पुरातन भारतीय सांस्कृतिक सम्पदा की तस्करी का कारोबार



करीब साठ साल पहले तमिलनाडु के कुंभकोणम शहर के पास स्थित सुंदरा पेरुमलकोविल गांव के अरुलमिगु सौंदराराजा पेरुमाली मंदिर से कलिंगनार्थन कृष्ण, विष्णु और श्रीदेवी की कांस्य प्रतिमाएं गायब हो गई थीं। दशकों तक गांव वालों को कुछ पता ही नहीं चला, क्योंकि चोर इतने शातिर थे कि असली प्रतिमाओं को गायब करके, उनकी जगह नकली प्रतिकृतियां रख दी थीं। इस साल कुम्भकोणम के इस गांव की ये असली मूर्तियां अमरीका के अलग अलग संग्रहालयों में देखी गयीं। कलिंगनार्थन कृष्ण की मूर्ति अमरीका के सेन फ्रांसिस्को में स्थित एशियन आर्ट म्यूजियम में मिली। विष्णु की मूर्ति टेक्सास के किमबेल आर्ट म्यूजियम में और श्रीदेवी की मूर्ति फ्लोरिडा के हिल्स ऑक्शन हाऊस में मिली। अब इन तीनों मूर्तियों को वापस तमिलनाडु लाये जाने की कागजी कारवाइयां हो रही हैं और यह भारत तथा अमरीकी सरकार के सांस्कृतिक सचिवों की सफल वार्ताओं पर निर्भर है कि वो भारत आ पाएंगी या तकनीकी बाधाओं में उलझकर रह जाएंगी। यह कैसी विडम्बना है कि एक तरफ  तो ब्रिटेन और अमरीका जैसे देश हिंदुस्तान को पिछड़ा हुआ और सांस्कृतिक रूप से बेहद विपन्न देश मानते हैं, दूसरी तरफ  आज़ादी के बाद पिछले 75 सालों में इस गरीब और पिछड़े देश से अब तक 
अरबों डॉलर की सांस्कृतिक सम्पदा लूटी जा चुकी है और यह लूट अनवरत जारी है। यह आंकड़ा हैरान करता है, लेकिन यह भारत सरकार का नहीं, यूनेस्को का है जिसके मुताबिक भारत से अब तक यानी साल 2018 तक 50,000 से भी ज्यादा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक कलाकृतियां गायब हो गयी हैं। दूसरे शब्दों में इन कलाकृतियों की चोरी या तस्करी हो चुकी है। इन कलाकृतियों में भगवानों की मूर्तियां,कई विशिष्ट गहने और लकड़ी की बेशकीमती चीजें शामिल हैं। भारत की सांस्कृतिक संपदा को किस तरह दोनों हाथों से लूटा गया है या जा रहा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूरोप के विकसित देशों के संग्रहालयों में सबसे ज्यादा भारतीय कलाकृतियां ही मौजूद हैं। अमरीका के एक दर्जन से ज्यादा संग्रहालय जिन कलाकृतियों की वजह से दुनिया में विशिष्ट माने जाते हैं, वे ज्यादातर भारतीय कलाकृतियां हैं। साल 2014 में ऑस्ट्रेलिया के नेशनल गैलरी संग्रहालय में भगवान शिव की तांडव नृत्य करते हुए एक ऐसी कलाकृति का प्रदर्शन हुआ, जो एक दशक से भी ज्यादा समय से भारत से गायब थी।
माना जाता है कि ऑस्ट्रेलिया में हिंदू देवी-देवताओं की कई हजार मूर्तियां अलग अलग संग्रहालयों में मौजूद हैं, जिन्हें ऑस्ट्रेलिया के संग्रहालयों ने न्यूयार्क के आर्ट व्यापारियों से खरीदा है। यह विशिष्ट नटराज की मूर्ति जिसे इस संग्रहालय को एक भारतीय मूल के व्यापारी सुभाष कपूर द्वारा 50 लाख डॉलर में बेचा गया था। नटराज की यह मूर्ति 900 साल से भी ज्यादा पुरानी है और माना जा रहा है कि दुनिया के आर्ट बाज़ार में उसकी मौजूदा कीमत 50 करोड़ डॉलर से भी ज्यादा है। वास्तव में  हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक सम्पदा से बेहद उदासीन रहते हैं। हम अपनी इन धरोहरों से बेहद अनभिज्ञ और अरुचि रखने वाले भी हैं। पिछली सदी के 70 और 80 के दशक के दौरान शायद ही उत्तर भारत का कोई ऐसा इलाका बचा हो, जहां रातोंरात बड़े पैमाने पर सदियों पुरानी मूर्तियां गायब न हुई हों। बचपन में हम देखते थे कि गांवों के बाहर कई जगह चबूतरों पर खेतों आदि में खुदाई के दौरान निकली दर्जनों मूर्तियां रखी हुआ करती थीं। लेकिन बाद में धीरे धीरे ये कब,कहां और कैसे गायब हो गईं, किसी को कुछ नहीं मालूम।  