समय रहते जागें श्रम विभाग व मानवाधिकार आयोग

विधानसभा और लोकसभा के चुनाव घोषित होते हैं, तो जनता सड़कों पर आ जाती है। बेघर, बेरोज़गार, गरीब, रोगी, अभावग्रस्त लोग इस आशा के साथ हाथ फैलाते हैं कि जो नई सरकार बन रही है, वह उन्हें संरक्षण देगी, इज़्ज़त की रोटी देगी, बीमारी में इलाज और भूख लगने पर राशन देगी। नौकरी के लिए भी देश के हज़ारों नहीं, लाखों युवक-युवतियां तरसते-तड़पते, सरकारी डंडे खाते हैं और जब कुछ नहीं मिलता तो  शोषण और गरीबी की चक्की में पिसने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अपने देश में श्रमिकों के हितों की रक्षा और मानव को मानव जैसा जीवन मिले, इसकी देख-रेख के लिए मानव आयोग भी है। देश के लगभग हर जिले में लेबर डिपार्टमेंट के अधिकारियों, उप-कमिश्नरों की लम्बी-चौड़ी फौज है, परन्तु वास्तविकता यह है कि इस देश के मज़दूरों का शोषण फिर भी होता है। ‘इन हाथों को काम दो, काम के पूरे दाम दो’ का नारा हवा में उड़ता ही दिखाई देता है। वैसे संभव भी नहीं कि हर व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिले, पर जहां भी काम मिलता है वहां पेट भरने के लिए तो दाम मिल जाएं। काम के घंटे निश्चित हों। जिस वातावरण में काम करना है वहां कम से कम ताज़ा हवा तो हो और जो इस देश का श्रमिक कानून कहता है, छह दिन काम करने के बाद एक दिन अवकाश भी मिले। बीमारी की छुट्टी हो, अन्य भी कई लाभ मिलें, परन्तु आज स्थिति यह है कि केंद्र से लेकर जिला मुख्यालयों तक श्रम विभाग के जो अधिकारी, मंत्री, कमिश्नर, सरकारी लाभ ले रहे नेता आयोग के अध्यक्ष बनकर केवल अपनी सुख-सुविधाओं का प्रबंध करते हैं, उन तक श्रम कानूनों के अंतर्गत लिए जाने वाले किसी भी लाभ से वंचित लोग नहीं पहुंच पाते। 
भारत सरकार के श्रम मंत्री से यह आग्रह है कि एक बार वह हर राज्य का स्वयं निरीक्षण करें। यह देखें कि जितने प्राइवेट अस्पताल, धार्मिक संस्थान, नर्सिंग होम हैं, वहां कर्मचारियों की हालत कितनी बुरी है। आज के युग में रसोई गैस सिलेंडर एक हज़ार से ज्यादा कीमत का है। गेहूं का आटा भी जो बहुत बढ़िया क्वालिटी का नहीं है, वह भी हज़ार रुपये में चालीस किलो ही मिलता है। स्कूलों-कालेजों की फीस कितनी है, सरकारें निश्चित ही जानती होंगी। मकान का किराया, बिजली का किराया अन्य बहुत से जीवन के खर्च क्या कोई व्यक्ति पांच से सात हज़ार रुपया मासिक लेकर पूरे कर सकता है? प्राइवेट संस्थानों का तो क्या कहना। हमारी सरकारें भी जब ठेके पर या शोषण करने के लिए रखी आउटसोर्सिंग एजेंसियों द्वारा कर्मचारियों को भर्ती करती हैं तो वहां भी अधिकतर कर्मचारियों को तीन सौ रुपया प्रतिदिन भी नहीं मिलता। उसके बाद बेचारे गरीब कर्मचारी के सिर पर डंडा यह रहता है कि जैसे ही वह आवाज़ उठाएगा, पूरी रोटी मांगेगा, उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा। 
ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें इसी शोषण की चक्की में पिसते तीस से चालीस वर्ष हो गए। आज भी उन्होंने पंद्रह हज़ार रुपया कैसा होता है, नहीं देखा। छुट्टी का आनंद कैसे लिया जाता है, वे नहीं जानते। एक दिन की छुट्टी अर्थात एक दिन के वेतन में कटौती। अपनी बीमारी, परिवार के सदस्यों की बीमारी, विवाह आदि उत्सव वेतन कटवाकर ही उन्हें मनाने पड़ते हैं। क्या भारत सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जो यह सुनिश्चित करे कि कर्मी को सरकार द्वारा कम से कम तय किया गया वेतन मिले। काम के घंटे तय हों। हर कर्मचारी ईएसआई स्कीम में पंजीकृत हो। प्रोविडेंट फंड का लाभ मिले। पैंशन तो सरकारों ने ही बंद कर दी, वह तो ये कर्मचारी मांग ही नहीं सकते, परन्तु नमक और रोटी सुनिश्चित हो जाए, यह सरकार को अवश्य करना चाहिए। 
कुछ वर्ष पूर्व जबलपुर के एक गेस्ट हाउस में रात रहने का अवसर मिला। वृद्ध कर्मचारी अपने बेटे को साथ लेकर कमरा और बर्तन साफ  करवाने का काम कर रहा था। उसे काम करते पच्चीस वर्ष हो चुके थे, लेकिन उसका वेतन पांच हज़ार भी नहीं था। बेटा मदद के लिए आ रहा था। डर यह था कि अगर पिता सही काम न कर पाया तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा। जहां पच्चीस वर्ष बाद भी नौकरी की सुरक्षा नहीं, वहां मानव अधिकारों की बात की जाती है। 
 इसी बात पर गर्व किया जा रहा है कि अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है। वैसे डा. अबुल कलाम आज़ाद ने ठीक कहा था कि मुफ्तखोरी आलसी और कामचोर बनाती है। हर व्यक्ति को काम दिया जाए और काम के इतने दाम तो अवश्य मिले जिनसे वे अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर सकें।
हमारे देश में अन्न-धन की कमी नहीं। बेहिसाब अन्न सरकार द्वारा सही संभाल न किए जाने से सड़ जाता है। एक बार सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश ने दुखी मन से कहा था कि अगर संभाल नहीं सकते तो बांट दो। कितना अच्छा हो कि जिनको 300 या 400 रुपये प्रतिदिन वेतन दिया जाता है, उनको हर महीने परिवार की आवश्यकता के मुताबिक राशन भी वेतन के साथ दे दिया जाए। 
भारत सरकार को सभी प्रांत सरकारों से यह जानकारी लेनी चाहिए कि कितने श्रमिक सरकारी या गैर-सरकारी संस्थानों में थोड़े वेतन में काम करने को मजबूर हैं। बिना सवेतन छुट्टी के ही ज़िन्दगी काट रहे हैं। जिन परिस्थितियों में वे काम कर हैं, वे ज़िन्दगी के लिए अनुकूल हैं या घातक।