कोविड नीति के कारण जिनपिंग हुए हीरो से ज़ीरो


चीन में विरोध प्रदर्शन होना कोई नई बात नहीं है। हालांकि आम बात यह है कि चीन में तानाशाह कम्युनिस्ट पार्टी के सख्त नियंत्रण व दबदबे के कारण सब चीजें अपनी सामान्य गति से चलती रहती हैं, लेकिन तथ्य यह है कि जन विरोधी कार्रवाइयों  से लेकर बैंकों के डूबने तक के अनेक कारणों से चीन में विरोध प्रदर्शन होते रहते हैं। बहरहाल, पिछले दिनों चीन के विभिन्न शहरों में जिस प्रकार की जन विरोध-प्रदर्शन लहर उठी हुई , वैसी कम से कम एक पीढ़ी ने तो नहीं देखी है। पिछली बार किसी मुद्दे पर ऐसा विरोध 1989 में देखा गया था। इस बार मुद्दा बेतुकी ज़ीरो-कोविड नीति है, जिसके तहत नागरिकों को महीनों से मास टेस्टिंग, लॉकडाउन व यात्रा पाबंदियां बर्दाश्त करनी पड़ी है। इस नीति से जनता इतनी कुंठित हो गई कि उसके पास सड़कों पर उतरने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था। उसने हाथ में खाली कागज लेकर अपने गुस्से व परेशानियों को व्यक्त किया और कुछ प्रदर्शनकारी तो इतना साहस तक कर रहे हैं कि सीसीपी (चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी) व राष्ट्रपति शी जिनपिंग (जिन्होंने हाल ही में तीसरा टर्म हासिल किया है) के इस्तीफे की मांग कर दी।
जिनपिंग की सरकार ने एंटी-वायरस के कुछ नियमों को लचीला अवश्य किया है, लेकिन साथ ही स्पष्ट किया है कि कठोर ज़ीरो-कोविड नीति जारी रहेगी। इसलिए अनुमान यह है कि वर्तमान विरोध प्रदर्शनों पर जल्द विराम लगना कठिन है, विशेषकर इसलिए कि बीजिंग के पास कोविड पर काबू पाने का कोई स्पष्ट रोड मैप नहीं है। इस चिंताजनक स्थिति के लिए केवल एक व्यक्ति ज़िम्मेदार है और वह है शी जिनपिंग। इसमें कोई शक नहीं है कि देर सवेर जिनपिंग सरकार इन देशव्यापी प्रदर्शनों को नियंत्रित कर ही लेगी, लेकिन वह इन प्रदर्शनों के व्यापक, दीर्घकालीन प्रभावों को लेकर अवश्य चिंतित होगी। ध्यान रहे कि विभिन्न हितों व मांगों के दबाव में पार्टी-स्टेट मशीनरी के बिखरने की आशंका थी। इसे सुरक्षित रखने के लिए ही जिनपिंग ने अपना केंद्रीकरण प्रोजेक्ट आरंभ किया था। उन्होंने पार्टी व सरकार के सभी अंतरों को समाप्त कर दिया था, सीसीपी के भीतर सभी गुटों पर विराम लगा दिया था और पार्टी की तानाशाही चीनी राज्य की सभी इकाइयों पर थोप दी थी। यह केंद्रीकरण चीन की जीरो-कोविड नीति में भी दिखायी दे रहा है, जिसे राजनीतिक प्रोजेक्ट बना दिया गया है। 
चीन में पिछले छह माह के दौरान केवल छह कोविड मौतें हुई हैं, जबकि इस अवधि में हजारों लक्षणात्मक केस सामने आये हैं। यह स्वीकार्य स्थिति है, जिसमें पाबंदियों को हटाया जा सकता है। लेकिन ज़ीरो-कोविड नीति जारी है । अचानक लॉकडाउन लगा दिया जाता है, मास टेस्टिंग होती है और स्मार्टफोन के जरिये नागरिकों की रियल-टाइम ट्रैकिंग की जाती है। इन पाबंदियों के कारण नागरिक आर्थिक व अन्य तंगियों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्हें यह भी लगा है कि पाबंदियों के कारण गैर-कोविड मौतों में वृद्धि हो रही हैं। यह सही