आज दुनियाभर के संग्रहालयों में सबसे ज्यादा भारत से चुरायी गई मूर्तियां मौजूद हैं। भारत से तो फिर भी ये मूर्तियां चोरी या तस्करी के जरिये बाहर गयी हैं, लेकिन आजादी के पहले पाकिस्तान और बांग्लादेश भी भारत का हिस्सा रहे हैं, इसलिए यहां भी भारतीय संस्कृति की वैसी ही समृद्ध धरोहर है जैसा कि हिंदुस्तान में है और इन देशों से तो बिना किसी मशक्कत के ही तस्करों ने करोड़ों डॉलर कीमत की मूर्तियां रातोंरात यहां से निकालकर विदेशी नीलामी घरों में पहुंचा दिया है। जिस भारतीय मूल के शातिर ठग सुभाष कपूर पर नटराज की करोड़ों डॉलर वाली मूर्ति को ऑस्ट्रेलिया के संग्रहालय को बेचे जाने का आरोप है, उस पर कोई एक दो नहीं बल्कि 150 दुर्लभ मूर्तियों को भारत से चुराकर दुनिया के संग्रहालयों को बेचे जाने का आरोप है। 
दरअसल भारत में सांस्कृतिक सम्पदा की जिस तरह से बेकद्री होती है, उसके चलते अगर चोर, तस्कर, ठग भारत की मूर्तियों को बीन-बीनकर विदेशी संग्रहालयों में भर रहे हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। दरअसल हमारे यहां सरकारों ने कभी देश की सांस्कृतिक सम्पदा की कीमत ही नहीं समझी। यूनेस्को दशकों से चीख-चीखकर कह रहा है कि भारतीय सांस्कृतिक सम्पदा की महालूट जारी है लेकिन हमारी सरकारें इस मामले में कुंभकरण से भी ज्यादा गहरी नींद में सोयी हुई हैं। शायद हमारे राजनेताओं में इस कदर सांस्कृतिक संवेदनहीनता और अनपढ़पन है कि उन्हें कभी इनका महत्व ही नहीं समझ में आया। अब कहीं जाकर पिछले कुछ सालों से सरकार थोड़ी सक्त्रिय हुई है और पिछले छह सालों में करीब 200 मूर्तियां विदेशों से भारत लौटी हैं। जरा सोचिए, 50,000 कलाकृतियों के सामने ये 200 कलाकृतियों की क्या बिसात है? फिर भी इस छोटी सी कार्रवाई पर भी पूरी दुनिया में सनसनी मच गई है और तमाम देश नहीं चाह रहे कि भारत सरकार अपनी इस मुहिम को जारी रखे, क्योंकि अगर वाकई हिंदुस्तान दुनियाभर से अपनी लूटी गई सांस्कृतिक धरोहरों को वापस हिंदुस्तान ले आया, तो इन देशों के पास अपने सांस्कृतिक वर्चस्व और सांस्कृतिक पर्यटन के नाम पर क्या रहेगा? गौरतलब है कि आज की तारीख में अमरीका, फ्रांस और ब्रिटेन में सांस्कृतिक पर्यटन एक बड़ी अर्थव्यवस्था है। अमरीका में तो यह हर साल 9 से 10 हजार करोड़ डॉलर की कमाई करता है लेकिन अमरीका,ब्रिटेन या फ्रांस या ऑस्ट्रेलिया ही क्यों न हो, इन देशों के ज्यादातर म्यूजियम में मौजूद कलाकृतियां इन देशों में नहीं बनी बल्कि दुनिया के अलग अलग हिस्सों से चोरों, तस्करों द्वारा लूटकर इन्हें यहां तक पहुंचाया गया है। हैरानी की बात यह है कि भारत जो सांस्कृतिक रूप से दुनिया में सबसे समृद्ध देश है, वहां किसी तरह का सांस्कृतिक पर्यटन ही नहीं है। 
 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर