कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का चुनाव कहां तक उचित है चुनाव प्रक्रिया की आलोचना ?

जब से कांग्रेस ने अपने नये अध्यक्ष के चुनाव के लिए सांगठनिक कवायद शुरू की है, तभी से भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं और मोदी-भाजपा को पसंद करने वाले मीडिया ने इस प्रक्रिया पर तरह-तरह के लांछनों और सवालों की झड़ी लगा दी है। इस आलोचना को समझने के लिए एक परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता है। कारण यह है कि एक दृष्टि से इस आलोचना में थोड़ी-बहुत सच्चाई है। और, एक दूसरे लिहाज़ से इस आलोचना का एक बड़ा हिस्सा अनावश्यक और तथ्यहीन साबित किया जा सकता है। एक समग्र परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता इसलिए भी है कि अध्यक्ष निर्वाचित करने की कार्रवाई को कांग्रेस पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र की मौजूदगी की निशानी बताना चाहती है, और भाजपा-उन्मुख मीडिया यह दिखाना चाहता है कि अध्यक्ष जो भी चुना जाए, वह गांधी परिवार (खास तौर से राहुल गांधी) का मोहरा बनने के अलावा कुछ और नहीं हो सकता। यह बहस इस जानी-मानी ह़क़ीकत के बावजूद की जा रही है कि कांग्रेस में ये चुनाव बाईस साल के बाद हो रहे हैं (आंतरिक लोकतंत्र की याद इतने दिनों के बाद क्यों आयी), और भाजपा में आज तक कभी किसी अध्यक्ष का चुनाव हुआ ही नहीं है। 
आइये, देखें कि इस आलोचना में सच्चाई कितनी है। राहुल गांधी ने 2019 की लोकसभा पराजय के बाद अध्यक्ष पद से इस्त़ीफा दिया था। उन्होंने इस मौके पर लिखे अपने पत्र में कई बातें कही थीं। इनमें सबसे ज़्यादा प्रासंगिक बात यह है कि वह गांधी परिवार के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष बनाने हेतु सहमत नहीं थे। इसके बाद तीन साल से ज़्यादा का समय गुज़र गया, कांग्रेस ने किसी नियमित अध्यक्ष की मौजूदगी की ज़रूरत नहीं समझी। मीडिया में कई समीक्षक कांग्रेस के इस रवैये पर ताज्जुब करते रह गए लेकिन, कांग्रेस की तीन सदस्यीय आलाकमान (सोनिया, राहुल और प्रियंका) ने अध्यक्ष की नामजदगी या चुनाव की पहलकदमी नहीं की। सोनिया बीमारी के बावजूद नाममात्र की कार्यकारी अध्यक्ष बनी रहीं। राहुल गांधी अध्यक्ष होने के सारे अधिकारों का लगातार उपभोग करते रहे, लेकिन किसी भी तरह की जवाबदेही के लिए कभी भी तैयार नहीं हुए। इसका नतीजा यह निकला कि कांग्रेस के संगठन का लगातार क्षय होता रहा। उसने पंजाब में अपनी अपेक्षाकृत मज़बूत स्थिति को गलत निर्णयों के कारण बद से बदतर स्थिति में पहुंचा दिया। कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा कर जिस व्यक्ति को कांग्रेस ने कमान सौंपी, वह एक निहायत बड़बोला और विनाशकारी नेता साबित हुआ। आज वह एक पुराने मामले में जेल काट रहा है। पंजाब उत्तर भारत में कांग्रेस की आखिरी बड़ी चौकी थी। तीन छोटी चौकियां (उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा) भी उसने बुरी तरह से गंवा दीं। 
स्थिति यह बन गई कि सांगठनिक मामलों पर पार्टी के भीतर सुनवाई का कोई फोरम भी नहीं रह गया। यह सब इसलिए भी हुआ कि तीन सदस्यीय आलाकमान परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष बनाने पर एक राय नहीं बना पाया। इन तीनों में कई मुद्दों पर अघोषित मतभेद रहे। इस स्थिति ने भाजपा को और लाभान्वित किया। इस दौरान बड़ी संख्या में कांग्रेस के ऐसे नेता पार्टी छोड़ गए जिनके भाजपा में जाने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। कांग्रेस का यह अनिर्णय आश्चर्यजनक था। इसके कारण पार्टी का केंद्र कमज़ोर होता चला गया, और पार्टी एक तरह से मिटने के कगार पर पहुंचने लगी। इस स्थिति के लिए कांग्रेस स्वयं ज़िम्मेदार थी, और है। दरअसल, कांग्रेस के अध्यक्ष पद से राहुल गांधी का इस्तीफा एक गलत कदम था। बजाय इसके कि वह ज़िम्मेदारी छोड़ते, उन्हें पराजय की कड़ी समीक्षा करके पार्टी का कील-कांटा दुरुस्त करने पर ज़ोर देना चाहिए था। राहुल का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल उपलब्धि-शून्यता का शिकार नहीं था। