सतलुज-यमुना सम्पर्क नहर विवाद पंजाब के हितों की डट कर रक्षा करे मान सरकार

अगर ़फुरसत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना,
हर इक दरिया हज़ारों साल का अ़फसाना लिखता है।
(बशीर बद्र)
एस.वाई.एल. नहर के मामले में पंजाब तथा हरियाणा में समझौता करवाने हेतु सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय जल-शक्ति मंत्री को दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक करवाने का निर्देश दिया है। वैसे इस मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि पानी एक प्राकृतिक स्रोत है तथा इसे लेकर कोई भी निजी हित दिमाग में नहीं रख सकता। स्पष्ट है कि यदि समझौता नहीं होता तो अदालत का रुख किस ओर है? हम अदालत को पूरे सम्मानपूर्वक कहना चाहते  हैं कि, क्या कोयला, लोहा या ज़मीन में से निकलने वाली अन्य धातु या वस्तुएं प्राकृतिक स्रोत नहीं हैं? यदि पंजाब का पानी सभी हैं तो क्या अन्य प्राकृतिक स्रोतों पर भी सभी का समान अधिकार होना इन्स़ाफ का तकाज़ा नहीं है? एस.वाई.एल. नहर के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान तथा पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी के सुप्रीमो जो पंजाब का पानी दिल्ली को देने के मामले में भी एक पक्ष हैं, के स्टैंड ने पंजाबियों को चिन्ता में डाल दिया है। उन दोनों का कहना है कि केन्द्र इस मामले में हस्तक्षेप करे तथा इस मामले को हल करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार की है। यह अब सच में पंजाब के असली स्टैंड के विपरीत है। स्मरण रखें, भारतीय संविधान के 7वें शेड्यूल में राज्यों के अधिकारों की सूची में 17वीं धारा के अनुसार पानी सिर्फ और सिर्फ राज्यों के अधिकार क्षेत्र की बात है। इसलिए भारतीय संविधान तथा विश्व भर में माने जाते राइपेरियन कानून के अनुसार पंजाब में बहती नदियों के पानी का अधिकार पंजाब को ही है।
हमें मुख्यमंत्री भगवंत मान के पंजाब पक्षीय होने पर कोई सन्देह नहीं परन्तु उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि वह इस समय एक दोराहे पर खड़े हैं। यदि उन्होंने डट कर पंजाब के पक्ष में स्टैंड लिया तो इतिहास में वह पंजाबियों के नायक तथा अलमबरदार के रूप दर्ज होंगे, नहीं तो वह एक और दरबारा सिंह ही माने जाएंगे।
वास्तव में 1978 में प्रकाश सिंह बादल सरकार ने हिम्मत करके सर्वोच्च न्यायालय में पंजाब पुनर्गठन एक्ट की धाराओं 78, 79 तथा 80 के विरुद्ध केस किया था। परन्तु जब केन्द्र सरकार को लगा कि अदालत तो इन्स़ाफ करेगी तथा ये धाराएं रद्द होने से बचाई नहीं जा सकतीं तो 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने उस समय के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन लेने की धमकी देकर यह केस वापिस करवा दिया था। हमें ‘आप’ प्रमुख केजरीवाल द्वारा मामला केन्द्र सरकार को हल करने हेतु कहने पर कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि वह