उठने लगा है दरबारी पूंजीवाद पर पड़ा पर्दा !

 

गौतम अडाणी ने सोचा भी नहीं होगा कि ऐसा दिन भी देखना पड़ेगा। जैसा कि अंग्रेज़ी में कहते हैं— उन्होंने चारों खाने चित कर दिये थे। उन्हें सरकार की तरफ  से भरपूर समर्थन मिल रहा था। सरकारी पैसा जीवन बीमा निगम जैसी संस्थाओं द्वारा बिना किसी रोक-टोक के उनकी कम्पनियों में लगाया जा रहा था। वे गुजराती थे। इसके साथ-साथ वह अभी से नहीं, बल्कि उस समय से प्रधानमंत्री के घोषित समर्थक थे, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। इस समय देश के सबसे ज्यादा तेज़ी से बढ़ते हुए औद्योगिक घरानों में उनका नाम शामिल हो रहा था। रातो-रात शीर्ष छू लेने वाले उद्योगपतियों की श्रेणी में आने के लिए उन्होंने रिलायंस के धीरूभाई अम्बानी को भी पीछे छोड़ दिया था। 
उन्हें यह देख कर बहुत गुस्सा आ रहा होगा कि अमरीका की एक एक्टिविस्ट कही जाने वाली अमरीकी संस्था हिंडनबर्ग रिसर्च ने एक रिपोर्ट जारी करके दिन दूगनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही उनके घराने की प्रगति पर न केवल ब्रेक लगा दी, बल्कि दो दिन के भीतर-भीतर उनकी कम्पनियों के शेयर धड़ाम से नीचे गिर गए। अडाणी इंटरप्राइजेज़ 18 प्रतिशत नीचे आ गई। अडाणी ट्रांसमिशन बीस प्रतिशत गिर गया। अडाणी टोटल गैस और अडाणी ग्रीन इनर्जी का भी यही हश्र हुआ। अडाणी पोर्ट में 16 प्रतिशत की गिरावट आई। अडाणी पॉवर और अडानी विल्मर पांच प्रतिशत कम हो गए। हाल ही में खरीदे गए टी.वी. चैनल एन.डी.टी.वी. के शेयरों को भी यह मार बर्दाश्त करनी पड़ी। 
अडाणी ने चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि यह सब साज़िश है। दरअसल, जब उनका घराना बाज़ार से बीस हज़ार करोड़ उठाने के लिए अभी तक का सबसे बड़ा एफ.पी.ओ. (फॉलोऑन पब्लिक ऑ़फर) जारी कर रहा था, उसी समय चतुराई से हिंडनबर्ग की यह रिपोर्ट जारी की गई। रिपोर्ट का शीर्षक था : ‘अडाणी ग्रुप : हाउ द वर्ल्ड्स थर्ड रिचेस्ट मेन इज़ पुलिंग द लार्जेस्ट कॉन इन द कॉरपोरेट हिस्ट्री’। इसका हिंदी में मतलब हुआ— अडाणी उद्योग-समूह : दुनिया का सबसे बड़ा तीसरा अमीर आदमी कॉरपोरेट इतिहास की सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा कर रहा है। इस रिपोर्ट में शेयरों में गड़बड़ी और वित्तीय धोखाधड़ी का आरोप था। एक तरफ आडाणी ग्रुप की सफाइयां थीं और दूसरी तरफ हिंडनबर्ग का रिकॉर्ड था। इस रिसर्च संस्था ने अडाणी को निशाने पर लेने से पहले अमरीका की लॉर्ड्सटाउन मोटर्स कॉरपोरेशन, निकोला मोटर कम्पनी और क्लोवर हेल्थ की पोल खोल कर अपनी प्रतिष्ठा हासिल की थी। वह चीन की कांडी और कोलंबिया की टेक्नोलास समेत 12 से ज्यादा कम्पनियों के खिलाफ रिपोर्ट जारी कर चुकी थी। हर बार उसके दिये हुए तथ्य सही साबित हुए थे। हर बार हवा में उड़ रही कम्पनियां ज़मीन पर आ गई थीं। यह नतीजा अडाणी ग्रुप का हुआ। अडाणी चार पायदान गिर कर दुनिया में 7वें नम्बर पर आ गया। दो दिन के भीतर-भीतर उसकी पूंजी 51 अरब डॉलर घट गई। वह तो शुक्रवार के कारण स्टॉक मार्किट में सर्किट ब्रेकर लगा हुआ था। वरना, उनके शेयर और नीचे चले जाते।
अडाणी ग्रुप का जो होना है वह तो होगा ही। इस प्रकरण से हमें एक खास तरह की शिक्षा मिलती है। हमें पता लगता है कि जिस चीज़ को हम ‘क्रोनी कैपिटलिज़म’ कहते हैं, वह दरअसल क्या बला है। ‘क्रोनी कैपिटलिज़म’ से भाव गोदी पूंजीवाद या दरबारी पूंजीवाद कहा जाता है। इसका सीधा मतलब है सरकार द्वारा चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को एक तरह का असाधारण समर्थन देना जिसके दम पर उन घरानों की सम्पत्ति और प्रभाव का असाधारण विस्तार होना। अडाणी घराने को सरकार की तरफ से इसी तरह का लाभ मिला है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है इस घराने में जीवन बीमा निगम का निवेश। जैसा कि हम सभी को पता है एल.