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने भाजपा से राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य छीन लिये थे। गुजरात में इतना शानदार चुनाव लड़ा था कि भाजपा अपनी हार के अंदेशे से डर गई थी। अगर राहुल गांधी सही फैसला लेते तो आज कांग्रेस कहीं बेहतर मुकाम पर होती। कांग्रेस ने जिस तरह से अपने आप को नुकसान पहुंचाया है, उसने उसके विरोधियों को उसकी वाजिब आलोचना का मौका थमा दिया है। 
ज़ाहिर है कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यह भी एक सही आलोचना है कि अध्यक्ष चाहे जो भी हो, उसे गांधी परिवार के अंगूठे के तले काम करना पड़ेगा लेकिन, ऐसी स्थिति तो देश में भाजपा समेत सभी पार्टियों की है। भाजपा में जगत प्रकाश नड्डा राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, लेकिन पार्टी में उनका पायदान मोदी, शाह और राजनाथ सिंह के बाद ही आता है। उ.प्र. का चुनाव जीतने के बाद हुए स्वागत समारोह में होने वाले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के साथ मोदी और शाह भी थे। कम से कम दो घंटे चले इस समारोह में किसी ने नड्डा जी का नाम तक नहीं लिया, उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन करना तो दूर। ज़ाहिर है कि उनके पास भाजपा के भीतर न स्वायत्तता है, और न ही कोई अधिकार। वह केवल आदेशों का पालन करने वाले वरिष्ठ नेता भर हैं जिन्हें संगठन का कामकाज देखने के लिए नियुक्त किया गया है। यह अलग बात है कि मीडिया उन्हें मोदी के रिमोट-कंट्रोल से चालित अध्यक्ष नहीं कहता। 
दरअसल, यह भारतीय पार्टी प्रणाली की एक अप्रिय विशेषता है कि यहां पार्टी का मुख्य चेहरा अक्सर नियमित अध्यक्ष की भूमिका नहीं निभाता। आज़ादी के आंदोलन के दौरान गांधी जी कांग्रेस के सर्वेसर्वा होते थे, और हर साल कोई वरिष्ठ नेता अध्यक्ष की तकनीकी भूमिका निभाता रहता था। जनसंघ में अटल जी मुख्य नेता होते थे, और किसी अन्य को अध्यक्ष नामज़द कर दिया जाता था। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मुख्य नेता ही अध्यक्ष हो, पर ऐसा अक्सर नहीं भी होता है। कम्युनिस्ट पार्टियों में तो मुख्यमंत्री, मोर्चे का अध्यक्ष और पार्टी का महासचिव अलग-अलग हमेशा से होते आये हैं। क्षेत्रीय शक्तियों में भी कुछ ऐसी ही परम्परा है। नितीश कुमार की पार्टी का भी अध्यक्ष कोई और होता है। दूसरी जगहों और पार्टियों में भी यह पैटर्न इ़फरात से पाया जा सकता है। ऐसी सूरत में इस सांगठनिक बंदोबस्त के लिए केवल कांग्रेस को कुसूरवार ठहराना जायज़ नहीं है। यह ज़रूर है कि कांग्रेस आलाकमान लगातार वंशवाद का उदाहरण बना हुआ है। इसके लिए उसकी आलोचना होती रह सकती है लेकिन अगर वह सांगठनिक कामों के लिए एक अध्यक्ष का चुनाव करती है, तो इस बंदोबस्त में कुछ भी गलत नहीं है।
जब राहुल गांधी अध्यक्ष थे तो उनके नेतृत्व में पार्टी ने गुजरात के चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया था। उस समय गुजरात में पार्टी के इंचार्ज अशोक गहलोत हुआ करते थे। वह उपलब्धि राहुल-गहलोत की जोड़ी की थी। ऐसा लगता है कि जल्दी ही कांग्रेस के नेतृत्व की बागडोर मुख्य रूप से इसी जोड़ी के हाथ में होगी। देखना यह है कि क्या वह गुजरात के चुनाव में पिछली उपलब्धि को दोहरा सकती है?
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)