सरकारों और ट्रेड यूनियनों के बीच बढ़ता जाता मौन

विश्व और भारत में मज़दूर वर्ग और आम लोगों की स्थिति खराब होती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा आधिपत्य जमा लेने से पूंजीवाद और मजबूत हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष , विश्व बैंक तथा विश्व व्यापार संगठन इस एजेंडे को आगे बढ़ाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी की सेवा में हैं। इसकी आर्थिक रणनीति प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करना, बाज़ार बनाना और कब्जा करना, मुनाफे को अधिकतम करना और पूरी दुनिया में ऋण आधारित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है। यह किसी भी विरोध को विभाजित, विघटित और दबाने की इच्छा रखता है।
वर्तमान में औद्योगिक उत्पादन में एक ठहराव है, जो हर तरफ  रोज़गार में वृद्धि दिखा रहा है। पूंजीवादी दुनिया डराने-धमकाने, युद्ध और संघर्ष  के माध्यम से विकासशील देशों पर अपना आर्थिक बोझ डालने के लिए उत्सुक है। सरकार मितव्ययिता उपायों के नाम पर पेंशन, जन स्वास्थ्य, शिक्षा, नागरिक सेवाओं आदि सुविधाओं को आम लोगों से वापस ले रही है।
देश में कई वर्गों से रेलवे पास वापस ले लिए गए हैं। एक साल से ऊपर के बच्चों से पूरा टिकट वसूला जायेगा और रेल टिकट रद्द कराने पर जीएसटी लगेगा। खाने-पीने की चीज़ों पर भी जीएसटी लगाया गया है। प्रस्तावित विद्युत संशोधन विधेयक पारित हो जाता है तो जरूरतमंद लोगों, किसानों और आवश्यक सामाजिक गतिविधियों को बिजली के उपयोग पर मुफ्त/सब्सिडी की सुविधा नहीं मिलेगी। कमज़ोर तथा वंचित वर्गों के उपयोग के लिए ग्रामीण भारत में आम भूमि को भी व्यावसायिक गतिविधियों में धकेला जा रहा है। ऐसी भूमि में आश्रय लेने वालों को तथा वन आदि के प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से गरीबों को बेदखल किया जा रहा है। सैन्य बजट बढ़ रहा है, आयुद्ध लॉबी और हथियार उद्योग फल-फूल रहे हैं, जबकि जीवन स्तर में भारी असमानताएं हैं।
शासक वर्गों के मौन समर्थन से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फासीवादी रुझान बढ़ रहे हैं। सभी स्तरों पर देश के भीतर, देशों और क्षेत्रों के बीच संघर्ष को बढ़ाया जा रहा है। हमारे देश में हमारी मिश्रित संस्कृति में निहित मूल लोकतांत्रिक मूल्य गंभीर खतरे में हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहमति को बेरहमी से कुचला जाता है। छात्र, लेखक, कलाकार, थिएटरकर्मी, पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता जो कमज़ोर वर्गों को न्याय के लिए खड़े हैं, तथा स्वतंत्र विचारकों पर हमले हो रहे हैं। हमारे संविधान में निहित बुनियादी सिद्धांतों को कमज़ोर करके विपक्ष को चुप कराने की राजनीति आक्रामक तरीके से की जा रही है।
स्थितियां तेजी से बिगड़ रही हैं। सरकार देश के भीतर और बाहर वित्त राजधानी के कॉर्पोरेट हितों की सेवा कर रही है। यह बहुसंख्यकवाद और साम्प्रदायिकता के सबसे खराब रूप के साथ जुड़ा हुआ है। रोज़मर्रा की घटनाओं और सत्ता के पदानुक्रम में मायने रखने वालों के बयानों से फासीवादी प्रवृत्तियों का पर्दाफाश हो रहा है। एक तरफ  देश की अर्थव्यवस्था को कारपोरेटों और दूसरे पूंजीवादी वर्गों के हवाले किया जा रहा है और दूसरी तरफ  समाज को बांटने के लिए नफरत और साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने में साम्प्रदायिक संगठनों