क्या उद्धव-शिवसेना को खत्म करने की रणनीति के नियामक हैं राउत ?

 

महाराष्ट्र की राजनीति में विगत दिनों एकनाथ शिंदे सरकार से पहले दो बडबोले मंत्री भ्रष्टाचार के चलते जेल गये और दोनों में से एक बड़ी मुश्किल से सुप्रीम कोर्ट से जमानत पर छूटे। एक तो अभी जेल में ही हैं मगर इन दोनों मंत्रियों से अधिक मुखर मोदी विरोधी संजय राउत जिनके बड़बोलेपन, अहंकारिता और उद्धव को गलत रास्ते पर ले जाने की नीति पर चलते शिवसेना दो फाड़ हो गयी और केवल दोफाड़ ही नहीं हुई, उसका दो तिहाई से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि भाग अपने समर्थकों के साथ टूट कर भाजपा से जा मिला और  भाजपा ने उद्धव की महाविकास अधाड़ी सरकार को गिरा कर अपनी एकनाथ शिंदे सरकार बना ली। 
वह इतने पर ही नहीं रुकी। उसके द्वारा राउत को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भी भिजवा दिया गया, लेकिन कुछ दिनों बाद ही ट्रायल कोर्ट ने ही राउत को जमानत दे दी और वे वापस आकर चंद दिनों तक अपनी जुबान बंद रख कर फिर मोदी और भाजपा के साथ एकनाथ शिंदे सरकार के भी विरोध में बयानबाजी करने लगे। इससे विश्वास तो नहीं मगर संशय जरुर होता है कि राउत को उनके विरुद्ध सक्षम पैरवी न करके शायद किसी सोची समझी रणनीति के कारण जमानत पर रिहा होने दिया गया है ताकि वे फिर से अनर्गल बयानबाजी करें और टूटी शिवसेना को किसी भी दशा में एक न होने दें।  अब यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर राउत इस तरह की बयान बहादुरी करते क्यों हैं जिससे शिवसेना को नुकसान पंहुचे? तो इसका उत्तर उनके खुद के बयानों में ही साफ झलकता है। वे स्वयं कहते रहे हैं कि शरद पवार का हाथ उनके सर पर है और वे उनकी सलाह से ही सारे कार्य करते हैं। यहाँ यह अवगत कराना आवश्यक होगा कि शरद पवार और शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे दोनों एक दूसरे को फूटी आँख नहीं देख सकते थे। वे एक दूसरे के कट्टर विरोधी रहे थे। 
भाजपा और शिवसेना ने मिल कर उनके महाराष्ट्र वर्चस्व को जब चुनौती देनी शुरू की, तो उन्होंने राजनैतिक गणित के चलते कांग्रेस के साथ मिल कर उद्धव को मुख्यमंत्री बना कर सरकार बनायी और ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि फिर कभी शिवसेना और भाजपा एक हो ही न सकें। इसके लिए उन्होंने अपने खासमखास संजय राउत जिन्हें उद्धव अपना आदमी समझते हैं, के माध्यम से ऐसी बयानबाजियों और चालबाजियों का दौर चलवाया कि शिवसेना दोफाड़ हो गयी । आजकल संजय राउत सरकारी एजेंसियों के पीछे पड़े हुए हैं। ईडी व सीबीआई के बाद वे निर्वाचन आयोग के पीछे पड़े हुए हैं। उन्हें आशंका है अब तक की परम्परा के अनुसार निर्वाचन आयोग एकनाथ शिंदे के पक्ष में निर्णय देगा और उनकी सोच के अनुसार यह संविधान की हत्या होगी? संजय राउत को यह नहीं भूलना चाहिए कि पूरे राजनैतिक इतिहास में अब तक चार बार इस तरह से राजनैतिक पार्टियां दो फाड़ हुयी हैं और चारों बार अधिक संख्या वाले पक्ष को ही अपने पक्ष में निर्णय प्राप्त हुआ है। पहली बार कांग्रेस दो फाड़ हुयी और इंदिरा के पक्ष में अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि होने के कारण फैसला इंदिरा के पक्ष में निर्वाचन आयोग ने लिया। 
दूसरी टूट समाजवादी पार्टी में उत्तर प्रदेश में पिता मुलायम और बेटे अखिलेश में हुयी। फैसला संख्या बल अधिक होने के कारण बेटे अखिलेश के पक्ष में आया। तीसरा दल चिराग पासवान का बिहार में टूटा, इसमें भी संख्याबल कम होने के कारण निर्वाचन आयोग ने फैसला चिराग पासवान के पक्ष में नहीं दिया। उनके चाचा के पक्ष में दिया और चौथी टूट तमिलनाडु में जयललिता की मृत्यु के बाद एआईडी एमके में हुई और इसमें भी आयोग का फैसला संख्या बल अधिक होने वाले गुट के पक्ष में गया तो फिर इस बार अगर फैसला एकनाथ शिंदे के पक्ष में कैसे नहीं जाता? तो फिर यह  संविधान की हत्या कैसे मानी जाएगी। उपरोक्त चारों बार मोदी सरकार नहीं थी और न एकनाथ शिंदे की ही सरकार थी।
यहाँ पर ध्यान देने की बात यह भी है कि पूर्व में सम्भाजी ब्रिगेड शिवसेना भवन पर बालाजी ठाकरे का चित्र लगाने का विरोध करके शिवसेना के विरोध में रही है तो प्रकाश अम्बेडकर के मराठवाडा विश्वविद्यालय का नाम अम्बेडकर के नाम पर करने और आरक्षण के मुद्दों पर शिवसेना प्रकाश की पार्टी का विरोध करती रही है। इस तरह इन तीनों परस्पर विरोधी दलों का सामंजस्य कब तक बना रहेगा, भविष्य के गर्त में है। 
जहां तक महाअघाड़ी सरकार बनाने का प्रश्न है, संजय राउत प्रारम्भ से ही कहते रहे हैं कि उसकी भूमिका बनाने और गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है और अब इन दोनों परस्पर विरोधियों के एकीकरण में भी राउत की सबसे अहम भूमिका है। आखिर चाहते क्या हैं राउत क्योंकि इन दोनों से समझौतों के बाद उद्धव के पास बचा कट्टर बालाजी ठाकरे समर्थक वोट बैंक ही जो कट्टर हिंदुत्ववादी भी है, शिंदे-भाजपा की ओर खिसकना निश्चित है तो भाजपा से नफरत करने वाला वोट बैंक एनसीपी की ओर खिसक जाएगा, इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए और यही तो भाजपा और एनसीपी चाहते हैं। ऐसा होते ही संजय राउत एनसीपी की गोद में जा बैठेंगे, इसमें भी कोई शक अभी तक तो नहीं है। (युवराज)