मेरी यादों का अण्डेमान तथा निकोबार


इस महीने के बुरे समाचारों में अण्डेमान तथा निकोबार की एक युवती के साथ दुष्कर्म का समाचार भी शामिल है। मैं वहां के आदिवासियों तथा अन्य निवासियों की जीवन क्रिया से अवगत हूं। 1973 के अप्रैल महीने में मैं वहां तीन सप्ताह रह कर आया था। वह स्थान जिसे काले पानी की धरती भी कहा जाता है। 
मेरे वहां रहने तक वहां की धरती पर न अधिक सर्दी, न गर्मी, न धूल, न भिखारी, न चोर, न चोरी और न ही दुष्कर्म होता था। जन-साधारण सुस्त भी था, मद्धम तथा बहुर भोली भी। कुकर्म से मुक्त। वे अपनी वासना की भावना की तृप्ति के लिए अंतर्राज्यीय विवाह रचा लेते थे। वहां के बंगाली को दूरवर्ती तामिलीयन से सम्पर्क स्थापित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी। उन्होंने यह भावना वहां के कैदियों से ग्रहण की थी, जो शारीरिक ज़रूरतों हेतु उम्र भर के लिए एक-दूसरे के हो जाते थे। यह देखे बिना कि कोई लाहौर या पेशावर से था या मद्रासी तथा पोड्डीचरी से। दुष्कर्म का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था। 
वह बने जीवन साथियों को अपने आस-पास रखते थे। यदि मैंने निजी प्रमाण देना हो तो मेरा मित्र महिन्दर सिंह ढिल्लों वहां नौकरी करते समय अपनी पत्नी गुरदर्शन कौर को साथ ले गया था। चाहे उसका मुख्य उद्देश्य काले पानी की उस धरती को देखना था, जहां उनका पिता दीवान सिंह काले पानी अंग्रेज़ों को स्वास्थ्य सुविधाएं देते हुए जापानियों द्वारा शहीद कर दिया गया था। 
वहां के पूर्व मुख्य सचिव जतिन्द्र नारायण, उनके साथी व्यापारी संदीप सिंह रिंकू तथा अण्डेमान के मुअत्तिल हुए लेबर कमिश्नर आर.एल. ऋषि द्वारा वहां की 21 वर्षीय युवती के साथ दुष्कर्म के समाचारों से प्रतीत होता है। उस बेचारी को नौकरी का झांसा देकर बहलाया गया था। यह दुख की बात है कि वहां की धरती पर भी यहां का प्रचलन आ गया है। मुर्दाबाद!
शमील का काव्य संग्रह ‘रब्ब दा सुरमा’ 
शमील मुझ से छोटा है। बहुत छोटा। वह मुझ से पढ़ा भी है और मेरे साथ ‘देश सेवक’ समाचार पत्र में सहकर्मी भी रहा है। तब वह जसबीर शमील होता था। अब उसने जसबीर से मुक्त होकर स्वयं को शमीली जामा पहना लिया है। साधारणता त्याग कर असाधारण हो गया है। मैं नहीं जानता था कि वह कविता की भी रचना करता है, मुझे उसके चिन्तन का ज्ञान था। फुर्तीले चिन्तन का। उसकी कविता फुर्तीले चिन्तन की उपज है। 
‘रब्ब दा सुरमा’ की कविताएं कायनात की बात करती हैं। रब्बी कायनात की। रब्बी सुरमे की। इनमें मेल-मिलाप भी है, अपनत्व भी तथा जीने का फलसफा भी। सृजक फलसफा। वह हृदय की भावना के गैर-हाज़िरी के तुल्य समझता है।
सितारा वजदा। हौली हौली
दर्द चलदा/हौली हौली
कोई गैर हाज़िरी गुणगुना रही
