बिहार में कदाचार या सदाचार ?

मुख्यमंत्री के गृह ज़िला नालन्दा के बिहारशरीफ से एक हृदय विदारक वीडियो तेज़ी से सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। इंटर की परीक्षा में चिट पुर्जा छिनने के कारण कुछ कर्णधार विद्यार्थी एक शिक्षक को गाली गलौज करते हुए बुरी तरह पीट रहे हैं लेकिन इसका संज्ञान न तो प्रशासन ले रहा है और न ही शिक्षक संगठन ध्यान दे रहे हैं।
दरअसल परीक्षा में संलग्न वीक्षक सरकार एवं जनता के दो पाटों के बीच पिस रहे हैं। सरकार अपने प्रशासनिक अधिकारियों को कदाचारमुक्त परीक्षा के लिए हर कदम उठाने के लिए बाध्य कर रही है लेकिन समाज एवं विद्यार्थियों का रवैया कदाचार की मानसिकता को त्यागने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। यह हमारी संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। हम विद्यार्थियों को अभिप्रेरित नहीं कर पा रहे हैं। तहकीकात करने पर पता चलता है कि बिहार की यह पुरानी समस्या है। 1990 के पहले परीक्षाओं में सम्पन्न एवं अभिजन समाज के विद्यार्थियों की कापियां घरों में बैठकर लिखी जाती थी। इससे डिग्रियां मिलती थी और बड़े पदों पर जाते थे। इसमें भी सेटिंग्स की कहानी सर्वविदित है। परिवारवाद, जातिवाद, पैसावाद हावी रहा है।
1990 का दौर सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक न्याय के दौर के रूप में जाना जाता है। वंचित समुदाय के बच्चों का व्यापक स्तर पर विद्यालयों की ओर रुझान हुआ। भैंस चराने वाले, सुअर चराने वाले, घोंघा बीनने वाले के बच्चे सरकारी स्कूलों की ओर उन्मुख हुए लेकिन घर में पढ़ाई की संस्कृति के अभाव के कारण बेहतर परिणाम नहीं निकल रहे थे। इस दौर में बाहर तो कापी नहीं लिखी गई लेकिन परीक्षा केंद्र के अंदर खूब कदाचार हुए, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। 1996 में हाईकोर्ट के नियंत्रण में परीक्षा ली गई, जिसमें 95 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी फेल हो गये। तीन साल यही चला लेकिन बाद में फिर वही हो गया हालांकि एक सकारात्मक प्रभाव पड़ा कि विद्यार्थी पढ़ाई में अत्यंत गम्भीर हो गये थे। 
समय का चक्र  चलता रहा। सरकार एवं कदाचारियों में शह मात का खेल चलता रहा। बीच में दो मंजिला बिल्डिंग पर चढ़कर पुर्जों को पहुंचाते अभिभावकों का वीडियो वायरल हुआ। सरकार की काफी किरकिरी हुई। व्यवस्था पर सवाल खड़े हुए। उसके बाद परीक्षा केंद्रों पर सीसीटीवी कैमरे की व्यवस्था हुई, तबसे यह प्रवृत्ति बन्द हो गई है। अभिभावकों का मेंढक कूद बन्द हो गया है।
तो आखिर अब विकल्प बचा ही क्या है? एक ही विकल्प है कि बाहर से केंद्रों पर शांति दिखे और अंदर से सब कुछ चलने देने के लिए वीक्षकों पर दबाव बनाया जाये। अंगरक्षकों से घिरे हुए अधिकारी तो कोई भी कार्यवाही कर निश्चित रूप से चले जाते हैं। उनका कुछ नहीं होता। उल्टे वीक्षकों को चिट पुर्जा मिलने पर करवाई की धमकी दी जाती है। यही वीक्षकों के दो पाट हैं। कदाचार बन्द करेंगे तो बाहर धुनाई होगी और कदाचार होगी तो कार्रवाई होगी।
अब आइये बच्चों के संस्कार देखते हैं। विद्यालय से अनुपस्थित रहकर कोचिंग संस्थानों पर निर्भर बच्चों में संस्कार नाम की चीजों का अभाव हो गया है। कोचिंग के अनुभवहीन शिक्षक सरकारी स्कूलों एवं शिक्षकों के खिलाफ बच्चों में ज़हर भरने का काम करते हैं। पूंजीवादी ताकतें समाजवादी व्यवस्था के खिलाफ ही रहती है। कच्चे मानस के बच्चे यह नहीं समझ पाते हैं। उनके यहां पढ़ाई का स्तर इसी से पता चलता है कि विद्यार्थी कदाचार के लिए मजबूर हो गये हैं।
नम्बरों के आधार पर शिक्षक बहाली की सरकारी नीति ने इस प्रवृत्ति के विकास में उत्प्रेरक का काम किया है। प्रकारांतर में हर नौकरियों में सेटिंग, प्रश्न पत्र का वायरल होना, सरकारी कार्यालयों में खुलेआम भ्रष्टाचार, शौचालय, आवास निर्माण में प्रखंड विकास पदाधिकारी के कार्यालयों में कमिशनखोरी, दाखिल खारिज में भ्रष्टाचार आदि नकारात्मक अभिवृत्तियों ने जनता को कुंठित कर दिया है। इसी की अभिव्यक्ति परीक्षार्थियों ने खुलेआम सड़क पर शिक्षक की पिटाई की है।
इस पर समाज एवं सरकार को गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। (युवराज)