जोशीमठ का धंसना कसूर प्रकृति का नहीं, मानवीय लालच का है

 

‘आधुनिक’ मानवीय बनावट के पीछे लाखों वर्षों का संघर्ष है। जंगलों, कंदराओं, गुफाओं, कुल्लियों-ढ़ारों से सुदृढ़ इमारतों तक। दायरे, पहिये से लेकर राकेट और प्राकृतिक महामारियों के दौर से वैज्ञानिक सुविधाओं तक। यह भगवान की देन नहीं, प्राकृतिक क्रिया-प्रक्रिया और श्रम की प्रशंसनीय देन है, परन्तु इसी मानव ने जन्म देने वाली प्रकृति में खलल डालना आरम्भ कर दिया है। परिणामस्वरूप इसके बुरे प्रभाव निकल रहे हैं। साफ-सुथरी ज़िंदगी का लुत्फ लेने के लिए मिट्टी-पानी, हवा-आकाश, जंगल, दरियाओं सहित पहाड़ों अर्थात हरित पहाड़ों की भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कुल्ली-गुल्ली-जुल्ली की, परन्तु हम पहाड़ों की महत्ता, देन और इनके प्रति मानवीय फज़र्ों को भूल गये हैं। आजकल पहाड़ों का खिसकना या गिरना, मिट्टी का धंसना और जमीनी दरारों (जोशीमठ-चमोली, उत्तराखंड) की बहुत चर्चा है।
पहाड़ महज़ मिट्टी के ढेर नहीं होते। इनका अपना एक जीवन संसार है, बेहद सूक्ष्म और जटिल। बहुत कुछ है इनके ऊपर और इनके भीतर। जल-स्रोत, ज़रखेज़ मिट्टी की परतें, बेश-कीमती खनिज, विलक्ष्ण जीव-जन्तु और मनमोहक जंगल। कहीं-कहीं ग्लेशियर और कहीं मात्र पठार और उत्तम भू-दृश्य जो मिलकर हवा-पानी, मानव जीवन और संसार की तरक्की में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, परन्तु पहाड़ों की अपार कृपा भूल, हमने इनको महज़ ‘आमदन का साधन’, पर्यटन/मनोरंजन का साधन मात्र समझ लिया है। यह बड़ी गलती है। पहाड़ प्राकृति का अहम अंग हैं, हमारे मूक सेवादार, परन्तु जब यह हमारी करतूतों के कारण रूठते हैं, तब भीषण दुखांत हमें झेलने पड़ते हैं। विराट रूप धारण कर ये चलते हैं, लालची निज़ामों और बे-समझ व्यक्ति द्वारा बनाये सब कुछ धराशायी करने।
जोशीमठ हिमालय पर्वत के पैरों में बसा हुआ है। तीन बड़ी प्राकृतिक दरारों और सैंकड़ों सूक्ष्म दरारों से हिमालयी श्रृंखला अपने पैरों के नीचे वाली भौगोलिक स्थिति बदलती रहती है, जिस कारण यहां की जाने वाली मानवीय गतिविधियां बिल्कुल प्रकृति जैसी होनी चाहिएं। आंतरिक जल-बहावों से भरे हिमालय क्षेत्र तो वैसे भी भूकम्प-युक्त क्षेत्र है, जिसकी निचली परतें नर्म, परन्तु ऊपर की परत जीवन्त गतिविधियों और भौगोलिक व प्राकृतिक क्रिया-प्रक्रिया के कारण कठोर है। अंदरूनी ढीलापन विशेष चौकसी की मांग करता है, लेकिन अफसोस! भिन्न-भिन्न समय पर भू-वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों की चेतावनियों को दरकिनार करके, जहां हिन्दू आस्था को बहला कर सत्ता पक्ष की वोटों के प्रति उतावली मानसिकता, उसको बहु-मार्गीय सड़कों और पर्यटन उद्योग के तहत खोखले किये जा रहे पहाड़ों की तरफ मुंह नहीं करने दे रही, वहीं देसी कार्पोरेटरों (फंडिंग स्रोतों) के अधिकारों के तहत बहुत ही नाजुक स्थानों पर हाईड्रोलिक पावर प्रोजैक्ट शुरू करके जल-स्रोतों की ज़मींदोज़ और सुदृढ़ सड़कों की खुदाई के अन्तर्गत धरती की ऊपरी लाखों वर्षों की प्राकृतिक स्थिति को नि:संकोच बदला जा रहा है। जोशीमठ उस पर्वत श्रृंखला पर बसा हुआ है, जिसके आस-पास बहते नदी-नाले और प्राकृतिक जल-स्रोत हैं, जिनको संकीर्ण हितों के तहत आबादी के निकट सुरंगें बनाकर आपस में जोड़ा जा रहा है।