स्वयं भी केन्द्रीयकरण तथा तानाशाही रुचियां रखते दिखाई देते हैं। वह स्वयं अपनी पार्टी भी अपनी इच्छा से चलाते हैं तथा किसी सीमा तक देश के प्रति भाजपा की कथित राष्ट्रवादी सोच के भी समर्थक हैं। फिर उनका लक्ष्य प्रधानमंत्री की कुर्सी या कांग्रेस के स्थान पर विपक्षी पार्टी का नेता बनना ही प्रतीत होता है। परन्तु जैसे वह स्वयं कहते हैं कि भाजपा तथा कांग्रेस पंजाब में अलग तथा हरियाणा में अलग स्टैंड लेती हैं। इसी तरह स्वयं उनके लिए भी उसी तरह राजस्थान, खास तौर पर हरियाणा तथा दिल्ली के विरुद्ध पंजाब के पक्ष में स्टैंड लेना असम्भव-सा प्रतीत होता है। परन्तु मुख्यमंत्री भगवंत मान को तो पंजाब के पक्ष में स्टैंड लेना ही चाहिए  और इसके लिए उनके पास सबसे आसान रास्ता कानूनी रास्ता ही है जो उनकी कुर्सी के लिए ़खतरा भी नहीं बनता तथा पंजाब को ‘शायद’ इन्साफ भी दिला सकता है। उन्हें बहुत योग्य वकीलों की सेवाएं लेकर सर्वोच्च न्यायालय में दो लड़ाइयां एक साथ लड़नी चाहिएं। पहली यह कि पानी का मामला संविधान के अनुसार सिर्फ राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मामला है तथा देश में आम तौर पर माने जाते अन्तर्राष्ट्रीय राइपेरियन कानून के अनुसार पंजाब तीन नदियों का अकेला तटवर्ती राज्य होने के कारण पंजाब में बह रही नदियों के पानी पर सिर्फ और सिर्फ पंजाब का अधिकार है। यहां तक कि इस संबंध में कानूनी तौर पर सर्वोच्च न्यायालय एवं केन्द्र सरकार  भी किसी रूप में कोई फैसला थोपे जाने के समर्थ अथार्टियां नहीं हैं। जबकि दूसरा केस पंजाब पुनर्गठन एक्ट की धाराओं 78, 79 तथा 80 रद्द करने की चुनौती देने का हो क्योंकि ऐसी धाराएं ़गैर-संवैधानिक भी हैं तथा देश भर में अन्य किसी भी राज्य के पुनर्गठन के दौरान भी नहीं लगाई गईं। इस मामले में पंजाब को हिम्मत तो दिखानी ही पड़ेगी तथा इस संबंध में वकीलों के परामर्श से यदि पंजाब विधानसभा में भी कोई कानून पारित करना पड़ता है तो पीछे नहीं हटना चाहिए। क्योंकि पानी अब पंजाब तथा पंजाबियों के लिए जीवन-मृत्यु का प्रश्न है। यह स्थिति पंजाब के साथ केन्द्र द्वारा की गई धक्केशाही की इंतिहा है।
हम जैसे ज़ुल्म-ओ-सितम से डर भी गये तो क्या।।
कुछ वो भी हैं जो कहते हैं मर भी गये तो क्या।।
पंजाब के पानी पर सिर्फ पंजाब का अधिकार कैसे?
पंजाब का साफ एवं स्पष्ट स्टैंड होना चाहिए कि पंजाब की तीनों नदियों पर देश एवं दुनिया में माने जाते राइपेरियन कानून के अनुसार सिर्फ पंजाब का अधिकार है। इसलिए किसी एस.वाई.एल. नदी का कोई मतलब ही नहीं है। अपितु राजस्थान, हरियाणा एवं दिल्ली को अब तक दिया गया पानी भी पंजाब की सम्पत्ति था तथा इसकी कीमत भी ब्याज सहित वसूलने के लिए प्रयास किये जाने चाहिएं। वास्तव में हरियाणा का भी पंजाब के पानी पर कोई कानूनी अधिकार नहीं, क्योंकि भारत में जब भी प्रदेशों का विभाजन हुआ तो पानी का मालिकाना हक तटवर्ती राज्यों का ही रहा है। फिर पंजाब के साथ अलग व्यवहार क्यों?
