देश का खलनायक था मुशर्रफ 


आज पाकिस्तान जिस खतरनाक मोड़ पर खड़ा है, जिस तरह वह बिखरता जा रहा है, जिस तरह वहां देश को एक तरह से आतंकवादियों ने घेरा डाला हुआ है, जिस तरह चार बड़े प्रदेश आपस में भिड़ने लगे हुए हैं और जिस प्रकार आर्थिक मंदी के दौर में लोग रोज़ी-रोटी के लिए तड़पने लगे हैं, ये सभी हालात पैदा करने में जरनल परवेज़ मुशर्रफ का बड़ा योगदान कहा जा सकता है। वैसे तो अयूब खान से लेकर समय-समय पर देश की चुनी हुई सरकारों से सत्ता छीनकर अपने कब्ज़े में करने और लोगों को सेना की हुकूमत में प्रताड़ित करने में इन सभी जरनलों से बने राष्ट्रपतियों ने हिस्सा डाला है, लेकिन मुशर्रफ को इनमें से अग्रणी गिना जा सकता है।
उसके चरित्र में दोगलापन स्पष्ट नज़र आता था। एक तरफ उसकी भारत से दुश्मनी जगज़ाहिर थी, दूसरी तरफ वह भारत से कभी-कभी अच्छे संबंध बनाने का असफल यत्न भी करता रहा। जिस प्रकार उसने भारत के साथ कारगिल युद्ध शुरू किया और अपनी चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट दिया, उसी तरह वह देश के लिखित संविधान को मसलता रहा। उसने 9 साल के लगभग देश का शासन संभाले रखा। कभी वह कार्यकारी मुखी और कभी राष्ट्रपति बना। उसका दोगलापन यहां से भी ज़ाहिर होता है कि उसने एक तरफ अपने शासन के दौरान तालिबान और अन्य आतंकवादी संगठनों की मदद की, वहीं दूसरी तरफ मशहूर लाल मस्जिद में इकट्ठे हुए इस्लामिक कट्टरपंथियों को गोली से भी भूना। वह अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के साथ-साथ अल-कायदा के आतंकवादियों की भी किसी न किसी तरह मदद करता रहा लेकिन दूसरी तरफ ओसामा बिन लादेन द्वारा अमरीका में किये गये हवाई हमलों के बाद अमरीका द्वारा अफगानिस्तान पर हमला करते समय वह अमरीका की मदद पर भी उतर आया। यदि उसने भारत के खिलाफ कारगिल युद्ध शुरू किया तो उसके बाद उसने आगरा में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बातचीत भी की, चाहे यह बातचीत पूरी तरह असफल हो गई थी। उसने राष्ट्रपति होते हुए भारत का दौरा भी किया और अपने देश में हुए सार्क सम्मेलन में भारत की मेहमान-नवाज़ी भी की। समय-समय पर उसका मिज़ाज तथा विचार बदलते रहे। इसी कारण वह अपने शासनकाल में अपने द्वारा अपनाए किसी भी सीधे रास्ते पर न चल सका। वह कारगिल युद्ध का दोषी था और उसी वर्ष अक्तूबर, 1999 में चयनित प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ का तख्ता पलट कर स्वयं उसकी सत्ता पर भी काबिज़ हो गया था और देश में राजनीतिक कार्रवाइयों को सख्ती से रोकने के साथ-साथ उसने अदालतों को भी अपने ढंग से चलने के निर्देश दिये। देश में पैदा हुए गम्भीर आंतरिक हालात को देखते हुए उसने 2008 में चुनाव करवाने की घोषणा कर दी। नई सरकार बनने के बाद उसे देश छोड़ कर भागना पड़ा। 
मुशर्रफ पर उसकी गैर-हाज़िरी में मुकद्दमे चले, जिनमें उसे बेनज़ीर भुट्टो की हत्या करने का दोषी ठहराया गया। संविधान को बदलने के लिए उसे राजद्रेही घोषित किया गया। बलूचिस्तान के ऊंचे कद के नेता अकबर खान बुगती की हत्या के लिए भी उसे दोषी माना गया तथा यहां तक कि उसे वर्ष 2019 में विशेष अदालत द्वारा मौत की सज़ा भी सुनाई गई। उसने अपने जीवन के अंतिम दिन दुबई में गुमनामी तथा बीमारी की हालत में व्यतीत किये। कई चर्चित व्यक्ति अपनी सरगर्मी के साथ ऐतिहासिक घटनाक्रम को अच्छा मोड़ देकर सीधे रास्ते पर चलाते हैं और कुछ व्यक्ति अपने देश तथा समाज को ़खतरनाक रास्तों पर चलाने के भागीदार बनते हैं। निश्चय ही परवेज़ मुशर्रफ की सरगर्मी को नकारात्मक ही माना जाएगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द