पहचान का सुख

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
भानु ने कुछ पैसा जमा करके बाकी बैंक से ट्रक फाइनेंस करवा लिया था। गांव के ही एक लड़के को ट्रक पर ड्राइवर रख लिया गया था। सब कुछ ठीक चल रहा था परन्तु उर्मिला को भानु का ट्रक के साथ जाना अच्छा नहीं लगता था। एक तो वह रात-बिरात घर लौटता और दूसरा पहाड़ की सड़कें। उर्मिला को बहुत डर लगता था पर चिन्ता का बड़ा कारण यह भी था कि अब देर से आने के साथ ही भानु मां से नज़रें भी चुराने लगा था।
एक दिन बहू ने रोते-रोते उर्मिला को बताया कि भानु ने शराब पीनी शुरू कर दी है। मां-बेटे में खूब कहा-सुनी हुई लेकिन भानु का रवैया वही रहा। बात खुलने के बाद उसकी झिझक भी खुल गई और अब तो वह घर में भी पीने लगा था। शुरू-शुरू में वह मां से छिपाता रहा। फिर खुलकर पीने लगा। उर्मिला कुछ न कर सकी और एक दिन वही हुआ जिसका उसे डर था।
सुहानी धूप खिली हुई थी। हल्की सर्दी पढ़नी शुरू हो चुकी थी। सितम्बर का आखिरी सप्ताह चल रहा था। सेब की फसल का सारा काम निबट गया था। भानु आखिरी खेप लेकर दिल्ली ट्रक के साथ चला गया था। उर्मिला बाहर बरामदे में कुर्सी डाल कर बैठी सामने की पहाड़ियों की सुन्दरता निहार रही थी कि सरोज चाय ले आई। स्टूल घसीटकर उसने चाय उस पर रख दी और फिर अपने लिए कुर्सी खींच कर उस पर बैठ गई।
‘मम्मी, चाय।’
‘हां, लेती हूँ। देख सरोज, सामने श्रीखण्ड की पहाड़ी बारिश से धुलकर कितनी सुन्दर लग रही है।’
‘हां मम्मी! आप ठीक ही कह रहे हैं। हमारे इलाके की खूबसूरती को तो दुनिया मानती है। सच में पापा ने कितना सोच-समझकर यह घर बनाया होगा न?’
‘हां, वह तो सुन्दरता के पुजारी थे।’ उर्मिला उदास हो गई। फिर उसने स्वयं को तुरन्त ही संभाल लिया और बात बदलकर बोली, ‘भानु कब आने को कह गया है?’
‘आज आ जाना चाहिए। अब किस वक्त आते हैं यह तो नहीं कहा जा सकता। सड़कें बहुत खराब हैं और कहीं रास्ते में ही पीना शुरू कर दिया तो बस...।’
‘अरे राम का नाम ले बहू! अब इतना लापरवाह भी तो नहीं है मेरा बेटा।’
कहने को उसने कह तो दिया लेकिन भीतर ही भीतर वह स्वयं भी डर रही थी। भानु के पीने से तो अधिक परेशानी नहीं थी, लेकिन कहीं ड्राइवर ने पी ली तो?
फिर उसने सिर को झटक दिया, नहीं! भानू इतना बेवकूफ तो नहीं है...। सरोज चाय के बर्तन अन्दर रखकर लौटी ही थी कि भीतर टैलीफोन घनघनाने लगा। वह उल्टे पैरों वापस लौट गई।
‘हलो...!’
‘आप तुरन्त रामपुर अस्पताल आ जाएं।’ दूसरी ओर से किसी ने कहा, ‘भानु की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया है।’
‘क्या?’ सरोज की चीख सुनकर उर्मिला दौड़ी। उसने रिसीवर सरोज के हाथ से छीन लिया। ‘आप कौन बोल रहे हैं, क्या हुआ, मुझे बताइए। मैं उर्मिला बोल रही हूँ।’
‘आण्टी मैं वीरेंद्र बोल रहा हूँ। भानु की गाड़ी का निरथ में एक्सीडेंट हो गया है। आप लोग रामपुर आ जाइए। भानु अस्पताल में है।’ वह थोड़ा रुका फिर कहने लगा, ‘परेशान न हों, ज्यादा चोटें नहीं हैं लेकिन अभी उसे वहां रहना पड़ेगा। टांग की हड्डी टूट गई है प्लास्टर चढ़ेगा।’
 (क्रमश:)
और ड्राईवर....?
