तापमान में असमय वृद्धि ़खतरे की घंटी 

पंजाब के वातावरण में तेज़ी से बढ़ते गर्मी के प्रभाव ने प्रदेश के हित-चिन्तकों को न केवल चौंकाया है, अपितु भावी त्रासदियों की आशंका के दृष्टिगत चेताया भी है। नि:सन्देह पंजाब के इस मौसमी परिवर्तन से पूरा राष्ट्र प्रभावित हो सकता है, क्योंकि एक तो पंजाब सीमांत प्रदेश होने के कारण बड़ा अहम महत्त्व रखता है, दूसरे यह पूरे देश का अन्न-उत्पादक प्रांत भी है। दो-दो कृषि क्रांतियों से पंजाब ने न केवल देश को अनाज के धरातल पर आत्म-निर्भर बनाया है, अपितु गेहूं और चावल के निर्यात से विश्व के कई अन्य देशों की अनाज-आपूर्ति व्यवस्थाओं को सम्पन्न किया है। वैसे तो किसी भी राष्ट्र और समाज की कृषि मौसमों से प्रभावित होते आई है, किन्तु भारत और खासकर पंजाब की कृषि सदैव मौसमों और मानसून की सक्रियता पर आश्रित रही है। अब आशंका यह भी है कि मौसमों में बदलाव और सर्दी का मौसम खत्म हुए बिना हुई गर्मी की आहट से प्रदेश के जन-मुआशिरे के साथ कृषि-क्षेत्र भी अवश्य प्रभावित होगा। मौसम विभाग की आशंकाओं में पंजाब में बसन्त का काल सीमित हो जाने और फरवरी के मास का अन्त होने से पूर्व ही अप्रैल के गेहूं-कटाई वाले मौसम की गर्मी का एहसास होने से कृषि विशेषज्ञों के मन-मस्ष्तिक में ़खतरे की घंटियों का बजना बहुत स्वाभाविक-सी बात है। बेशक इससे पड़ोसी प्रांतों हरियाणा और हिमाचल के मौसमी माहौल पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका बनती है। मौसम विभाग द्वारा जारी चेतावनी-आंकड़ों के अनुसार पंजाब में समराला का तापमान फरवरी के तीसरे सप्ताह में ही 31 डिग्री से पार जा पहुंचा है। हिमाचल प्रदेश में असमय हुई ओलावृष्टि भी इस प्रभाव के कारण ही हुई समझी जाती है। हरियाणा प्रदेश में तापमान का 35 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाना भी अपने आप में चेतावनी का सूचक है। यहां तक कि अरावली की पहाड़ियों के नज़दीक होने के बावजूद, चंडीगढ़ के तापमान में वृद्धि होना भी ़खतरे की सूचना जैसा हो सकता है।
इस स्थिति ने नि:सन्देह पंजाब के किसान और कृषि विशेषज्ञों की पेशानी की रेखाओं को संकुचित किया है। गेहूं की फसल इन दिनों पकने वाली होती है। फरवरी के आखिरी सप्ताह और मार्च के पहले पखवाड़े में गेहूं का दाना अस्तित्व लेने लगता है जिसे पकने के लिए मार्च के दूसरे पखवाड़े जैसी भरपूर गर्मी की आवश्यकता होती है, परन्तु मार्च-अप्रैल जैसी गर्मी अगर फरवरी के अन्तिम सप्ताह से शुरू होती है, तो नि:सन्देह यह गेहूं की बालियों पर असरंदाज़ होकर गेहूं के झाड़ को कम करेगी। इससे गेहूं के दाने का आकार और वज़न दोनों के प्रभावित होने का ़खतरा उपजने लगता है। गर्मी के असमय बढ़ने की इस प्रक्रिया से साउणी अर्थात खरीफ की फसल से पूर्व उपजने वाले मानसून की पथ-गति भी प्रभावित हो सकती है। इससे पूरे देश के खाद्यान्न भण्डार की पूर्ति हेतु एक बड़ी मात्रा में गेहूं और धान की आपूर्ति करने वाले पूरे उत्तर