भू-विज्ञानी डा. बहादुर सिंह का कहना है कि उनके सहित पर्यावरण विशेषज्ञ करीब एक दशक से इस क्षेत्र के नाज़ुक होने और प्राकृतिक संतुलन विरोधी कथित विकास के कारण बर्बाद हो जाने संबंधी लगातार चेतावनियां दे रहे हैं। भू-विशेषज्ञों के अनुसार यह वैसे भी भूकम्प वाला क्षेत्र है और ‘जोशीमठ तो बसा ही ग्लेशियज़र् सिल्टिंग पर है’ की चेतावनियों के बावजूद सरकार पर्यावरण विरोधी धड़ाधड़ प्रोजैक्ट लगा रही है, जिनमें विशेष सुविधाएं मॉल, होटलों सहित एक प्रत्येक मौसमी बहु-मार्गी सड़क और दूसरा मीलों लम्बी जल-सुरंग प्रोजैक्ट भी प्रमुख हैं। यह वही पावर-जल सुरंग प्रोजैक्ट है जिसके जल सैलाब ने गत वर्ष, फरवरी 2021 में 150 श्रमिकों की बलि ली थी। पहाड़ों को तोड़कर बनाई जा रही सड़क का मुख्य उद्देश्य जोशीमठ, बदरीनाथ, केदारनाथ और हेमकुंट साहिब जैसे हिन्दू सिख धार्मिक केन्दों की आड़ में लोक आस्था को भ्रमित कर राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करना है। ऋषिकेश क्षेत्र में बनाई जा रही रेल सुरंगों के कारण टिहरी ज़िले के खेतों और घरों में पड़ी दरारों से नैनीताल भी ऐसे प्रोजैक्टों के कारण खतरे में आ गया है। कथित विकास के कारण बढ़ा लोगों का जमावड़ा, भारी वाहनों की थरथराहट के कारण पैदा हुआ कम्पन, बहुपरती हलचल और प्लास्टिक और पैट्रोलिंग प्रदूषण भी इस शांत क्षेत्र के प्रति गम्भीर अपराध है। शासकों और धन कुबेरों के राज और धन की लालसा के कारण ही ऊपर से और अंदर से खोखली हुई धरती पिघलना और धंसना शुरू हो गई है।
खोखली या नंगी धरती पर पहले चरण पर ही जब बारिश की या अंदरूनी जल-बहाव की बूंदें पड़ती हैं तो यह भूमि-कणों को विलग करके 2 से 5 फुट की दूरी पर ले जाकर फैंक देती है। दूसरे चरण पर ये कण बह कर या धरती की ऊपरी या अंदरूनी महीन परत खिसक कर बह जाती है। इस बारीक परत की खुरचन दिखती नहीं, परन्तु दो-चार वर्ष बाद इसकी कमी महसूस होने लगती है। किसी स्थान, भले ही वह आबादी से कितनी भी दूर क्यों न हो, की गहरी परत का स्थान हटाने के लिए अंदर ही अंदर चलता मिट्टी का वेग खतरनाक ज़मीनी दरारों को जन्म देता है। प्रकृति द्वारा या प्रकृति विरोधी मनुष्य द्वारा प्राकृतिक स्रोत की भरपाई न करने के कारण धरती का खुरना या सिझकना भूस्खलन (जमीनी दरारें, धरती-धंस या पहाड़ों का खिसकना) कहलाता है। भूमि के कणों का प्राकृतिक प्रवाह(पानी, हवा, गति) या जैविक सक्रियता द्वारा अपने मूल स्थान से दूसरे स्थान पर जाने को भू-क्षरण कहते हैं। सीमित व साधारण भूस्खलन प्रकृति की आम प्रक्रिया है। यह नुक्सानदायक भी नहीं होती। प्रकृति या व्यक्ति की जरूरतों के कारण यह आगे भी जारी रहेगी।