हौली हौली। 
उसके चिन्तन में गैर-हाज़िरी गुणगुनाती है। रब्ब दे सुरमे की भांति। कविता के इन्सान की आवाज़ बनने की भांति। यह गुण रब्ब के पास हैं या इन्सान के पास। शमील के अनुसार दुनिया को बिल्कुल काल एवं सफेद होने से बचाने के लिए रब्ब ने अस्त होते सूर्य की धीमी रोशनी इन्सान की आंख में डाल दी है। इसे हम रब्ब का सुरमा भी कह सकते हैं और उसकी कायनात भी। 
शब्द मेरे जग पये रौशनियां वांग 
तेरी आमद ’ते/तेरे सनमान विच्च
छुह तेरी नाल पुंगर पये
***
शब्द तां इंझ
जिवें चिमटी नाल मन पकड़न लग्गीये
जां पानी ’च तेरा नां लिखिये
मुट्ठियां नाल हवा ढेइये
शब्द तां मेरे मन दा सहारा बस्स
***
मैं तण दिंदा शब्दां नूं/तेरे लयी कमान वांग 
विन्न दिंदा आकाश नूं
कि बद्दल फड़फड़ाउंदे
तेरे सिर ’ते आ बैठण
मैं इन्हां कबूतरां नूं छेड़ां
हवा दी इक लहर छिड़ पये
ते तूं/वादीयां विच्च उड़दी चुन्नी वांग
मेरे मुंह ’ते आ पयें 
ते मैं इंझ ही/रब्ब नाल खेडता होयिआ
सौं जावां 
***
जे मेरे कोल कविता न हुंदी/तां हार जांदा
मुड़ जांदा/बिनां बोलियां ही
***
क्यों छेड़नी फेर/ओही पुरानी कथा
इसदे सब मोड़/सभ सिखर 
मैं देख चुकां
बार-बार ओही दर्द 
ओही चीस/उडीक/वियोग 
इन्हां सब मोड़ां तों/हुण डर लगदा
सब कहानियां दा इक ही विषय/ज़िन्दगी 
ज़िन्दगी दी इक्को भटकण/तलाश
तलाश दा इक्को राह/दर्द
दर्द दी इक्को मंज़िल/वैराग
वैराग दा इक्को अंत/राकेट दी तरां सड़ जाना
मेरे कोल बथेरा वैराग पहिलां ही 
गुरूता दे घेरे नूं/तोड़न लई
ओही कहानी हुण फेर ना छेड़।
शमील दूर कनाडा में रहते हुए दिशाओं की बात करता है। आकाश की। ऊपर कहीं बसते रब्ब की। रब्ब दे सुरमे की। उसकी कायनात की। शमील का कवि मन आकाश के ऊपर बसता है। मिज़र्ा गालिब के कथन के अनुसार :
मंज़र एक बुलन्दी पर और हम बना सकते 
काश कि इधर होता अर्श से मकां अपना
शमील यह बात कहता नहीं। अपनी कविता के माध्यम से विचरण करता है। उसके शब्दों में मुसाफरी है। उनकी काव्य शब्दावली नदी के पानी की भांति बहती है और रेलगाड़ी की भांति भागती है। 
काहली विच्च दौड़दे लोक/तेज़ रफ्तार कारां
सड़कां ’ते चलदीयां रौशनियां
सारियां दे पिच्छे/थोड़ा थोड़ा दर्द धड़के
***
कागज़ ’ते लिखे शब्द/तिलक जांदे
धरती ’ते मिलदे लोक/विछड़ जांदे
तूं मैनूं किसे होर स्तह ’ते मिल
***
दिल दी पीड़ घटदी थोड़ी थोड़ी।
तुरन नाल दुख कुझ थमदा
दुखदा होवेगा धरती का वी कुझ
तद ही दौड़ी फिरदी विचारी
शमील की कविता ने पंजाबी कविता का आंगन बड़ा किया है। उसका रंग अनूठा है। मैं खुश हूं। उसके सम्मान से मेरा सम्मान बढ़ता है। मेरा उसके साथ अपनत्व का भी। 
अंतिका
—हरिभजन सिंह—
पैरां हेठां बुझ गिआ अंगिआर ऐना आख के
वंड दे दुनिया नूं तड़पां मैं तां हुण बे नूर हां।