दुनिया की भूख मिटाने वाला देश बना भारत

आज़ादी के बाद पिछले 75 सालों की हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है, भुखमरी से पीड़ित देश होने की जगह दुनिया की भूख मिटाने वाले देश में शुमार होना। जी हां, भारत के पास विश्व का महज 2.4 प्रतिशत भू-भाग है  जबकि हमारी जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या के 18 फीसदी से ज्यादा है। कृषि के लिए उपयोगी जल की उपलब्धता भी हमारे यहां महज 4 फीसदी है। इसके बावजूद यह भारतीय किसानों, वैज्ञानिकों और नि:संदेह राजनेताओं की भी बहुत बड़ी मेहनत, दृढ़ता और हिम्मत है कि हम आजादी के समय जहां भूख से पीड़ित देश थे, वहीं आज हर साल दुनिया के कई दर्जन देशों की भूख मिटाते हैं। साल 1950-51 में देश का कुल खाद्यान उत्पादन महज 5 करोड़ टन था और आबादी थी 35 करोड़। जाहिर है हमारे पास न सिर्फ  अनाज का विकट संकट था बल्कि हमारी आबादी भी बहुत तेजी से बढ़ रही थी जिस कारण यह संकट हर गुजरते दिन के साथ और गहराता जा रहा था। यह संकट जितना प्राकृतिक था, उससे कहीं ज्यादा इसमें साम्राज्यवादी षड्यंत्र भी था। दरअसल भारत का बंटवारा हो जाने के कारण चावल और गेहूं की खेती के बड़े रकबे पाकिस्तान के हिस्से में चले गये थे। इसलिए पहले से ही मौजूद खाद्य संकट आज़ादी के बाद और ज्यादा बढ़ गया था। हमारे यहां खेती को आधुनिक वैज्ञानिक तरीके से किये जाने की कोशिश 19वीं शताब्दी में ही शुरू हो गई थी। साल 1871 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इसी उद्देश्य से कृषि एवं वाणिज्य विभाग की स्थापना की थी, लेकिन जल्द ही स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश सरकार का इरादा अकाल पीड़ित भारत में अनाज का उत्पादन बढ़ाने का नहीं है बल्कि उसका ज्यादा से ज्यादा फोकस खेती से ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल जुटाने और अधिक से अधिक राजस्व उगाहने का है। ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाये गये कृषि एवं वाणिज्य विभाग ने विशेष रूप से मैनचेस्टर के वस्त्र उद्योग के लिए कपास की उपलब्धता बढ़ाने और उसकी गुणवत्ता सुधारने में ही सारी ताकत झोंक दी थी। हालांकि बाद में यह प्रयास दूसरी तरह से आज़ाद भारत के बहुत काम आया, लेकिन उस समय तो इसका सीधा सीधा लक्ष्य ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल तैयार करना ही था। अंग्रेज़ों ने साल 1905 में आज के समस्तीपुर बिहार में इंपीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान स्थापित किया, जो बाद में नई दिल्ली के प्रतिष्ठित भारतीय अनुसंधान परिषद के रूप में विकसित हुआ। अंग्रेज़ों ने कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक संस्थान कृषि को बेहतर बनाने की गरज से खोले, लेकिन इन सभी का बुनियादी लक्ष्य खाद्यान उत्पादन में बढ़ावा देना नहीं बल्कि ब्रिटिश सरकार के लिए ज्यादा से ज्यादा राजस्व वसूल करना था। साथ ही इन संस्थानों में उन्हीं चीज़ों के बारे में शोध करने की ज़रूरत महसूस की गई, जिनका सीधे रिश्ता ब्रिटेन के उद्योगों से था। बहरहाल आज़ादी के बाद भारत में भारी जनसंख्या