प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम है जोशीमठ की घटना 

 

उत्तराखण्ड के खुबसूरत शहर जोशीमठ में जो हुआ और हो रहा है, इस बात की चेतावनी है कि अगर सही नीति नहीं बनी तो यह विनाशलीला इस बेल्ट के अन्य नगरों में भी देखने को मिल सकती है।
त्रासदी की शुरुआत
यह सिलसिला समय पर ठोस कार्यवाही किए बिना रुकने वाला नहीं है। इसकी चपेट में टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, नैनीताल की बस्तियां आ सकती हैं। हिमाचल प्रदेश में भी दस्तक हुई थी लेकिन वहां सरकार ने जो फौरी कदम उठाये, उससे स्थिति काबू से बाहर नहीं हुई लेकिन खतरा वहां भी है। ज़रूरी है कि केंद्रीय और राज्य सरकारें इसे गंभीरता से लें, स्थानीय आबादी की बात सुनें और पर्यावरण बचाने की मुहिम में लगे लोगों को आंदोलनकारी न मानकर उनका सहयोग और समर्थन लें।
इसी के साथ वैज्ञानिकों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। देखने में आता है कि उनसे खोजबीन करने को कहा तो जाता है लेकिन उनके सुझावों को दरकिनार करने और विकसित की गई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल न होने से हालात बद से बदतर होते जाते हैं। यह कोई डराने की बात नहीं है क्योंकि प्रकृति कभी भी अन्यायी नहीं होती और संभलने का वक़्त देती रहती है। विनाश एकदम नहीं होता, यदि उसकी आहट सुनाई दे और मनुष्य चेते नहीं तो उसकी गति अवश्य बढ़ जाती है।
कुछ वास्तविकताएं
उत्तराखण्ड के पहाड़ों के बारे में कहा जाता है कि इसकी मिट्टी रेतीली और भुरभुरी है। रेत और चट्टान से मिलकर बना पहाड़ अक्सर ज़मीन के खिसकने या भू-स्खलन का कारण बनता है। इसीलिए यहां लैंड स्लाईड होते रहते हैं और जब बारिश होती है तो बाढ़ के कारण भारी तबाही होती है। यह त्रासदी न हो तो ज़रूरी है कि इसके बीच में रुकावट खड़ी की जाए। कुदरत ने यह काम इस पूरे क्षेत्र में पेड़ पौधे लगाकर और उनसे बने वनों का विकास कर पूरा किया। उसे वनस्पति से भर दिया और यह हरित प्रदेश बन गया। परन्तु मनुष्य ने प्रकृति के वरदान को अभिशाप में बदलना शुरू कर दिया। सबसे पहले उसकी निगाह जंगलों पर पड़ी और उसने बिना सोचे समझे अंधाधुंध इन्हें नष्ट करना शुरू कर दिया। पहाड़ नंगे होते गये और वे शिलाखंडों के रूप में लुढ़कने लगे। जंगलों की रुकावट जैसे-जैसे हटती गई, वर्षा होने पर पानी के बहाव के साथ ये नीचे नदियों में गिरते रहे और जमा होकर उनका जलस्तर बढ़ने का कारण बने। 
नदियों को खाली करने का काम हुआ और उससे जो निकला वह इमारतें बनाने की सामग्री थी। यह सरकार के लिए आमदनी और लोगों को रोज़गार देने का साधन बन गया। इससे वन विनाश को बढ़ावा मिला वन संरक्षण की बातें हवा हवाई हो गईं।
उल्लेखनीय है कि यह सब कुछ आज़ादी मिलने के बाद हुआ, विशेषकर साठ के दशक से इसमें बहुत बढ़ौतरी होती गई। जंगलात के ठेकेदार और भवन निर्माता की कथित सांठगांठ इतनी बढ़ गई कि उनके लालच की कोई सीमा नहीं रही। तब कोई ऐसा कोई विशेष कानून भी नहीं था जो इनके कारनामों पर रोक लग पाता और इस तरह यह लूटपाट बढ़ती रही।
