क्यों नहीं दंडित किये जायें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग न लेने वाले ?


अब चुनाव आयोग को यह गम्भीरता से विचार करना होगा कि कैसे सभी मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करने को लेकर गंभीर या बाध्य हों। वे मतदान करना अपना दायित्व समझें। हाल ही में दिल्ली नगर निगम चुनाव सम्पन्न हो गए। चुनाव प्रचार से लेकर चुनाव नतीजे सही से आ गये। कहीं कोई गड़बड़ नहीं हुई। पर निराशा इस कारण से अवश्य हुई कि इस बार दिल्ली में मतदान 47 प्रतिशत के आस-पास ही रहा। मतलब आधे से अधिक मतदाताओं ने अपना वोट डालने की आवश्यकता ही नहीं समझी। मतदान भी रविवार के दिन ही हुआ था। इसलिए उम्मीद तो यह थी कि दिल्ली वाले मतदान के लिए भारी संख्या में निकलेंगे। उस दिन मौसम भी  खुशगवार था। फिर भी मतदान बेहद खराब रहा। बड़ी तादाद में मतदाता अपनी पसंद के उम्मीदवार के हक में वोट देने नहीं आए। वे जिन नेताओं और राजनीतिक दलों को नापसंद करते हैं, उन्हें चाहे तो खारिज कर सकते थे। उन्होंने ये भी नहीं किया।
चूंकि दिल्ली तो एक लघु भारत के समान है, इसलिए इस महानगर में होने वाले निगम, विधानसभा तथा लोकसभा चुनावों पर सारे देश की नज़रें रहती हैं। रहनी भी चाहियें! लेकिन, मतदान के बाद जब चुनाव आयोग ने बताया कि मतदान तो मात्र 47 प्रतिशत ही हुआ तो समस्त लोकतंत्र प्रेमियों को निराशा ही हुई। कई निगम क्षेत्रों में मतदान 37 प्रतिशत तक रहा। यह पता लगाया जाना चाहिए कि आखिर मतदाता घर से क्यों नहीं निकले।  यह तो सबको पता है। इस बार दिल्ली वालों ने यह भी बता दिया कि वे राजनीति में जरूरत से कहीं कम ही दिलचस्पी लेते हैं। यकीन मानिए कि यह कोई इस तरह की बात नहीं है कि जिस पर दिल्ली गर्व करे। दिल्ली वालों के शर्म का विषय जरूर हो सकता है! कहने वाले कह रहे हैं कि हजारों दिल्ली वाले मतदान की तारीख से एक-दो दिन पहले घूमने के लिए राजधानी से बाहर चले गए थे। उन्होंने वोट देने को प्राथमिकता ही नहीं दी। उनके लिए घूमना और तफरीह करना वोट देने से अधिक अहम रहा। मतदान की तारीख से पहले एयरपोर्ट तथा रेलवे स्टेशनों से दिल्ली वाले निकलते रहे। यह अफसोसजनक ही नहीं शर्मनाक स्थिति है।
देखिए, यह तो मानना ही होगा कि जीवंत तथा स्वस्थ लोकतंत्र की पहली शर्त है कि अधिक से अधिक लोग अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल करें। भारत को संसार का सबसे खास लोकतांत्रिक देशों में से एक माना जाता है। उसे अपनी इमेज को उजागर करने के लिए यह सुनिश्चत करना होगा कि यहां पर कम से कम 90-95 प्रतिशत मतदाता तो अपना वोट दें। इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता कि लोग बढ़-चढ़कर मतदान में भाग लें। दिल्ली जैसे महानगर की जनसंख्या की उदासीनता किसी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। ऐसे में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू करने की मांग भी जायज सिद्ध होती है। हालांकि यह भी आसानी से संभव नहीं है।  बहरहाल, दिल्ली में निगम चुनावों के दौरान कम मतदान को किसी भी सूरत में सही नहीं माना जा सकता है। राजधानी के नागरिकों को समझना होगा कि अगर वे सही शख्स को नहीं चुनेंगे तो उनके काम को कौन करेगा। वोट न देने वाले किस मुंह से कह सकते हैं कि देश सही से नहीं चल रहा है। उनके पास जब अपना निगम पार्षद, विधायक या सांसद चुनने का ही घंटे भर का भी समय नहीं है तो फिर उन्हें अपने देश के नेताओं पर आक्षेप करने का भी कोई अधिकार नहीं रहता। दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकतीं! किसी विशेष परिस्थिति के चलते यदि कोई वोट नहीं दे पाता तो समझा जा सकता है। मतलब बीमारी-लाचारी के कारण इंसान वोट देने से वंचित रह ही सकता है। पर अकारण वोट ना देना अक्षम्य ही माना जाएगा। मुझे समझ नहीं आता कि कैसे कुछ लोग वोट ना देने पर अपराध बोध से भी तनिक भी ग्रस्त नहीं होते। एक बात और भी महसूस हुई कि इस बार चुनाव प्रचार का पता ही नहीं चला। कुछेक स्थानों पर अपवाद हो सकती हैं। कुछ साल पहले तक सभी बड़े दल रामलीला मैदान, सुपर बाजार, बाराटूटी, वगैरह में अवश्य सभाएं करते थे। उनमें हजारों की संख्या में लोग नेताओं के भाषणों को सुनने के लिए पहुंचती थी। यह सब अब गुजरे दौर की बातें हो गईं हैं। सारा प्रचार सिर्फ  सोशल मीडिया पर ही हो रहा था।
 आप 1958 से लेकर 2022 के नगर निगम चुनावों के इतिहास को देखिए। आप पाएंगे कि सिर्फ  एक गुजराती भाषी यहां पर नगर निगम पार्षद बना। उनका नाम था शांति देसाई। वे मूल रूप से गुजरात से थे और दिल्ली की राजनीति में अपनी जगह बनाने में सफल रहे थे। वे साल 2000 में दिल्ली के मेयर भी रहे। वे इससे पहले दिल्ली नगर निगम की स्टेंडिंग कमेटी के चेयरमैन भी थे।  शांति देसाई का संबंध भारतीय जनता पार्टी से था।  यानी मुंबई से दिल्ली समावेशी होना सीख सकती है। बहरहाल, ना केवल दिल्ली बल्कि देश के सभी नागरिकों को अपने मताधिकार करने को लेकर कोताही नहीं बरतनी चाहिए।  क्या उन नागरिकों पर किसी तरह का दंड लगाया जा सकता है जो बिना किसी ठोस कारण के अपना वोट नहीं देते? उन्हें किसी प्रकार की सरकारी योजना या लाभ से पांच वर्षों तक वंचित क्यों न रखा जाये?