अमृत महोत्सव में सभी को चिकित्सा सुविधा का अमृत क्यों नहीं ?

हर भारतवासी और राष्ट्रभक्त के लिए गौरव का अवसर है यह, कि हमारा देश स्वतंत्रता का 75वां वर्ष मना रहा है। हर हिन्दुस्तानी यह चाहता है कि युगों-युगों तक हमारा देश स्वतंत्र रहे। लाखों बलिदानों दिये, यातनाएं सहीं, महिलाओं के सम्मान की बलि देकर हमने आज़ादी प्राप्त की। प्रधानमंत्री जी ने इसे अमृत महोत्सव का नाम दिया है। वास्तव में ही यह अमृत है, पर इसके साथ ही अनेक यक्ष प्रश्न जुड़े हैं। आज़ादी का अमृत क्या हर भारतवासी को मिला? देश के आमजन की आवश्यकता रोटी के साथ शिक्षा और चिकित्सा है। दुखद सत्य यह है कि अभी भी शिक्षा का उजाला हर व्यक्ति को नहीं मिला। कारण गरीबी, मजबूरी या अज्ञानता भी है। रोटी तो जैसे कैसे मिल जाती है, फिर भी सरकारी आंकड़े यह हैं कि आज भी देश के करोड़ों लोग रात को भूखे सोते हैं। बिना छत के किसी फुटपाथ पर जीने-मरने को मजबूर हैं और ये फुटपाथ वाले अनेक दुर्घटनाओं का शिकार भी होते हैं। 
सबसे बड़ा प्रश्न है कि आज भी देश के असंख्य लोग चिकित्सा सुविधाओं से वंचित क्यों हैं? भारत सरकार और सभी प्रदेशों की सरकारें क्या बता सकती हैं कि उनके अस्पतालों में डाक्टरों की कमी कितनी है? पैरा मेडिकल स्टाफ  तो डाक्टरों से भी कम है। एक नई बीमारी उपजी है, जितने भी नियमित कर्मचारी रिटायर हो जाएं, उनके स्थान पर ठेके पर या आउटसोर्सिंग से कर्मचारी भर्ती किए जाते हैं। आउटसोर्सिंग का सीधा अर्थ यही है कि एक ठेकेदार को हज़ारों लोगों की किस्मत का मालिक बना दिया जाए। मजबूर युवा जिस मूल्य पर कोई उन्हें खरीदना चाहे, उसी पर बिकने को तैयार रहते हैं। कोई श्रम कानून उन्हें संरक्षण नहीं दे पाता। राज्य कर्मचारी बीमा योजना का उन्हें कोई लाभ नहीं। स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करते हुए भी उन्हें कोई भी स्वास्थ्य सेवा अपने लिए नि:शुल्क नहीं मिलेगी।
 दर्द भरा प्रश्न यह है कि क्या कभी हमारे शासकों ने, हमारे विधायकों, सांसदों और मंत्रियों ने किसी गरीब की हालत देखी है जो किसी सरकारी अस्पताल के अंदर बाहर धक्के खाता है, जिसे न दवाई मिलती है, न डाक्टरी परामर्श? मुझे लगता है कि इसमें डाक्टरों का कोई दोष नहीं। कोई विधायक या सांसद न रहे अथवा इस्तीफा देकर चला जाए तो उसके लिए नियम है कि छह महीने के भीतर ही उस पद पर भर्ती की जाए। उप-चुनाव होते हैं और विधायक-सांसद चुन लिए जाते हैं। लेकिन जब कोई डाक्टर या किसी भी विभाग के कर्मचारी स्वास्थ्य सेवाओं से सेवानिवृत्त होते हैं तो उनकी जगह भर्ती क्यों नहीं की जाती? जब एक व्यक्ति को दस व्यक्तियों का काम करना पड़ेगा, ठेके के कर्मचारी को भरपेट रोटी भी नहीं मिलेगी? काम के घंटे बारह से अधिक भी हो सकते हैं, ऐसे में वह मजबूरी में हाथ तो हिलाएगा लेकिन संतोषजनक काम नहीं कर पाएगा। 