को मौन समर्थन दिया जा रहा है जिससे लोगों का ध्यान रोज़ी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आश्रय, पेयजल, स्वच्छता और सामाजिक सुरक्षा आदि के ज्वलंत मुद्दों से भटक रहा है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में सरकार का दृष्टिकोण कठोर प्रतिक्रियावादी है। वह ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को समाप्त करने की दिशा में लगी है तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व बैंक के साथ आगे बढ़ते हुए लोगों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने की ज़िम्मेदारी का त्याग कर रही है। मज़दूर इन नीतियों का सबसे ज्यादा शिकार हैं।
विमुद्रीकरण और जीएसटी के नकारात्मक प्रभावों के बाद नौकरी, बाज़ार, घर आधारित और छोटे पैमाने पर इकाइयों के साथ-साथ खुदरा व्यापार में भी बाधाएं उभर रही हैं।  सरकार गरीब लोगों को सब्सिडी देने में विफल है, किसानों को ऋण माफी से इन्कार करती है लेकिन कॉर्पोरेट घरानों के भारी ऋण को माफ  कर रही है। पिछले आठ वर्षों में 13 लाख करोड़ से अधिक के उनके कज़र् को बट्टे खाते में डाला गया है। आज भी एनपीए करीब 16 लाख करोड़ है। दूसरी ओर वार्षिक बजट में मनरेगा के फंड आवंटन को कम कर दिया गया है। गरीब जनता में मायूसी है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की नवीनतम रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि दैनिक वेतन भोगियों में आत्महत्या दर लगभग 25 प्रतिशत तक पहुंच गयी है और हमारे देश में हर साल 6.3 करोड़ लोग स्वास्थ्य पर जेब खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिए जाते हैं। भारत वर्तमान में मानव विकास सूचकांक में 188 देशों में 132वें स्थान पर है। इसके विपरीत पिछले लगभग 12 वर्षों में अरबपतियों की सम्पत्ति में औसतन 13 प्रतिशत की वृद्धि होने का अनुमान है जबकि यह सामान्य श्रमिकों की मज़दूरी से छह गुना अधिक है। रोज़गार परिदृश्य भी बहुत निराशाजनक है। भारत में श्रम ब्यूरो के अनुसार 25 प्रतिशत जनसंख्या 19-29 वर्ष की आयु के बीच है।
भारतीय श्रम संगठन भाजपा सरकार की मज़दूर विरोधी, किसान विरोधी और जन विरोधी नीतियों का लगातार विरोध कर रहे हैं। वे अब गंभीर चुनौती का सामना कर रहे हैं क्योंकि श्रम कानूनों में बदलाव किया गया है और 29 कानूनों को मिलाकर उनका संहिताकरण किया गया है। पूरी कवायद बिना किसी परामर्श, आवश्यक प्रक्रियाओं के प्रबंधित की गयी और संसद से इस पर मंजूरी ले ली गयी। सरकार चार श्रम संहिताओं को जबरन लागू करने जा रही है, जो यूनियनों को पंगु बना देंगी, नियोक्ताओं को नौकरी देने और निकालने का पूरा अधिकार देगा, सामूहिक सौदेबाजी को विफल कर देगा, हड़ताल का अधिकार छीन लेंगी, निश्चित अवधि के रोज़गार को आदर्श बना देंगी, तथा नियमित नौकरियों को असंभव बना देंगी।
केंद्र की सरकार यूनियनों के साथ किसी भी संवाद में विश्वास नहीं करती है। द्विदलीय या त्रिपक्षीय तंत्र का सम्मान नहीं करती तथा श्रम कानूनों और ट्रेड यूनियनों को विकास और विकास में बाधा मानती है। वह श्रमिकों के अधिकारों को कम करना तथा उद्यमों को ‘व्यापार में आसानी’ देना चाहती है।  श्रम संगठनों को अब यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि समय की मांग है कि केंद्र में श्रम-विरोधी नीतियों के खिलाफ ज़ोरदार संघर्ष करने के लिए मजदूर-किसान एकता को मजबूत किया जाये। (संवाद)