भारत के खाद्यान्न उत्पादन में कमी आने की सम्भावनाएं बनते दिखाई देने लगी हैं। विशेषज्ञों ने यह आशंका भी ज़ाहिर की है कि इस स्थिति में पंजाब और हरियाणा में गेहूं के उत्पादन में 25 प्रतिशत तक की कमी होने की आशंका बन सकती है। मानसून के पथ-परिवर्तन से, नि:सन्देह पंजाब और हरियाणा में बरसाती हवाओं के संकुचन से वर्षा की कमी जैसी स्थितियों से जूझना पड़ सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार विगत वर्ष भी पंजाब को ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था, और इस कारण गेहूं के उत्पादन में 30 प्रतिशत की कमी आई थी। इस अतिरिक्त गर्मी से गेहूं की फसल को अधिक क्षति से बचाने के लिए पानी की अधिक आपूर्ति की आवश्यकता पड़ती है। विशेषज्ञों की राय में गेहूं की फसल को समय-समय पर नमी प्रदान किया जाना चाहिए। तथापि, यदि मौसम ऐसा ही बना रहता है, तो गेहूं के झाड़ में कमी आना बहुत स्वाभाविक-सी बात हो जाएगी। इससे एक ओर जहां गेहूं उत्पादन की कमी का असर पूरे देश के खाद्यान्न भंडार पर पड़ने की सम्भावना है, वहीं इस स्थिति में किसान की आर्थिकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने की बड़ी आशंका है। ऐसी स्थिति में गेहूं, आटा और अन्य वस्तुओं की कीमतों और महंगाई में वृद्धि होने का ़खतरा भी बनता है। 
हम समझते हैं कि इस विपरीत स्थिति के लिए जहां राष्ट्रों के तौर पर ज़िम्मेदारी आयद होना ज़रूरी है, वहीं इस समूची दशा के लिए मनुष्य का निजी अनियोजित, अनियंत्रित और उच्छृंखल व्यवहार भी बड़ी सीमा तक ज़िम्मेदार है। इस आम व्यवहार हेतु स्वयं किसान भी उतना ही दोषी है। प्रत्येक वर्ष पराली जलाये जाने से नि:सन्देह रूप से मौसमों एवं मानसून की गतिशीलता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण में गैसों का दबाव बढ़ने के लिए राष्ट्रों की उदासीनता निरन्तर बढ़ती जा रही है। कल-कारखानों के धुएं और विद्युत उत्पादन हेतु प्रयुक्त होते कोयले से भी वातावरण में गैसों की ज्वलनशीलता बढ़ती है। इससे मानसून की हवाओं का गर्म होना स्वाभाविक है जिससे वर्षा कम होने, और मौजूदा स्थिति वाली गर्मी बढ़ने का ़खतरा उपजता है। ऐसे गर्म वातावरण में कई प्रकार के रोगों के बढ़ने की सम्भावना भी उत्पन्न होने लगती है। नि:सन्देह इस स्थिति से बचा जाना चाहिए। वैसे तो पूरा देश इस विपरीत स्थिति से प्रभावित होता है, किन्तु पंजाब का इस धरातल पर अग्रणी होना ़खतरे के संकेत को बढ़ाता है। इससे पूरे देश के अन्न भंडारण को भी ़खतरा उत्पन्न होता है। हम समझते हैं कि सामाजिक, प्रशासनिक और राजनीतिक सभी धरातलों पर इस अतिगामी स्थिति से बचने हेतु  संयुक्त रूप से प्रयास किया जाना बहुत ज़रूरी है। नि:सन्देह सरकार की भूमिका अधिक ज़रूरी हो जाती है। सरकार और आम लोग इस स्थिति से बचने हेतु सद्-प्रयासों की छतरी ओढ़ने के लिए जितनी शीघ्र तैयार होंगे, पंजाब प्रदेश, देश और समूचे राष्ट्र के लिए उतना ही उपयुक्त एवं उपयोगी होगा।