सरकारों में हिम्मत है तो यह बतायें कि स्वास्थ्य विभाग के सभी अस्पतालों में, प्रदेशों में और देश में डाक्टरों की कमी कितनी है? पैरा मेडिकल स्टाफ  कितना कम है? आउटसोर्सिंग  एजेंसियों पर किस-किस अधिकारी या नेताजी का कब्जा है? ऐसे कौन-से सरकारी अधिकारी हैं जो आउटसोर्सिंग के कर्मचारियों का वेतन, काम के घंटे और अवकाश आदि तय करते हैं? क्या सरकार यह नहीं जानती कि कम से कम हर राज्य में स्नातकोत्तर शिक्षा और चिकित्सा अस्पताल होना चाहिए? क्या सरकार नहीं जानती कि चंडीगढ़ का जो पीजीआई है, वहां चार प्रांतों के रोगियों को इलाज के लिए लाया जाता है? क्या भारत सरकार भूल गई कि पीजीआई के साथ लगते जिलों में एक-एक सुपरस्पेशलिटी सरकारी अस्पताल होना चाहिए, जहां से केवल गंभीर रोगी ही पीजीआई में भेजे जाएं? आज भी चंडीगढ़ पीजीआई में पचास प्रतिशत से ज्यादा ठेके और आउटसोर्सिंग पर काम करने वाले कर्मचारी हैं। क्या कभी किसी सांसद या केंद्रीय मंत्री ने आकर देखा कि एमरजेंसी प्रभाग में रोगियों की कितनी भीड़ है? ग्लूकोस और दवाइयों वाली बोतलें रोगी के परिजन हाथों में पकड़े मरीज़ के शरीर में पहुंचाते हैं। दोष सरकारों का है। पीजीआई के लिए तो केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री ज़िम्मेवार हैं, लेकिन पीजीआई के साथ लगते प्रांतों के जिलों में बड़े अस्पताल बनाना प्रदेश सरकारों का काम है, जो उन्होंने पूरा नहीं किया। राजनीति भी लोगों की इस दुर्दशा के लिए काफी मात्रा में जिम्मेवार है। 
जब पंजाब में भाजपा-अकाली सरकार थी तो केंद्र की ओर से अमृतसर में एम्स जैसा अस्पताल बनाने की स्वीकृति दी गई, परन्तु आठ से ज्यादा वर्ष बीतने के बाद भी वह एम्स नहीं बना। कारण यह है कि जिन्होंने एम्स बनवाना था, उनका अपना इलाज चंडीगढ़ से अमरीका तक सरकारी कोष से अर्थात जनता के पैसे से हो जाता है। हालत यह है कि ‘कोई मरे कोई जिए, सांसद-मंत्री घोल पतासा पिएं।’ यह भी कह सकते हैं कि घायल की गति घायल जान सकता है, ये नेता नहीं। बहुत अच्छा हो इस अमृत महोत्सव में स्वयं प्रधानमंत्री उन वंचितों की ओर ध्यान दें जो अस्पताल की दहलीज पर ही ग्लूकोज बोतल हाथ में लिए या तड़पती पत्नी को प्रसव पीड़ा सहते देखने को विवश होते हैं। पंजाब की नई नवेली पंजाब सरकार ने अभी डाक्टरी इलाज तो सस्ता नहीं किया, पर शराब सस्ती कर दी। अभी सस्ती नहीं हुई तो भी एक एएसआई नशे में टल्ली होकर सड़क पर गिरा और खींचकर ले जाये जाते हुए देखा गया। केंद्र स रकार एमआरपी पर ही नियंत्रण कर ल, सौ रुपये की दवाई पर दो हज़ार कीमत छापने वालों पर कार्यवाही करे, तब भी थोड़ी राहत मिल सकती है। शायद चुनावी चंदों के चक्रव्यूह में फंसे नेता ऐसा नहीं कर पा रहे, पर अतत: करना पड़ेगा।