और खाद्य वस्तुओं की बेहद कमी देश की सबसे बड़ी समस्या थी। आज़ादी के बाद से अगले दो दशकों तक हम अकाल और भुखमरी से लगातार पीड़ित रहे और इसके लिए दुनियाभर से अनाज मांगते रहे। साल 1960 के दशक में तो स्थिति यह हो गई कि हमारी भूख अमरीका के पीएल 480 योजना के जरिये ही मिटती थी। लेकिन कई बार विपरीत परिस्थितियां ज्यादा फायदेमंद साबित होती हैं। साल 1965 में पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध छिड़ गया। कोढ़ में खाज यह हुई कि उसी साल भयानक सूखा भी पड़ गया और तीसरा सबसे बड़ा झटका अमरीका से लगा जब उसने पाकिस्तान की मदद करने के लिए हमें गेहूं देने से इन्कार कर दिया। तब यह भारत के तत्कालीन राजनीतिक और कूटनीतिक प्रभाव की परीक्षा थी कि देश भूख से कैसे निपटे? उस साल हमने दुनिया के अलग अलग देशों से एक करोड़ के खाद्यान का आयात किया। साथ ही हमने अपनी पूरी वैज्ञानिक ताकत कृषि उत्पादन बढ़ाने और कृषि प्रौद्योगिकी में नवाचार अपनाने पर झोंक दी। नतीजा यह हुआ कि जहां 1966 में हमें करीब 1 करोड़ टन अनाज का आयात करना पड़ा था, वहीं 1968 में अकेले हमारे गेहूं के उत्पादन में ही 70 लाख टन से ज्यादा का इज़ाफा हुआ। यह हरित क्रांति का नतीजा था, जो क्रांति भारत में गेहूं की मैक्सिकन किस्मों को उगाने के चलते हुई और इस पूरी हरित क्रांति की देखरेख महान अमरीकी कृषि वैज्ञानिक डॉ. नॉरमन बोरलॉग तथा डॉ. एम.एस, स्वामीनाथन के नेतृत्व में हुई थी। कृषि वैज्ञानिक डॉ. नॉरमन बोरलॉग ने भारत में गेहूं का उत्पादन बढ़ाने के लिए बौनी/अर्धबौनी, जंगरोधी जैसी कई गुना अधिक उपज देने वाली किस्मों का विकास किया। इसी तरह चावल की भी नई किस्मों को फिलिपींस स्थित मनीला के अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान ने विकसित किया। इन नये बीजों के बाद भारत में चावल के उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। पहले जहां दो टन प्रति हैक्टेयर उत्पादन मिल रहा था, वो बढ़कर 6-7 टन हो गया और बाद में 10 टन प्रति हैक्टेयर तक पहुंच गया। भारत में आज़ादी के बाद कृषि विकास का सारा दारोमदार कृषि उत्पादन पर ही टिका था, जिस पर हमने आज़ादी के बाद करीब 70 सालों में जबरदस्त कामयाबी हासिल की है। आज भारत खाद्यानों और फलों के उत्पादन में दुनिया में पहले या दूसरे नम्बर पर काबिज है। पिछले 70-72 सालों में हमने कृषि उत्पादों में ही नहीं बल्कि बागवानी और समुद्री उत्पादन में भी किस तरह से चमत्कारिक कामयाबी हासिल की है, इसे इन आंकड़ों से जान सकते हैं। 1950-51 से 2017-18 के बीच हमारे समूचे खाद्यान उत्पादन में 560 फीसदी, बागवानी उत्पादों में 1050 फीसदी, मछली उत्पादन में 1680 फीसदी, दूध में 1040 फीसदी, अंडों के उत्पादन में 5290 फीसदी की वृद्धि हुई है। 1950-51 में जहां 5 करोड़ टन खाद्यान का उत्पादन हो रहा था, वहीं साल 2020-21 में यह लगभग बढ़कर 31 करोड़ टन हो गया। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज़ादी के बाद पिछले 75 सालों में हमने खाद्यान्न के धरातल पर कितनी बड़ी उपलब्धि हासिल की है।

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