आई.सी. या जीवन बीमा निगम जनता के पैसे पर चलने वाली देश की सबसे बड़ी कम्पनी है। हम सभी का धन इसमें लगा है। न जाने कितने कर्मचारियों की ग्रेचुटी का बंदोबस्त एल.आई.सी. के हाथ में है। न जाने कितनों का आर्थिक भविष्य उसके कब्ज़े में है। समझा जाता है कि इस कम्पनी ने अडाणी ग्रुप में तकरीबन 74 हज़ार करोड़ का निवेश कर रखा है, वह भी उस स्थिति में जब अन्य मुचूअल फंड्स इसमें निवेश करने से परहेज़ कर रहे है। ज़ाहिर है कि एल.आई.सी. तब तक किसी निजी उद्योग समूह में निवेश नहीं कर सकती, जब तक सरकार की तरफ से उसे ऐसा करने के लिए न कहा जा रहा हो।
दरबारी पूंजीवाद कोई नयी घटना नहीं है। एक तरह देखा जाए तो एशियाई संदर्भ में पूंजीवाद का विकास ही इसी रास्ते से हुआ है। ऐतिहासिक रूप से एशियाई पूंजीपति पूंजी लगाने के मामले में कमज़ोर थे। बिजली, स्टील और अन्य बुनियादी ढ़ाचे से संबंधित उद्योगों में पूंजी लगाकर मुनाफे के इंतज़ार करने में जो लम्बी अवधि खर्च होनी थी, उसके लायक क्षमता उनके पास नहीं थी। इसलिए भारत और जापान जैसी अर्थव्यवस्थाओं में राज्य की संस्थाओं ने उनकी मदद की। जापान का मीज़ी रेस्टोरेशन और भारत का बोम्बे प्लान इसका उदाहरण है। इन दोनों का तात्पर्य एक ही है। दोनों ही मामलों में राज्य की संस्था ने बड़े और देरी से विकसित होने वाले उद्योगों में पूंजी निवेश किया और फिर एक दीर्घकालीन योजना के तहत निजी क्षेत्र को उन्हें सौंप दिया। जापान में यह काम बहुत पहले द्वितीय विश्व-युद्ध के इर्द-गिर्द हो चुका है। भारत में पब्लिक सेक्टर के मुऩाफा कमाने वाले उद्योगों को बहुत कम दामों में सौंपने की विवादास्पद प्रक्रिया कई वर्ष से जारी है।  
किसी ज़माने में धीरूभाई अम्बानी के रिलायंस उद्योग समूह को इंदिरा गांधी के वित्त मंत्री के रूप में प्रणव मुखर्जी का बहुचर्चित समर्थन प्राप्त हुआ था। उस समय मीडिया में कटाक्ष के रूप में छपता था कि प्रणव मुखर्जी का एक ही नारा है ‘ऑनली विमल’। कहना न होगा कि अडाणी समूह का मसला इससे भी अधिक गंभीर है। 2002 में जब गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी मुसलमान विरोधी हिंसा के कारण निशाने पर आए और जब विभिन्न संस्थाओं ने उनके खिलाफ प्रस्ताव पास करने शुरू किये तो यह गौतम अडाणी ही थे, जिन्होंने उद्योगपतियों की संस्था एसोचैम में खड़े हो कर मोदी के खिलाफ प्रस्ताव पास होने से रुकवाया था। तभी से वे मौजूदा प्रधानमंत्री की आंखों के तारे बने हुए हैं। पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अडाणी को मोदी सरकार का निरंतर समर्थन हासिल हुआ और फिर भारत के प्रधानमंत्री के रूप में यह सिलसिला जारी रहा। पिछले नौ साल में जिस रफ्तार और निरंतरता के साथ सरकारी समर्थन से उनका विस्तार हुआ है, वैसा भारत के कॉरपोरेट इतिहास में कभी नहीं हुआ।
हो सकता है कि गौतम अडानी इस संकट से बेदाग निकल जाएं, लेकिन अगर वे ऐसा न कर पाए तो यह मोदी सरकार के लिए बहुत बड़ा झटका होगा। आम तौर पर मज़ूबत समझी जाने वाली सरकारें भी आर्थिक झटकों से नहीं उबर पातीं। इस समय तो स्टेट बैंक और अडाणी समूह को कर्ज देने वाले अन्य बैंकों का कहना है कि उन्होंने किसी समूह को ऋण देने के मामले में रिज़र्व बैंक द्वारा तय की गई हद का उल्लंघन नहीं किया है, लेकिन ये सब सफाइयाँ हैं। भारत के दरबारी पूंजीवाद पर पड़ा पर्दा उठने लगा है। पता नहीं इसके पीछे क्या-क्या छिपा हुआ था। जैसे-जैसे भेद खुलेगा, वैसे-वैसे पता लगेगा कि मोदी सरकार और अडाणी समूह के बीच क्या-क्या पकता रहा है। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।