पीछे के 75, आगे के 25... भारत कैसे बनेगा भाग्य विधाता 

हमारा देश आज आज़ादी के 75 साल पूरे होने के जश्नों में डूबा है। आने वाले 25 साल, जोकि  हमारे देश को 100 साल  का बना देंगे, इनमें देश को अनेकानेक चुनौतियों का निश्चित रूप से सामना करना होगा। आज़ादी के 75 साल के अमृत महोत्सव पर हमारी सरकार, उसकी कई संस्थाएं एवं लोग आकलन कर रहे हैं कि इस काल में हमने क्या खोया और क्या पाया। उद्योग-ध्ंधे, कार-मोटर साईकिलों से पटे चौड़े-चौड़े रास्ते, स्कूल, कालेज, बिजली, लोगों की बढ़ी क्रय-क्षमता और तेज़ी से उपभोग वस्तुओं की ओर बढ़ता निम्न और मध्यम वर्ग। आंकड़ों की कसौटी पर सब कुछ बेहद उजला और चकाचौंध वाला दिखता है, लेकिन क्या वे बुनियादी सवाल, जो आज़ादी और संविधान की मूल भावना में निहित थे, अपना जवाब या रास्ता पा सके हैं? लोकतंत्र अभी भी जनता के द्वारा और जनता के लिए कितना रह गया है? सांख्यिकी के मनोरम चित्रों में ‘गण’ की मौजूदगी कितनी है? यह मन है कि मानने को तैयार नहीं है कि हम एक सफल गणतंत्र हैं। आज लोकतंत्र के निर्णय अदालतें कर रही हैं और राजनीति का मकसद सत्ता आरोहण बन कर रह गया है। आने वाले अढ़ाई दशक की सबसे बड़ी चुनौती लोकतंत्र में ‘लोक’ की मौजूदगी है।दो साल पहले कोविड़ के प्रकोप में देश देख चुका है कि दूरस्थ अंचलों तक स्वास्थ्य सेवाएं लगभग नदारद हैं। आज दुनियाके सबसे ज्यादा युवाओं का देश है भारत और ज़ाहिर है कि अगले 25 साल में सबसे अधेड़ लोगों की आबादी हमारे पास होगी। उनके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाए नहीं हुईं तो हम एक बीमार देश बन सकते हैं। वैसे भी आज देश की दस करोड़ से ज्यादा आबादी डायबिटीज, उच्च रक्तचाप आदि दोनों से जूझ रही है। पीने का साफ  पानी, जीने को साफ  हवा, जैव विविधता को बचाना हमारे लिए अगले एक दशक की महत्वूर्ण चुनौती होगी। अब जलवायु परिवर्तन का असर साफ  दिख रहा है और उसमें प्राकृतिक आपदा और खेती, शहरीकरण और वानिकी सभी की पुश्तों पुरानी परम्परा टूट रही है। यह खतरा बढ़ना ही है और अब इन्सान को प्रकृति के बदलाव के अनुरूप खुद को ढालना होगा जिसमें भोजन, कार्य का तरीका आदि बहुत कुछ बदलना है। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के सामने यह अनिवार्य बदलाव है। बढ़ते कारखानों, वाहनों और घटते पेड़ों ने देश के 65 फीसदी से अधिक हिस्से को पर्यावरणीय संकट के दायरे में खड़ा कर दिया है। जिन नलों की चाह में हमने कुओं, बावड़ियों,तालाबों को बिसरा दिया, वे अब रीते हैं और जब तक अपनी गलती का एहसास हुआ, पुराने जल-संसाधनों की ओर लौटना चाहा तो पाया कि सदियों पुराने जल-स्त्रोतों पर कंक्रीट के सपने खड़े हुए हैं। जंगल कम हो गए, खेत कम हो गए, नदियों का पानी कम हो गया, तालाब-बावड़ी गायब हो गए। प्रति एकड़ फसल का रकबा कम हुआ और किसान का मुनाफा तो बढ़ते सालों की तुलना में घटता ही चला जा रहा है।  