‘ड्राईवर? हां, अब उसकी हालत तो गम्भीर है आण्टी।’ वीरेंद्र का स्वर मद्धम हो गया था। सरोज रोए जा रही थी। उर्मिला ने उसे डाँटते हुए कहा, ‘खुद को काबू में रखो बहू। हमें अभी गाड़ी की व्यवस्था करनी होगी। मैं जा रही हूँ गाड़ी के इंतज़ाम के लिए। तुम बच्चे को उठाओ और एक-एक जोड़ी कपड़ा सब का रख लो। पैसे निकाल लो और चैकबुक भी ले लो। पता नहीं वहाँ क्या स्थिति हो। जल्दी तैयार हो जाओ। उठो।’ कहकर उर्मिला बाहर निकल गई।
एक घण्टे बाद ही वे लोग अस्पताल में थे। भानु के अधिक चोटें नहीं थीं लेकिन ड्राईवर को बचाया नहीं जा सका। गाड़ी बुरी तरह टूट-फूट गई थी। बीमा की रकम नहीं मिल सकती थी क्योंकि ड्राइवर और भानु, दोनों ने शराब पी रखी थी। उर्मिला सोच रही थी कि इस दुघर्टना से शायद भानु सुधर जाएगा परन्तु भानु के रंग-ढंग में कोई बदलाव नहीं आया।
ड्राईवर के घर वालों ने क्लेम कर दिया और भानु के पास सिवाय पैसा देने के  और कोई रास्ता नहीं था। पूरा दो लाख रुपया ड्राइवर के परिवार को देकर छुटकारा हुआ। इससे उनके घर की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव तो पड़ना ही था। रह गया बैंक? तो उर्मिला ने सोचा कि सेब की फसल में से थोड़ा-थोड़ा दे कर निपटा लिया जाएगा।
 दूसरे साल की फसल बेचकर जब भानु सरोज के लिए सोने का भारी सा हार खरीद लाया तो उर्मिला ने सिर पीट लिया, लेकिन अब तो यह नित्य का कार्यक्रम बन गया था।
 कुछ समय बाद बैंक से भुगतान के लिए नोटिस निकला लेकिन भानु ने उसे किसी गिनती में ही नहीं लिया और फिर एक दिन पटवारी ने उर्मिला को बताया कि भानु के विरुद्ध बैंक को नीलामी के अधिकार मिल गए हैं। एक महीने बाद नीलामी होगी।  अब भानु के पास माँ की खुशामद करने के अलावा और कोई उपाय नहीं था। जैसे-तैसे भागदौड़ कर उर्मिला ने औने-पौने में अपने हिस्से की ज़मीन का एक टुकड़ा बेच कर बैंक का भुगतान करने के लिए छ: लाख रुपए फिर से भानु के हाथ पर रख दिए। नीलामी की तारीख से पहले रकम बैंक में जमा कर दी गई और कुर्की के आर्डर निरस्त हो गए।
अब उर्मिला के पास अपने हिस्से की थोड़ी सी ज़मीन बची थी जो भानु उससे माँग रहा था, जिसे देने से उर्मिला ने साफ  इन्कार कर दिया था। सरोज के मायके वाले भी सरोज को ज़मीन अपने नाम लिखवा लेने के लिए उकसा रहे थे। इस बीच भानु ने शहर में दुकान खोल ली और अपने परिवार के साथ वहीं रहने लगा। शहर जाकर सरोज का रवैया भी बदल गया। उसे पता था कि उसकी दुनिया उसके पति के साथ है, सास का क्या? आज है कल नहीं। रोज़-रोज़ के लड़ाई-झगड़े से तंग आकर उर्मिला ने भी उनसे बोलचाल बंद कर दी थी। अब उसी ज़मीन के लिए भानु ने मां पर कोर्ट में केस लगाया था जिसे बेचकर उर्मिला ने कुर्की होने से बचाई थी। भानु ने माँ पर आरोप लगाया था कि माँ ने मेरे हिस्से की ज़मीन बेच खाई है जबकि ज़मीन उर्मिला ने अपने हिस्से में से बेची थी। उस पर भी तुर्रा यह कि ज़मीन उर्मिला के पति की खरीदी हुई थी, कोई पुश्तैनी नहीं थी और उनके देहान्त के बाद दोनों माँ-बेटों के नाम उर्मिला के कहने से ही चढ़ाई गई थी। उर्मिला के मुँह से एक ठंडी साँस निकल गई। तभी भीतर कमरे से आवाज़ आई,
‘भानु बनाम उर्मिला...भानु बनाम उर्मिला हाज़िर हों।’
उर्मिला चौंक कर उठ खड़ी हुई। भानु उसे धकेलता हुआ अन्दर घुसा तो वह एक ओर हट गई और उसके पीछे.पीछे चलने लगी। गवाहों के बयान के बाद उर्मिला और भानु को कटघरे में बुलाया गया। उर्मिला के वकील ने ही पहले प्रश्न किया, ‘हाँ तो मिस्टर भानु, आपका कहना है कि आपकी माँ उर्मिला ने आपके हिस्से की ज़मीन बेच खाई है?’