इसके साथ पर्यटन की सुविधाएं बढ़ाने के नाम पर जहां से प्राकृतिक दृश्यों का सौंदर्य दिखाई देना चाहिए था, वहां होटल और ऐसे निर्माण होने लगे जिनसे रातोंरात मालामाल हुआ जा सके। जोशीमठ का हाल यह हुआ कि अपनी लोकेशन की वजह से यह धन कमाने की फैक्ट्री बन गया। कोई नियम तो था नहीं या जो भी था, उसका पालन किए बिना बहुमंज़िली इमारतें बनने लगीं। एक नियम का उल्लेख करना आवश्यक है। निर्माण से पहले यहां की मिट्टी की जांच ज़रूरी थी ताकि यह तय हो सके कि उसमें कितनी पकड़ है और वह कितना भार उठा सकती है। इसमें यह भी था कि यहां एक मंज़िल से ज़्यादा के निर्माण नहीं हो सकते और वर्षा के पानी की निकासी के लिये नालियां बनानी ज़रूरी हैं ताकि जलभराव न हो और यह क्षेत्र गंदगी से मुक्त रहे। विडम्बना यह है कि ज़्यादातर निर्माण कार्यों में इन साधारण से नियमों की अनदेखी की गई और बिना किसी नक्शे या मंज़ूरी के होटल और रिहायशी इलाके बनते गये। इसका एक प्रमाण यह है कि आज जहां दरारों से तबाही हुई है, इनमें से आधे बिना किसी नियम के बने हैं।
अब बात जब हाथ से निकलती दिखाई देने लगी तो प्रशासन द्वारा तुरंत कार्रवाई करते हुए इमारतों को गिराने के आदेश दिये गए हैं। परन्तु इसका परिणाम यह निकला कि आज वहां की पूरी आबादी के सामने सिर छिपाने तथा रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। 
आज तपोवन विष्णुगढ़ प्रोजेक्ट का अस्तित्व ख़तरे में इसलिए है क्योंकि प्राकृतिक नियमों की अनदेखी की गई और मनुष्य द्वारा अपने लाभ के लिए बनाये गये नियमों का पालन किया गया। इसमें सबसे बड़ा कारण पेड़ों की कटाई और पानी की धारा को अपने हिसाब से मोड़ने का प्रयास था। विस्फोट से पहाड़ तोड़ना दूसरा कारण है लेकिन उसके बिना पहाड़ में सुरंग नहीं बन सकती। टर्बाइन और दूसरे भारी उपकरण लगने और उनके संचालन से पैदा होने वाले कंपन का असर पर्वत पर पड़ना स्वाभाविक है। इसके बिना बिजली नहीं बन सकती। इन परिस्थितियों में यह हो नहीं सकता कि विकास के कामों को रोक दिया जाए लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि कुदरत से छेड़छाड़ करने के स्थान पर उसका सहयोग लिया जाए। 
उत्तराखण्ड को देव भूमि कहा जाता है लेकिन लोभ-लालच ने यहां के सभी सौंदर्य तथा पर्यटक स्थलों पर अपनी काली छाया डालनी शुरू कर दी है। हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन का संकेत है। इसलिए यह समस्या केवल घरों में दरारें पड़ने की नहीं हैं बल्कि प्रकृति के साथ तालमेल रखकर कदम उठाने की है। ऐसा करना कोई अधिक कठिन भी नहीं है बशर्ते कि कुछेक साधारण कदम उठा लिए जायें जैसे कि वन विनाश नहीं वन संरक्षण सुनिश्चित किया जाए। ज़रूरत से ज़्यादा और नियमों का उल्लंघन कर पेड़ काटने वालों को कठोर दंड दिया जाए। पर्यटन पर नियंत्रण इस तरह से हो कि एक समय में निश्चित संख्या से अधिक पर्यटक उस स्थान पर न जा सकें। सड़कों का निर्माण मैटेलिक तकनीक से हो ताकि वे बारिश में बह न सकें। अक्सर पहाड़ों पर टूटी सड़कों के कारण यातायात रुक जाता है जिससे केवल तब ही बचा जा सकता है जब उनका निर्माण, रखरखाव और मरम्मत आधुनिक तकनीक से हो। ज़मीन तय मात्रा से अधिक पानी निकालने पर प्रतिबंध हो। 
यदि भविष्य में जोशीमठ जैसी किसी दर्दनाक घटना को होने से रोकना है तो उसके लिए केंद्र और राज्य की सरकारों को मिलजुल कर स्थानीय जनता की भलाई को ध्यान में रखकर काम करना होगा।