है कि महामारी के आरंभ में केवल चीन ने ही ज़ीरो-कोविड नीति नहीं अपनायी थी। कम्युनिस्ट वियतनाम से लेकर लोकतांत्रिक न्यूज़ीलैण्ड ने लगभग समान नीतियां अपनायी थीं, लेकिन इन देशों को ज़ीरो-कोविड नीति छोड़े हुए भी महीनों हो गये, विशेषकर इसलिए कि डेल्टा व ओमिक्रोन लहरों ने इस नीति को बेअसर कर दिया था। चीन ने अभी तक इस नीति को नहीं त्यागा क्योंकि इसकी बदौलत जिनपिंग ने राजनीतिक ख्याति व दबदबा अर्जित किया है। 
गौरतलब है कि जब सारी दुनिया घातक महामारी से दो-चार हो रही थी तो तब चीन ने कोविड पर नियंत्रण हासिल कर लिया था और लगभग दो वर्ष तक उसके नागरिक सुरक्षित रहे। इससे जिनपिंग को प्रोपेगंडा का अवसर मिल गया। उन्होंने दो मुख्य नैरेटिव का प्रचार किया। एक, चीन की महामारी नियंत्रण योजनाएं अन्य देशों की तुलना में बेहतर हैं। दूसरा यह कि कम्युनिस्ट पार्टी का शासन व प्रबंधन लोकतांत्रिक देशों से श्रेष्ठ है। इन दोनों नैरेटिव के आधार पर यह दावा किया गया कि जिनपिंग का राजनीतिक नेतृत्व संसार के अन्य नेताओं की तुलना में बहुत बेहतर है। वह विश्व गुरु है। इस प्रकार जिनपिंग ने अंतर्राष्ट्रीय जन स्वास्थ्य संकट को अपने नेतृत्व की व्यक्तिगत व वैचारिक जीत में बदल दिया। जिनपिंग का इमेज-बिल्डिंग जुनून ही, चीन के वर्तमान सियासी संकट की जड़ है। जिनपिंग ने अपनी ज़ीरो-कोविड नीति को इतना अधिक भुना लिया है कि अब इसे वापस लेना उन्हें कठिन लग रहा है। साथ ही वह यह भी नहीं दिखाना चाहते कि आवामी दबाव के सामने वह कमज़ोर हैं या झुक जायेंगे। 
लेकिन दूसरी और जनता इस जीरो-कोविड नीति से इतनी त्रस्त हुई कि उसे न अपनी जान का डर रहा और न ही जिनपिंग की बंदूकों व टैंकों का ़खौफ । गौरतलब है कि 1989 में जनप्रिय नेता हो याओबंग की मौत के विरोध में त्यानआनमेन स्क्वायर पर जो प्रदर्शन हुए थे, उसे चीनी सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर टैंक चढ़ाकर समाप्त किये थे। अब देखना यह है कि वर्तमान जन आक्रोश के विरुद्ध जिनपिंग की क्या प्रतिक्रिया रहती है। 
जिनपिंग के पास दो ही विकल्प हैं। एक, अपनी जीरो-कोविड नीति को सख्ती के साथ ज़ारी रखें और जनता के गुस्से को बलपूर्वक दबाएं। दूसरा यह कि जीरो-कोविड नीति को विराम दें और इसके आधार पर जो उन्होंने अपनी इमेज बनायी है, उसे गंवा बैठें। दोनों ही विकल्प जिनपिंग के लिए आगे कुआं पीछे खाई जैसे हैं। छह सप्ताह पहले अपनी शानदार सियासी जीत के कारण जिनपिंग हीरो बन गये थे और अब जीरो-कोविड नीति को जारी रखने की जिद उन्हें ही ज़ीरो बना सकती है, विशेषकर इसलिए कि वर्तमान संकट चीनी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा सकता है। डॉलर के मुकाबले युआन की कीमत में गिरावट आयी है, जो इस बात का संकेत है कि निवेशकों की दिलचस्पी कम हुई है। बहरहाल चीन के संकट से यह सबक मिलता है कि तानाशाही राज्यों में लचीलेपन का अभाव होता है, जिस कारण वह महामारी जैसी आपात स्थितियों का प्रभावी मुकाबला करने में सक्षम नहीं होते।
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