क्या एक सक्षम और सफल गणतंत्र के ‘गण’ की 75 साला उपलब्धि ऐसी ही होनी चाहिए थी? उस देश में जहां रोज़गार के कुल साधन का 72 फीसदी खेतों से और उसमें काम करने वाले मजदूरों की रज-बूंदों से मिलता है, वहां पर्यावरण और ख्ेती आने वाले  पच्चीस साल में सर्वाधिक ध्यान चाहते हैं।अर्थ व्यवस्था की बेहद चमकीली तस्वीर दुनिया में भारत को आने वाले कल का बादशाह बताती है, लेकिन हकीकत यह है कि हमारे यहां बेरोज़गारी, रोज़गार की अनिश्चितता और श्रम का अवमूल्यन बहुत चुपके से भीतर ही भीतर घर कर रहा है। ठेके की नौकरियों का जंजाल तेजी से विस्तार ले रहा है। उम्र के साथ रोज़गार सुरक्षा घट रही है। विडम्बना है कि गरीबी और अमीरी के बीच दिनों-दिन बढ़ रही खाई के कारण बढ़ते अपराध, नक्सलवाद व अन्य विघटनकारी तत्वों के ताकतवर होने को सरकार व समाज नज़रअंदाज़ कर रहा है। यह दुखद है कि देश के 80 करोड़ लोग गरीबी के कारण गत एक साल से मुफ्त अनाज पर निर्भर हैं। आज़ादी के बाद देश की सबसे बड़ी त्रासदी की बात कोई करे तो वह है—विस्थापन। कभी विकास के नाम पर तो कभी पर्यावरण के नाम पर तो कभी जबरिया ही, कोई 65 करोड़ भारतीय बीते 75 सालों के दौरान अपना घर-कुनबा, बिरवा छोड़ कर अन्जान संस्कृति, रिवाज़ों, परम्पराओं के बीच रहने पर मजबूर हुए हैं। अपनी मिट्टी से बिछुड़े ये बिरवे समय के साथ नई ज़मीन पर अपनी जगह नहीं बना पाए। इनकी बड़ी संख्या शहरों की स्लम बस्तियों के निर्माण का कारण बनी। ये कुंठित, लाचार, गैर-जागरूक लोग पूंजीपतियों की तिजोरी का वजन बढ़ाने में सहायक तो हैं, लेकिन कथित ‘सभ्य’ समाज के लिए ये अभी भी बोझ ही हैं। विकास के नाम पर दूरस्थ अंचलों को खोद-कुरेद कर खोखला बना दिया, फिर वहां से भगाए गए लोगों  से शहरों को ‘गंदी बस्ती’ या अर्बन स्लम बना दिया। संविधान ने तो हमें अपने पसंद की जगह पर अपने पसंद का रोज़गार करने की छूट दी थी, विस्थापन ने एक किसान को रिक्शा खींचने और एक संगतराश को भीख मांगने पर मजबूर कर दिया। विधायी संस्थाओं की बात किए बगैर संविधान का मूल्यांकन अधूरा ही रहेगा। चुनाव लड़ना, जीतना और उसके बाद अपनी मर्जी से काम करवाना, तीनों ही बातें अब धन-बल और बाहु-बल पर निर्भर हो गई हैं। अब राजनीति में वैचारिक प्रतिबद्धता कोई मायने नहीं रखती और जन सरोकार के मुद्दों से वोट बैंक पर असर नहीं होता। जिस देश की संसद के 60 फीसदी सदस्य करोड़पति हों, जहां राज्यों की विधान सभा के आधे से अधिक सदस्य अपराधों में लिप्त हों, जहां स्थानीय निकाय के चुनावों में शराब और पैसे का ज़ोर रहता हो, जहां मुख्यमंत्री अदालत की लड़ाई को सड़कों पर हुड़दंग के जरिए लड़ना चाहता हो वहां के भविष्य की भावी तस्वीर के रंगों को देखने के लिए दूरबीन की ज़रूरत पड़ सकती है। आम लोगों की थोड़ी उम्मीद अदालतों में बची है तो वहां पांच करोड़  पुराने मुकद्दमों का अम्बार है जिससे न्याय पाना महंगा और लम्बी प्रक्रिया बन गया है। संविधान की आत्मा बहुत दुख रही होगी...आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व लुटाने वालों की आत्मा बेहद बैचेन होगी...100वें साल के लिए अग्रसर भारत के लोकतांत्रिक रथ के लिए यह एक बड़ी बाधा हो सकता है।