‘इसमें कोई शक लगता है आपको’! भानु तुनक गया।
फाईल पर झुके जज ने सिर उठाकर भानु की ओर देखा, और बोले ‘आपसे जितना पूछा जाए उसका जवाब दीजिए।’ भानु के वकील ने उसे टोका और विरोधी वकील ने सवाल दोहराया तो भानु ने सिर झुका कर कहा, ‘जी हाँ।’
‘क्या किया इन्होंने साढ़े छ: लाख रुपयों का?’ अब की बार जज ने सवाल किया। वह बड़े     ़गौर से उर्मिला को देख रहा था। गम्भीर चेहरे वाली उर्मिला ने बिल्कुल साधारण से कपड़े पहन रखे थे। गले में एक पतली सी चेन और कानों में छोटे-छोटे टाप्स थे।
 ‘अपनी किताबें छपवाती हैं और सेमिनारों में जाती हैं। घूमने-फिरने पर खर्च कर देती हैं और क्या करेंगी।’
 ‘आर यू ऑथर?’ अब की बार जज ने उर्मिला से सवाल किया था।
‘जी हाँ। यह अपराध तो मुझसे हुआ है।’
‘क्या लिखती हैं आप?’
‘कहानी, कविता सभी कुछ।’ उर्मिला हैरान थी कि मेरे लेखन से केस का क्या सम्बंध है?
‘आपके गवाह पूरे हो गए मिस्टर ठाकुर?’ जज ने मुड़कर उर्मिला के वकील से प्रश्न किया।
‘जी नहीं, अभी चार हुए हैं।’
‘और कितने हैं....?’
‘चार और हैं सर।’ वकील ने उत्तर दिया।
‘बस काफी हैं।’ कहकर जज ने फाईल बंद कर दी।
बाहर कान्ता इंतज़ार में खड़ी थी। रिश्तेदार होने के नाते वह अन्दर नहीं आ सकती थी। बाहर आने पर वकील ने कहा, ‘मैं डेट लेकर आप को बता दूँगा। आप घर जाइए।’
कुछ दिन बाद केस का फैसला भी हो गया। उर्मिला को निर्दोष कहा गया और भानु का दावा खारिज कर दिया गया। जज ने अपने फैसले में यह भी लिखा था कि उर्मिला चाहे तो भानु पर मानहानि का दावा कर सकती है, परन्तु उर्मिला ने वह सब नहीं किया और मुकद्दमा समाप्त होने पर सुख की साँस ली। अब वह चिन्तामुक्त होकर फिर से अपने लेखन को जारी रख सकती थी।
उर्मिला के सेमिनार, कवि-सम्मेलन चालू ही थे। वह शिमला बस अड्डे पर खड़ी अपनी बस के आने की प्रतीक्षा कर रही थी कि एक लम्बी-सी लग्ज़री गाड़ी उसके पास आकर रुकी और एक सौम्य सा स्वर उसकी ओर उछला, ‘नमस्ते उर्मिला जी।’
उर्मिला ने चौंक कर देखा तो, कार की पिछली सीट से एक चेहरा बाहर झाँक रहा था।
वह एक बार फिर चौंक गई, इस व्यक्ति को कहीं देखा तो है। प्रकट में उसने बड़ी शालीनता से दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार का उत्तर दिया और हैरान सी उस मूर्ति को देखने लगी।
‘कहाँ जा रही हैं आप? आइए मैं छोड़ दूँ।’
‘जी नहीं, धन्यवाद! मेरी बस आने वाली है, मुझे चण्डीगढ़ जाना है।’
‘सेमिनार है क्या?’
‘जी हाँ मुशायरा है।’
‘तो आइए न, मैं भी चण्डीगढ़ जा रहा हूँ।’ इतनी देर तक भी उर्मिला उस सौम्य मूर्ति को पहचान नहीं पाई थी।
‘लगता है, आप मुझे पहचान नहीं रही हैं।’
‘आप ठीक कह रहे हैं।’ उर्मिला थोड़ा लज्जित हो रही थी।
‘तब आप मुझे यह बताइए कि आपने अपने बेटे भानु पर मानहानि का दावा किया या नहीं?’
‘अरे आप? जज साहब?’  उर्मिला की आँखें नम हो आईं।
‘उर्मिला जी, मैं वास्तव में ही जज हूँ। मां-बाप ने बहुत सारा पैसा मेरी पढ़ाई पर लगाया है। आदमी को देखते ही पहचान जाता हूँ कि सच्चाई क्या है। इससे मुझे न्याय करने में सुविधा होती है और यही मैंने आपके केस में किया है। अब तो आ जाइए।’ उसने दूसरी ओर का दरवाजा खोल दिया था। (समाप्त)