प्राकृतिक संतुलन या भू-स्खलन रोधी कार्यों के तहत पहले यह सीमित और नियंत्रण में होती थी परन्तु अब ऐसा नहीं है। भू-स्खलन दो प्रकार का होता है : सहज (प्राकृतिक) और बढ़ा हुआ (मानवीय छेड़छाड़ के कारण)। जब भू-क्षरण की दर शून्य पूर्ति या भू-निर्माण की दर से कम या बराबर हो तो इसको प्राकृतिक या सहज कहा जाता है परन्तु यह उसी स्थिति में होता है, जब धरती संबंधित मानवीय गतिविधियां प्राकृतिक संतुलन और भूमि वनस्पति से परिपूर्ण हो। अब मानवीय जरूरतों पर अनियंत्रित लालच के कारण भूमि लगातार नग्न और खोखली की जा रही है। दर-हकीकत, अब भूमि और जंगलों-पहाड़ों का प्रयोग उसकी योग्यता और प्राकृतिक स्रोतों के मद्देनज़र नहीं, बल्कि चौधर, वोटों और मुनाफे के लिए हो रहा है, जिसके कारण भू-स्खलन, मरुस्थलीकरण, जल-संकट, जमीनी दरारें, जल-सैलाब बढ़ रहे हैं और पहाड़ गिर रहे हैं। भारत को दरपेश खतरों में से भूस्खलन और जलसंकट अब बड़े खतरे हैं। प्रत्येक वर्ष 6 करोड़ टन मिट्टी जल कुंडों में जा रही है। भौगोलिक स्थिति-परस्थिति के अनुसार यदि वृक्ष या वनस्पति कवर न हुए तो बारिश पहाड़ों-मैदानों की मिट्टी को बहाती है। जब पानी ढलान से उतरता है तो वहां अगर धरती नग्न हो या आगे अवरोधक न हों तो इसकी गति दोगुणी हो जाती है तथा भूमि का कटाव चार गुणा हो जाता है और इस गति पर उठाने की समर्था 32 गुणा और बहाव की सामर्श्य 64 गुणा हो जाती है। अर्थात यदि गति दोगुणी है तो बहाव की सामर्श्य 64 परन्तु यदि पानी की गति तीन गुणा हो तो बहाव की सामर्श्य 729 गुणा हो जाती है। तीव्र गति हजारों टन मलबा भी अपने साथ ले जाती है। पहाड़ खिसकता और बह जाता है। जमीनी दरारों के कारण आबादी भी नष्ट जाती है। जल बहाव से बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। पहाड़ों को काटने के उपरांत तीखे जल सैलाब और भू-स्खलन के उपरांत बीते समय में रायगढ़ (महाराष्ट्र) और किन्नौर (हिमाचल) में हुए दुखांत को हम बहुत शीघ्र भूल गये। अब जोशीमठ दु:ख दे रहा है।
निष्कर्ष यह कि, मिट्टी का सृजन और पहाड़ों को जकड़ कर रखने में लाखों सालों की प्राकृतिक क्रिया-प्रक्रिया (स्टेबिल्टी पीरियड) और वनस्पति का बड़ा योगदान है। पहाड़ भी आसमान से नहीं गिरे, एक लम्बी भूगौलिक और ऐतिहासिक गाथा है, इनके उभरन और सभी की समान मिलकियत भी। परन्तु धन कुबेरों के अनियंत्रित लालच ने जल, जंगल और जमीन को शासकों के साथ मिलकर साजिश के तहत हड़पना शुरू किया हुआ है जिसने कई सामाजिक दुश्वारियों को भी जन्म दिया है। दरारों और पहाड़ों का गिरना अचानक नहीं, न ही किसी कुल देवता का प्रकोप है, अर्थात कसूर प्रकृति का नहीं, इन्सान का है। हां, यह करतूत खास सिस्टम की है किन्तु भुगतता आम आदमी है। परन्तु क्या धन कुबेर बचे रहेंगे? यही वह सवाल है, जो शासकों को समझ नहीं आता।
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