हिंदू हैं। 
जिस हिंदू बहुमत का आग्रह संघ परिवार करता है, उसे बनाने में किस तरह भारत के उदारतावादी लोकतंत्र का हाथ है, इसे समाजशास्त्री दीपंकर गुप्ता ने इस प्रकार सूत्रबद्ध किया है, ‘जिसे हम हिंदू ‘बहुमत’ कहते हैं, वह दरअसल आज़ादी के बाद बने इन कानूनों की देन है। इनके बनने से पहले न केवल विवाह बल्कि उत्तराधिकार और अभिभावकत्व के मानक भारत में एक जगह के दूसरी जगह से और एक समुदाय के दूसरे समुदाय से अलग होते थे। कहीं उत्तराधिकार मिताक्षरा प्रणाली से तय होता था तो कहीं दयाभाग से, और इनमें से हर प्रणाली के पास विभिन्न विचार-सम्प्रदाय थे। न ही इस बात से इन्कार किया जा सकता है कि कई मातृवंशीय समुदायों को भी इस नये बने एकसमान मानक को स्वीकार करना पड़ा। ... पचास के दशक के मध्य से पहले हिंदू अगर तरह-तरह के रीति-रिवाजों के साथ बिखरे हुए नहीं थे तो और क्या थे? आज जिस समुदाय को हम विशाल ‘बहुमत’ मानते हैं, वह इन्हीं कानूनों की देन है और इनसे पहले उसका कोई वजूद नहीं था। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यह ‘बहुमत’ उदारतावादी लोकतंत्र की रचना है। संविधान की सतर्क निगाह के तहत बहुत से मिल कर एक हो गए हैं।’
 दीपंकर गुप्ता के इस अवलोकन और अम्बेडकर व सरदार हुकुम सिंह के बीच हुई बहस की तस्दीक हमें कुमकुम संगारी द्वारा बहुसंस्कृतिवाद पर व्यक्त किये गए विचारों में मिलती है। वह ध्यान दिलाती हैं कि धार्मिक बहुलता को बुलंद करने के नाम पर बने कानूनों ने किस तरह धर्मों, ़खासकर हिंदुओं के समरूपीकरण का रास्ता साफ किया है और इससे जो नतीजा निकला है, वह अपने किरदार में बिल्कुल हिंदुत्व जैसा ही लगता है। संगारी के अनुसार, ‘धार्मिक समूहों को विनियमित करने वाले उन विवाह कानूनों पर ़गौर कीजिये जिन्हें धार्मिक बहुलतावाद की मिसाल माना जाता है। असलियत में इन कानूनों ने पांच तयशुदा धार्मिक पहचानों का समरूपीकरण करने में मदद की है। ये हैं हिंदू, इस्लामिक, ईसाई, यहूदी और पारसी।... हिंदू विवाह कानून ने तो अज्ञेयवादियों, आंशिक रूप से धर्मांतरितों, नास्तिकों या स्वयं को ‘हिंदू’ की तरह  परिभाषित करना न पसंद करने वालों के लिए दरवाज़े पूरी तरह से बंद कर दिये हैं। यह सब तो उस हिंदुत्व जैसा लगता है जो अतीत के सभी धार्मिक विभेदों और असहमतियों को हिंदुओं के भीतरी विभेदों और असहमतियों की श्रेणी में डाल देता है—जैसे कि आदिवासी अधूरे हिंदू हों, बौद्ध और सिख अलग हुए हिंदू हों जिन्हें बीच-बीच में शामिल किया जा सकता हो और एक ऐसा हिंदू धर्म पेश करता है जिसमें आत्मसातीकरण की महान शक्ति है और जो म़ुख्तल़िफ परम्पराओं और रिवाजों को पचाने का अभ्यस्त हो। हिंदुओं की इस अति-समावेशी और अति-लचीली कानूनी परिभाषा ही अनुसूचित जातियों को परिभाषित करने के केंद्र में है।  
ज़ाहिर है कि सेकुलर कानून और अदालतों का पहला और प्रत्यक्ष म़कसद हिंदू बहुसंख्यकवाद को प्रोत्साहन देना नहीं था। जब इनकी स्थापना हुई तो उसमें तत्कालीन हिंदू राष्ट्रवादियों की भूमिका लगभग नहीं के बराबर थी। लेकिन, आज हमारे पास घटनाओं की पश्चात-दृष्टि है, और हम देख सकते हैं कि ये प्रक्रियाएं जिस तरह से चलीं, उनका एक फलितार्थ हिंदू बहुसंख्यकवाद को बल देने में निकल सकता था। इस इतिहास पर नयी नज़र डालने पर हमें भीखू पारिख जैसे राजनीतिक सिद्धांतकार का वह माऩीखेज अवलोकन याद आता है जिसमें उन्होंने नेहरू और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी भारत की पहली और ज़बरदस्त बहुमत से निर्वाचित सरकार की आत्मछवि को ‘हिंदू’ करार दिया था। पारेख का यह प्रेक्षण स़ाफ तौर पर इशारा करता है कि भारतीय संदर्भ में लोकतांत्रिक बहुमत पहले दिन से ही बहुसंख्यकवाद की तरह परिभाषित होने के अंदेशे से ग्रस्त था। पारेख के साथ-साथ त्रिलोकी नाथ मदन भी इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि नेहरू सरकार अपने सेकुलर और आधुनिकतावादी इरादों के कार्यान्वयन में कई बार ़खुद को राजनीतिक बहुमत के आधार पर चुनी गयी सरकार न समझ कर हिंदू बहुसंख्या की नुमाइंदगी करने वाली सरकार की तरह आचरण करती नज़र आती थी — ‘नेहरू का राज्य हिंदुओं के संदर्भ में हिंदू की भांति ही आचरण करता था और हिंदुओं पर अपने हक का दावा करने में भी वह हिंदू राज्य की तरह ही था। ... क्योंकि न केवल नेहरू और उनके साथी हिंदू थे बल्कि ़खुद को हिंदू मानते भी थे। ... इसलिए उन्होंने हिंदुओं के सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप किये, पर मुसलमानों और यहां तक कि सिखों के संदर्भ में वैसे ही हस्तक्षेप करने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाये।’ (समाप्त)
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफैसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं)