न्याय व्यवस्था की कछुए जैसी सुस्त चाल

 

आपराधिक मामलों की सुनवाई में देरी की सबसे बड़ी वजह यह है कि देश की जेलों में क्षमता से बहुत ज्यादा लोग कैद हैं। औसत 8 कैदियों पर एक जेलकर्मी है। अदालती मुकदमों में जटिलताओं के चलते विचाराधीन कैदियों को जेल में कैद रखा जा रहा है। दरअसल, इनमें से ज्यादातर कैदी गरीब व कमजोर तबके से होते हैं, जो जमानत नहीं ले पाते और जेल में ही कैद रहते हैं। देश की अदालतों में आज लाखों मामले विचाराधीन हैं, जिनमें सालोंसाल से फैसला नहीं हो पा रहा है। देश में सैंट्रल जेल, ज़िला कारागार, उप कारागार, महिला कारागार, खुली जेलों समेत कुल 1,382 कारागारों में कैदियों की क्षमता 3.30 लाख निर्धारित है लेकिन इनमें कैदी इससे कहीं ज्यादा हैं। सबसे चर्चित तिहाड़ जेल हो या छोटे शहर की कोई जेल, हर जगह निर्धारित तादाद से ज्यादा कैदी बंद हैं। इस वजह से कई बार कानून व्यवस्था पर काबू पाना भी मुश्किल हो जाता है। 
दंड प्रक्रि या संहिता संशोधन अधिनियम 2005 के तहत संहिता में धारा 436-ए जोड़ी गई थी। इस धारा में कहा गया है कि विचाराधीन कैदी ने उसे अपराध के लिए दी जाने वाली सजा का आधे से अधिक समय जेल में काट लिया हो तो उसे जमानत की जगह निजी मुचलके पर छोड़ा जा सकता है। ऐसे अपराधों को अलग रखा गया, जिनमें आजीवन कारावास या फांसी की सजा सुनाई जा सकती हो। साथ ही यह भी कहा गया कि अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम  केन्द्र अवधि से अधिक समय के लिए विचाराधीन कैदी को जेल में नहीं रखा जा सकता। 
जेलों में कैद तकरीबन 4 लाख कैदियों में आधे से ज्यादा ऐसे हैं, जिन्हें सजा नहीं मिली, फिर भी वे सालों से बंद हैं जबकि न्याय का सिद्धांत कहता है कि सजा मिलने से पहले किसी को गुनाहगार नहीं माना जा सकता। इस समय देश की हरेक जेल में विचाराधीन कैदियों की तादाद 70 प्रतिशत तक है। जेलों में सजा-याफ्ता कैदी कम और विचाराधीन कैदी ज्यादा हैं। ऐसे आरोपियों को भी जेल में कैद कर रखा है जिनका ट्रायल ही शुरू नहीं हुआ है। 
यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे लोग भी हैं जिन पर आरोप साबित होने पर मिलने वाली सजा का पूरा वक्त ट्रायल के दौरान जेल में ही कट गया है। यह वाकई त्रासदीपूर्ण है। ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो जमानती अपराध में कैद हैं। उनका हक है कि वे जमानत पर छूट कर बाहर आ सकें लेकिन अभी तक वे जेल में कैद हैं। 
अगर मामले की जांच चल रही है तो यह सरासर पुलिस की गलती है कि उसने आरोपी को गिरफ्तार तो कर लिया लेकिन चार्जशीट पेश नहीं की है। इस बारे में जवाबदेही पुलिस की ही होनी चाहिए। अगर ट्रायल में देरी हो रही है, तो उस हालत में पुलिस और कोर्ट का कसूर हो सकता है, लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि हमारे पुलिसिया तंत्र पर बहुत बड़ा बोझ है। जांच अफसर के पास इतने मामले होते हैं कि उनमें न्याय करने की ताकत ही नहीं होती। 
अदालतों में भी मामले सालोंसाल लटके पड़े रहते हैं। जैसे-तैसे अगली सुनवाई को लेने को लेकर टाल-मटोल चलती रहती है। ऐसा लगता है सारा सिस्टम ही इसी कवायद में लगा रहता है कि मामला खत्म ही नहीं होना चाहिए। ट्रायल को पुलिस और कोर्ट दोनों ही मुसीबत समझते हैं। दूसरी खामी यह है कि निचले स्तर पर बढ़िया निगरानी ही नहीं होती। सैशन कोर्ट और हाईकोर्ट को जांच करनी चाहिए कि मामले के निपटारे में इतनी देरी क्यों हो रही है और यह देरी जायज है या नाजायज़?
फुर्ती किसी भी स्तर पर दिखाई नहीं पड़ रही है। मामलों को लटकाते रहना वकीलों को भाता है। वे भी कमाई जारी रखने के लिए तारीख पर तारीख लेते रहते हैं। हर पेशी पर वे मोटी रकम वसूलते रहते हैं। दुनिया में कितने ही पुलिस और कानूनी तंत्र हैं लेकिन जितनी देरी भारत में होती है उतनी और कहीं नहीं होती। बेहतर तो यह होगा कि हमें न्याय प्रक्रि या को सुधारने पर जोर देना चाहिए था। सुधार भी ऊंचे लेवल से शुरू होना चाहिए था। रही बात पुलिस सुधार की तो समय-समय पर पुलिस में सुधार वाली बातें खूब सुनाई देती हैं पर इस महकमे में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा। 
यही हाल न्यायिक सुधार का भी है। रसूखदार और अमीर लोगों को तो यह देरी अच्छी लगती है। वे पैसे के बल पर जमानत ले लेते हैं, तारीख बढ़वा लेते हैं लेकिन गरीब व कमजोर लोगों के लिए यह हालत भयानक है। मौजूदा सिस्टम ऐसा है जिसमें बाहुबली, पैसा और राजनीतिक पहुंच वाले ही कामयाब हो रहे हैं।  
जेलों में विचाराधीन कैदियों की भारी तादाद को देखते हुए केन्द्र सरकार रिहाई का प्रयास कर रही है। जनवरी 2013 में गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों के निजी सचिवों से रिहा होने के काबिल कैदियों की सूचियां तैयार करने और उन्हें रिहा करने के लिए ज़िला स्तर पर समीक्षा समितियां गठित करने को कहा था। ये समितियां ज़िला न्यायाधीशों की अध्यक्षता में बननी थीं और हर 3 महीने में समीक्षा की जानी थी लेकिन ज्यादातर राज्यों में अभी तक समितियां ही नहीं बन पाईं। (अदिति)