धर्म व समाज को स्वीकार नहीं है लिव इन रिलेशनशिप

 

पिछले दिनों अच्छे बुरे कारणों से इसकी बहुत चर्चा हो रही है। जहां यह भारतीय समाज में धीरे-धीरे अपनी जगह बनाता जा रहा है, वहीं इसके कारण कई जघन्य अपराध भी सामने आए हैं। हाल ही में हुआ आफताब-श्रद्धा हत्याकांड इसका ताजा उदाहरण है। भारतीय संस्कृति के अनुसार इस संबंध को कदापि स्वीकृति नहीं दी जा सकती। यह विदेशी सभ्यता (कल्चर) में होता है जहाँ पारिवारिक मूल्य बिखर गए हैं। यह संबंध अनैतिक संबंधों की श्रेणी में गिना जाता है। वैवाहिक परंपरा भारतीय सांस्कृति की रीढ़ है। उसे किसी कीमत पर भी दूषित नहीं किया जा सकता। अपवाद उपलब्ध हो सकते हैं। उनके विषय में हम चर्चा नहीं कर रहे।
हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि दो व्यक्तियों का सम्बन्ध निश्चित ही समाज को प्रभावित करता है। ऐसा कोई नियम तो है नहीं कि ‘लिव इन’ दो कुवारों में ही होगा। यदि रिश्तों की मर्यादा को तोड़ते हुए भी यह संबंध बनने लगेंगे, तब क्या स्वीकार्य होगा? यानी कि किसी युवक या युवती को पता चले कि उनके माता-पिता, भाई-बहन या कोई अन्य संबंधी उन्हीं के किसी अन्य संबंधी के साथ अपने पार्टनर को छोड़कर लिव इन में रह रहा है तो सोचिए उनकी मानसिक स्थिति के बारे में। जो बड़े-बड़े भाषण दे रहे हैं, इसके पक्ष में तो शायद वे भी इन संबंधों को स्वीकार नहीं करेंगे।
हाँ, इसके पक्षधर कह सकते हैं कि अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता है सबको है, पर इस स्वतंत्रता का अर्थ उच्छश्रृंखलता तो कदापि नहीं है।
माता-पिता अपने बच्चों के अतिमोह से बचपन में उसे बिगाड़ देते हैं और उन्हें समझा नहीं पाते तो उसे ईश्वर के अधीन नहीं छोड़ सकते। न ही उनको संस्कारों या मानव जीवन की नयी परिभाषा लिखने की अनुमति दी जा सकती है। कुछ मुट्ठी भर सिरफिरों के कारण रिश्तों की पवित्रता को समाप्त नहीं किया जा सकता। जिम्मेदारी से भागने का अच्छा रास्ता ढूँढ लिया है लिव इन समर्थकों ने।
यह बात समझ लीजिए कि न तो सभी महिलाएँ धोखेबाज होती हैं और न ही सभी पुरुष। विवाहेत्तर संबंधों को अब लिव इन का नाम दे दिया है, जो मात्र सिर्फ दैहिक आकर्षण व शोषण है।
यह तो सुविधाजनक संबंध है। इसका अर्थ हुआ कि एक पुरुष व महिला जब एक-दूसरा को सहन नहीं करेंगे तो दूसरे साथी चुनेंगे और फिर वहाँ भी पटरी न बैठी तो फिर अगले साथी की तलाश करेंगे। यह सिलसिला आखिर कब तक चलेगा। यह तो खुल्लमखुला व्यभिचार ही है लिव इन के नाम पर, और कुछ नहीं।
दो लोग जब साथ रहते हैं, तो आने वाले बच्चों की समस्या से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। लिव इन में सिर्फ स्वछन्दता होती है या मनमाना रवैया। वहाँ किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती और तब भी यदि चूक हो जाए तो उसका अंत भी शादी ही होगा। समस्या वही होती है कि बिना शादी के बच्चे को हम क्या बतायेंगे? हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि जब उनका रिश्ता ही नहीं तो उनमें माँ-बाप का रिश्ता भी नहीं बन सकता। लिव इन से जो बच्चे पैदा होंगे, उनके तथाकथित माता-पिता उनके लिए आदर्श व प्रेरणास्रोत बन सकेंगे जैसा कि आम जीवन में होता है। सोचिए हम अपने बच्चों से बुढ़ापे में लाठी बनने की कल्पना करते हैं। क्या उन बच्चों के बारे में ऐसा सोच सकेंगे?
बहुत बार हम ऐसे बच्चों को देखते हैं जिन्हें अविवाहित माताएँ जन्म देते ही छोड़ देती हैं। कुन्ती पुत्र कर्ण से बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। राज परिवार में जन्म लेने के पश्चात भी सारी आयु अपनी पहचान के लिए व्याकुल रहा। आज भी यहाँ-वहाँ बच्चे पड़े हुए मिल जाते हैं, जो लिव इन का परिणाम होते हैं।
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यद्यपि इस संबंध को मान्यता दे दी है परन्तु धर्म एवं समाज इस संबंध को कदापि स्वीकार नहीं करता। (अदिति)