1874 में असम-बंगाल विभाजन में पानी का कोई विभाजन नहीं हुआ। 1901 में सूबा सरहद पंजाब से अलग हुआ परन्तु पंजाब का पानी पंजाब का ही रहा।
1912 में बिहार एवं ओडिशा बंगाल से अलग हुए तो पानी राइपेरियन कानून के अनुसार ही बांटा गया। 1936 में ओडिशा बिहार से अलग हुआ और 1936 में ही सिंध बम्बई से अलग हुआ, तब भी राइपेरियन कानून ही माना गया।
स्वतंत्र भारत में भी 1953 में आंध्र प्रदेश बना तो इसी कानून के तहत ही कृष्णा नदी पर आंध्र का तथा कावेरी नदी पर मद्रास का अधिकार मान लिया गया। 
1960 में बम्बई राज्य में से महाराष्ट्र एवं गुजरात प्रदेश बने और 1972 में पंजाबी सूबा के बाद भी उत्तर पूर्वी प्रदेश बनाए जाने के समय भी राइपेरियन कानून ही लागू हुआ। परन्तु इससे पहले 1966 में पंजाब-हरियाणा विभाजन के दौरान ऐसा क्यों नहीं किया गया? हरियाणा पंजाब का भाग रहा होने के कारण पंजाब के पानी पर अधिकार तो जताता है परन्तु इतिहास देखें तो 1859 के समय हरियाणा के सिर्फ 6 ज़िले ही पंजाब के साथ मिलाये गये थे तो अलग होते समय वह उससे अधिक क्या ले सकता है, जो उसने पाया था। उस समय भी यह पानी पंजाब का ही था परन्तु एक मिनट के लिए मान भी लेते हैं कि पंजाब से अलग होने के कारण हरियाणा का कोई अधिकार बनता है तो फिर हरियाणा में बहते यमुना एवं घग्गर नदियों के पानी पर पंजाब का अधिकार क्यों नहीं?
राजस्थान की बात
विचार करने वाली बात है कि 1920 में बीकानेर नदी वाले समझौते की धारा 13 में पंजाब को पानी के बदले रायलटी देने की बात थी जो 1946 तक दी भी जाती रही। फिर 1955 के समझौते की बात करें तो इंडियन कांट्रैक्ट एक्ट की धारा 25 के तहत वह समझौता कानूनी रूप में समझौता ही नहीं माना जा सकता, जिसमें कोई कमी हो। इस समझौते की धारा 5 के अनुसार पानी की कीमत तय की जानी थी जो आज तक तय नहीं हुई। समझौते में कोई चीज़ लेने के लिए उसके बदले में क्या किया गया है, दर्ज होना आवश्यक है। राजस्थान को मुफ्त पानी देने का कोई भी समझौता नहीं हुआ। इसलिए कानूनी रूप में पंजाब राजस्थान को अब तक दिये गये पानी की कीमत वसूल करने का अधिकारी है। एक बार सैंट्रल वाटर एंड पॉवर आयोग ने कहा था कि माधोपुर हैड वर्क्स के सैट खराब होने के कारण प्रतिदिन 100 क्यूसिक पानी व्यर्थ जा रहा है और इससे 100 करोड़ रुपये का वार्षिक नुकसान हो रहा है। 
इस हिसाब से राजस्थान को चाहे पानी की वार्षिक कीमत 14 हज़ार करोड़ रुपये  के लगभग बनती है। यदि मुख्य तौर पर हिसाब लगाएं तो गत 66 वर्षों में यह 7 लाख 70 हज़ार करोड़ रुपये बनती है, जिसका ब्याज अलग है तथा यह पंजाब का अधिकार है। यह दिल्ली, हिमाचल के हिस्से के पानी का मूल्य तो देता है परन्तु पंजाब से लिए गये पानी की एक पाई भी नहीं दी जाती, क्यों?
मुझ को यह फिक्र कि दिल मुफ्त गया हाथों से,
उसको यह नाज़ कि उसने यह छीना हम से।
पानी पंजाब का दिल ही तो है।
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